Wednesday, July 20, 2016

शिव की उपासना।

शिव की उपासना।

सावन मास में शिव भक्ति का पुराणों में भी उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो विष निकला उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम नीलकंठ महादेव पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का खास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिवपुराण में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रुप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है जिसमें कोई संशय नहीं है।

संजीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम्‌।
भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः ॥
अर्थात्‌ जो जल समस्त जगत्‌ के प्राणियों में जीवन का संचार करता है वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। इसीलिए जल का अपव्यय नहीं वरन्‌ उसका महत्व समझकर उसकी पूजा करना चाहिए। पुराणों में यह भी कहा गया है कि सावन के महीने में सोमवार के दिन शिवजी को एक बिल्व पत्र चढ़ाने से तीन जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है। इसलिए इन दिनों शिव की उपासना का बहुत महत्व है।

Tuesday, July 19, 2016

गुरु पूजा।


गुरु पूजा।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।
"अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः"

गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।

Friday, July 15, 2016

चातुर्मास।


चातुर्मास।

चातुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते है इसलिए ये समय भक्तों, साधु संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होनेवाला एक वैदिक यज्ञ है जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है जिसे चौमासा भी कहा जाता है। कात्यायन श्रौतसूत्र में इसके महत्व के बारे में बताया गया है। फाल्गुन से इस का आरंभ होने की बात कही गई है इसका आरंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो सकता है और अषाढ़ शुक्ल द्वादसी या पूर्णिमा पर इसका उद्यापन करने का विधान है। इस अवसर पर चार पर्व हैं वैश्वदेव, वरुणघास, शाकमेघ और सुनाशीरीय। पुराणों में इस व्रत के महत्व के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

वर्षाकाल के चार माह में सभी के लिए साधना पूजा पाठ करने के बारे में कहा गया है। सभी संत एवं ऋषि मुनि इस समय में इस चौमासा व्रत का पालन करते हुए देखे जा सकते हैं। इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है, चार माह जमीन पर सोते हैं और चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु की आराधना कि जाती है। इसके अलावा उपवास और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फल प्रदान करने वाला होता है। चातुर्मास के चार महीनों को शुभ माना जाता है। इसके बाद चातुर्मास का समापन देव उठनी ग्यारस पर होता है और इसी के साथ चातुर्मास का माह भी समाप्त हो जाता है।

Tuesday, July 05, 2016

माता चिंतापूर्णी।


माता चिंतापूर्णी।

मनुष्य की चिंताओं का हरण करने वाली, दुखों का नाश करने वाली, समस्त सुख वैभव, धन सम्पत्ति प्रदान करने वाली माता श्री चिंतपूर्णी देवी का स्थान हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले के अंतर्गत भरवाईं नामक स्थान पर सोला-सिंघी पहाडिय़ों पर स्थित है। इनके दर्शनों से प्राणी चिंतामुक्त होकर प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करता है। मां चिंतापूर्णी देवी अपनी कृपा रूपी प्रसाद से भक्तों की झोलियां सदैव भरती चली आ रही हैं। जो भी भक्त माता के दरबार में अपना शीश झुकाता है उसकी मनोकामनाएं माता रानी ने पूर्ण की हैं। माता चिंतापूर्णी मंदिर का इतिहास-भगत माई दास कालिया देवी का बहुत बड़ा भक्त था और अपना सम्पूर्ण समय देवी की पूजा और भजन-कीर्तन में ही गुजारता था। इतिहास के मुताबिक लगभग 26 पीढिय़ां पूर्व गांव छपरोह में माता चिंतापूर्णी मंदिर की खोज की गई थी। एक बार की बात है कि भक्त माई दास कालिया अपने ससुराल जा रहा था कि काफी सफर तय करने के उपरान्त एक वट वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया। थकावट के कारण माई दास की आंख लग गई। उसके स्वप्न में एक छोटी कंजक ने उसको इस जगह पर ठहर कर महामाया की आराधना करने के लिए कहा।

कहते हैं कि इसके बाद भक्त माई दास को महामाया ने सिंह पर सवार होकर अष्टभुज रूप में दर्शन दिए। महामाया ने कहा कि मैं युगों-युगों से इस स्थान पर रह रही हूं और पिंडी के रूप में विराजमान हूं और छिन्नमस्तिका के नाम से पुकारी जाती हूं। मेरे दर्शनों से तुम्हारी और सभी भक्तों की समस्त कामनाएं पूर्ण होंगी और चिंताओं के भंवर जाल से मुक्ति मिलेगी। भक्तों की चिन्ताएं दूर करने के कारण आज की तिथि से मैं चिंतापूर्णी के नाम से विख्यात होऊंगी। तब माई दास ने कहा -हे देवी! मुझे जप-तप, पूजा-पाठ का ज्ञान नहीं है। मैं किस प्रकार आपकी आराधना करूंगा, फिर न तो यहां जल है न रोटी। उस समय देवी ने स्वयं अपने श्री मुख से कहा- तुम मेरे मूल मंत्र-

ऊं ऐ हीं क्लीं श्री चामुण्डायै विचै।
का जप करो और जाकर पहाड़ के नीचे बड़े पत्थर को उखाड़ो तुम्हें जल की प्राप्ति होगी। यह कह कर देवी अंतर्धान हो गर्ईं। माई दास ने महामाया की आज्ञा पाकर पत्थर उखाड़ा तो नीचे से शुद्ध और निर्मल जल की धारा फूट निकली। आज भी महामाई की पिंडी का स्नान इसी जल से कराया जाता है। भक्त माई दास ने जिस वट वृक्ष के नीचे विश्राम किया था वह प्राचीन वट वृक्ष आज भी माता की कृपा से पूर्ववत हरा-भरा है। श्रद्धालु जन इसी वट वृक्ष पर अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु मौली बांधते हैं और जब उन्हें मनवांछित फल प्राप्त हो जाता है तो वे मां के दरबार में दर्शनों के उपरांत वट वृक्ष से बांधे हुए धागे खोल लेते हैं। इस जगह पर माता चिंतापूर्णी के भव्य मंदिर का निर्माण हो चुका है और लाखों की संख्या में माता के भक्तजन महामाई का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।