Tuesday, June 30, 2015

अर्द्धनारीश्वर शिव।

अर्द्धनारीश्वर शिव।

सृष्टि के प्रारंभ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गई मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टि करो। आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदय में प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान करते रहे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान उमा-महेश्वर ने उन्हें अर्द्धनारीश्वर रूप में दर्शन दिया। महेश्वर शिव ने कहा- पुत्र ब्रह्मा! तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है, उससे मैं परम प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमा देवी को अलग कर दिया। ब्रह्मा ने कहा.-एक उचित सृष्टि निर्मित करने में अब तक मैं असफल रहा हूं। मैं अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाओं को उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूं। परमेश्वरी शिवा ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान कांतिमती एक शक्ति प्रकट की। सृष्टि निर्माण के लिए शिव की वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गई। इस प्रकार ब्रह्माजी को उपकृत कर तथा अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेव जी के शरीर में प्रविष्ट हो गईं, यही अर्द्धनारीश्वर शिव का रहस्य है और इसी से आगे सृष्टि का संचालन हो पाया, जिसके नियामक शिवशक्ति ही हैं।

Monday, June 29, 2015

ज्वालादेवी।

ज्वालादेवी
दोस्‍तों, य‍ह विडियो नगरकोट हिमाचल प्रदेश ज्वालादेवी का है। यहाँ सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला जो चांदी के जाला के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।

Sunday, June 28, 2015

भगवान श्री राम।


भगवान श्री राम।
परम-कृपालु भगवान श्री राम वन-मार्ग में सदा आगे चलते ताकि राह में जितने कांटे पड़े हों सब उन्हीं को चुभे, उनके पीछे-पीछे चलने वाली सीता जी और लक्ष्मण जी को कभी कोई कांटे चुभने का कष्ट न हो! और जब भगवान विश्राम करते तो लक्ष्मण भैया उनके चरणों को निहारके सारे कांटे निकालते।
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी।।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।
भावार्थ:- जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं।

Saturday, June 27, 2015

रामेश्वरम्।

रामेश्वरम्।
रामेश्वरम् हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।[क] भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम् चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस ३० मील (४८ कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।

Friday, June 26, 2015

मणिकंठ महादेव।


मणिकंठ महादेव
दोस्‍तों, य‍ह विडियो मणिकंठ हिमाचल प्रदेश का है। जिसमें देवाधिदेव महादेव का अद्भूत चमत्‍कार देखकर आप ईश्‍वरीय शक्ति पर सोचने को मजबूर हो जाएंगे।

Wednesday, June 24, 2015

गणेश वंदना।

गणेश वंदना।
किसी भी पूजा-अर्चना या शुभ कार्य को सम्पन्न कराने से पूर्व गणेश जी की आराधना की जाती है।

वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥

हे वक्रतुण्ड, महाकाय, करोड़ों सूर्यों के समान आभा वाले देव (गणेश), मेरे सभी कार्यों में विघ्नो का अभाव करो, अर्थात् वे बिना विघ्नों के संपन्न होवें ।

गणेशजी को वक्रतुण्ड पुकारा गया है । तुण्ड का सामान्य अर्थ मुख या चोंच होता है, किंतु यह हाथी की सूंड़ को भी व्यक्त करता है । गणेश यानी टेढ़ीमेढ़ी सूंड़ वाले । उनका पेट या तोंद फूलकर बढ़ा हुआ, अथवा भारीभरकम है, अतः वे महाकाय – स्थूल देह वाले – हैं । उनकी चमक करोड़ों सूर्यों के समान है । यह कथन अतिशयोक्ति से भरा है । प्रार्थनाकर्ता का तात्पर्य है कि वे अत्यंत तेजवान् हैं । निर्विघ्न शब्द प्रायः विशेषण के तौर पर प्रयुक्त होता है, किंतु यहां यह संज्ञा के रूप में है, जिसका अर्थ है विघ्न-बाधाओं का अभाव । तदनुसार निहितार्थ निकलता है सभी कार्यों में ‘विघ्न-बाधाओं का अभाव’ रहे ऐसी कृपा करो, अर्थात् विघ्न-बाधाएं न हों ।

Tuesday, June 23, 2015

अंकोरवाट मंदिर।

अंकोरवाट मंदिर।
कम्बोडिया का अंकोरवाट मंदिर का इतिहास व रहस्य- यह विश्व के विशालतम् मन्दिरों मे से एक अनुठा मंदिर है। कम्बोडिया मै भगवान विष्णु जी का यह मंदिर सन् 702 ई० मै राजा सुमेर वरमन व यशोवरमन ने 36 साल 204 दिन मै बनवाया था। मिनाग नदी के तट पर बना यह मंदिर चोल शासको की देन है जो भगवान विष्णु की पूजा करते थे। इस मंदिर को यमलोक का दरवाजा भी कहते है। इस मंदिर के चारो तरफ 82 फुट चौड़ी व 702 फीट गहरी खाई है जो गिरा वह काल के मूह मै समा गया। मंदिर पर जाने के लिये फाटक का इस्तेमाल होता है। गहरी खाई पानी से लबालब पानी से भरा होता है। इस खाई मै अनगिनत मगरमच्छ व जहरीले नाग अजगर रहते है। चोल शैली बना यह मंदिर की उचाँई 76 मीटर है। जो विश्व का इतनी उचाँई वाला एकमात्र मंदिर है। अकोरवाट का पुराना नाम यशोधरपुर था बाद मै यहाँ के शासक अकंरवट ने इसका नाम सन् 1102 ई० मै अकोरवाट रख दिया अकोरवाट का मंदिर देखने लायक है पर जाना पड़ता है सभलकर।

Saturday, June 20, 2015

श्री गणेश मूल मंत्र।

श्री गणेश मूल मंत्र।
श्री गणेश का पूजन जीवन में खुशियां लाता है। श्री गणेश के इन मूल मंत्रों का 108 बार नियमित जप करने से मनोकामना पूर्ति में सहायक होते हैं।किसी भी एक मंत्र का जप किया जा सकता है।

श्री गणेशाय नमः।

ऊँ गं गणपतये नमः।

ऊँ गं ऊँ

Thursday, June 18, 2015

यहां काल का नहीं महाकाल का शासन चलता है।

यहां काल का नहीं महाकाल का शासन चलता है।

उज्जैन मध्य प्रदेश में है। यह मध्य प्रदेश के बीचोबीच बसा है। इस नगर को मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी का दर्जा प्राप्त है। यहां हर गली, हर चौराहे पर एक मंदिर नजर आता है। उज्जैन मंदिरो के अलावा सम्राट विक्र मादित्य और महाकवि कालीदास के कारण भी विख्यात है। सम्राट विक्रमादित्य के नाम से ही विक्रम संवत चलाया गया। प्रसिद्घ नाटककार कालिदास ने अपना अधिकांश समय यही बिताया और अनेक रचनाओं की रचना की। उज्जैन शिप्रा नदी के कारण भी प्रसिद्घ है। इस नदी के तट पर हर बारह साल में एक बार सिंहस्थ महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। उज्जैन महाकाल मंदिर के लिए भी जाना जाता है। उज्जैन का इतिहास पांच हजार साल से भी अधिक पुराना है।

ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में सोलह जनपदों या राष्ट्रों में से एक अवंति जनपद का भी उल्लेख है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अंवति, अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, नंदनी, अमरावती, प्रतिकल्पा, चूडामणि, कनकश्रृंगा, आदि नामों से भी जाना जाता था। यह प्रसिद्घ मंदिर शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह दुनिया का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है। श्री महाकाल की स्तुति महाभारत कालीन वेदव्यास से लेकर कालिदास, बाणभट्ट, राजा भोज आदि ने की है। यहां हर वर्ष भारी संख्या में श्रद्घालु आते है।

सिंहस्थ मेला यहां 12 वर्ष में एक बार लगता है। पहले इस मंदिर का शिखर सोने का था जो मीलों दूर से दिख जाता था। ग्यारहवीं शताब्दी में जब यह जीर्ण होने लगा तो राजा भोज ने इसकी मरम्मत करवाई थी। बाद में इस मंदिर पर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हमला किया। सन 1235 में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने इस मंदिर को तुडवा दिया। अनेक स्वर्ण-मूर्तियों को अपने साथ लेकर चला गया। लगभग 500 वर्षो तक महाकाल का पता नहीं चला लेकिन मंदिर पर लोगों का विश्वास सदा बना रहा। इस मंदिर के खंडहर अब भी विद्यमान है। वर्तमान मंदिर मराठा कालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्घार सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।

शिवपुराण में वर्णित कथा के अनुसार दूषण नाम का एक अत्याचारी राक्षस था। उससे जनता बड़ी परेशान थी। दूषण के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए उज्जयिनी के निवासियों ने शिव की आराधना की । इससे शिव प्रसन्न हो गए और शिवजी ज्योति के रूप में प्रकट हुए। शिवजी ने उस दैत्य को मार गिराया और भक्तों के आग्रह पर लिंग के रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए।

महाकाल शिवलिंग दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है जहां भस्म आरती की जाती है। भस्म आरती के समय शिवजी को गाय के गोबर के कंडों से बनी भस्म से सजाया जाता हैं। किंवदंवी है कि पहले-पहल यहां मुर्दे की भस्म से आरती की जाती थी, लेकिन बाद में यहां गोबर के कंडे की राख को उपयोग किया जाने लगा। इस मंदिर में शिवरात्रि और सावन के सोमवार के दिन भक्तों का तांता लगा रहता है।

स्कंधपुराण के अंवतिका खंड में इस मंदिर के जन्म से जुडी कथा के बारें में बताया गया है। इसके अनुसार अंधाकासुर नाम के दैत्य ने शिव की आराधना करके यह वरदान पाया कि उसकी रक्त की बूंदों से प्रतिदिन नए राक्षस जन्म लेते रहेंगे। इन राक्षसों से जनता बड़ी परेशान हो गई। इसके लिए उन्होंने शिव की उपासना की। तब शिव और राक्षस अंधाकासुर के बीच भीषण युद्घ हुआ। इससे शिव के पसीने की बूंदे धरती पर गिरीं,जिससे धरती दो भागों मे फट गई। इससे मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई। शिवजी के प्रहारों से घायल मंगल ग्रह की भूमि लाल हो गई। दैत्य मारा गया। शिवजी ने इस नए ग्रह को पृथ्वी से अलग कर दिया। जिन लोगों की पत्रिका में मंगल भारी होता है वह यहां पूजा -अर्चना करके उसे शान्त कराने के लिए आते रहते है।

महाकाल मंदिर के बाद सबसे ज्यादा श्रद्घालु काल भैरव मंदिर आते है। वाम मार्गी तांत्रिकों का यह प्रमुख मंदिर माना जाता है। इस मंदिर का इतिहास भी हजारों साल पुराना है। यहां आश्चर्य और आस्था का गजब मिश्रण है। यहां भैरव बाबा की मूर्ति मदिरा पान करती है। लेकिन मदिरा कहां जाती है इसका पता नहीं चल सका है। इसको लेकर कई जांच भी हो चुकी है। यहां भक्तगण बड़ी भारी संख्या में आते है और काल भैरव को मदिरा पीते देखकर आश्चर्य प्रकट करते है।

मान्यता है कि भूखीमाता को प्रतिदिन एक जवान लड़के की बलि दी जाती थी। उस लड़के को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था। फिर उसे भूखी माता खा जाती थी। एक बार विक्रमादित्य ने एक दुःखी मां को देखकर वचन दिया कि वह भूखी माता का भोग बनेगा। राजा बनते ही विक्रमादित्य ने पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाने का आदेश दिया। इससे भूखी माता की भूख विक्रमादित्य को भोजन बनाने से पहले ही शांत हो गई और उसने विक्रमादित्य को चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया। तब राजा ने भूखी माता के सम्मान में इस मंदिर को बनवाया।

नागचंद्रेश्वर मंदिर काफी प्राचीन है। इसके बारे में बताया जाता है कि परमार राजा भोज ने 1050 ईस्वी के लगभग इस मंदिर का पुनर्निमाण कराया था। मंदिर में शिवशंभु की अदभुत प्रतिमा विराजमान है। इसमें शिवजी पूरे परिवार के साथ विराजमान है। पूरी दुनिया में यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें विष्णु भगवान की जगह भोलेनाथ सर्प शय्या पर विराजमान है। इसके बारे में कहा जाता है कि दर्शन करने के बाद व्यक्ति किसी भी तरह के सर्पदोष से मुक्त हो जाता है। महाकाल मंदिर के शिखर पर बने इस मंदिर की खास बात यह है कि इसके दरवाजे साल में एक बार नागपंचमी के दिन ही खुलते है। इसलिए नागपंचमी के दिन नागचंद्रेश्वर मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है।

Tuesday, June 16, 2015

भगवान विष्णु।

भगवान विष्णु।
हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु 'परमेश्वर' के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार हैं। संपूर्ण विश्व श्रीविष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं।

ईश्वर के ताप के बाद जब जल की उत्पत्ति हुई तो सर्वप्रथम भगवान विष्णु का सगुण रूप प्रकट हुआ। विष्णु की सहचारिणी लक्ष्मी है। विष्णु की नाभी से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। आदित्य वर्ग के देवताओं में विष्णु श्रेष्ठ हैं। और भी कई विष्णु हैं।

विष्णु का अर्थ- विष्णु के दो अर्थ है- पहला विश्व का अणु और दूसरा जो विश्व के कण-कण में व्याप्त है।

विष्णु की लीला: भगवान विष्णु के वैसे तो 24 अवतार है किंतु मुख्यत: 10 अवतार को मान्यता है। विष्णु ने मधु केटभ का वध किया था। सागर मंथन के दौरान उन्होंने ही मोहिनी का रूप धरा था। विष्णु द्वारा असुरेन्द्र जालन्धर की स्त्री वृन्दा का सतीत्व अपहरण किया गया था।

विष्णु का स्वरूप: क्षीर सागर में शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए होते हैं। उनके शंख को 'पाञ्चजन्य' कहा जाता है। चक्र को 'सुदर्शन', गदा को 'कौमोदकी' और मणि को 'कौस्तुभ' कहते हैं। किरीट, कुण्डलों से विभूषित, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, कमल नेत्र वाले भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।

विष्णु मंत्र: पहला मंत्र- ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। दूसरा मंत्र- ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

विष्णु का निवास: क्षीर सागर में। विष्णु पुराण के अनुसार यह पृथ्वी सात द्वीपों में बंटी हुई है- जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप। ये सातों द्वीप चारों ओर से सात समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं, और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। दुग्ध का सागर या क्षीर सागर शाकद्वीप को घेरे हुए है। इस सागर को पुष्करद्वीप घेरे हुए है।

भगवान विष्णु के नाम: भगवान श्रीविष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। वे ही श्रीहरि, गरुड़ध्वज, पीताम्बर, विष्वक्सेन, जनार्दन, उपेन्द्र, इन्द्रावरज, चक्रपाणि, चतुर्भुज, लक्ष्मीकांत, पद्मनाभ, मधुरिपु, त्रिविक्रम,शौरि, श्रीपति, पुरुषोत्तम, विश्वम्भर, कैटभजित, विधु, केशव, शालीग्राम आदि नामों से भी जाना जाता है।

विष्णु के अवतार: शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि। 24 अवतारों का क्रम निम्न है-1.आदि परषु, 2.चार सनतकुमार, 3.वराह, 4.नारद, 5.नर-नारायण, 6.कपिल, 7दत्तात्रेय, 8.याज्ञ, 9.ऋषभ, 10.पृथु, 11.मतस्य, 12.कच्छप, 13.धनवंतरी, 14.मोहिनी, 15.नृसिंह, 16.हयग्रीव, 17.वामन, 18.परशुराम, 19.व्यास, 20.राम, 21.बलराम, 22.कृष्ण, 23.बुद्ध और 24.कल्कि।

Sunday, June 14, 2015

जोबनेर ज्‍वाला माता।

जोबनेर ज्‍वाला माता।
ऐतिहासिक परिचयः-
सुन्‍दर शैल शिखर पर राजे, मन्दिर ज्‍वाला माता का।
अनुदिन ही यात्रीगण आते, करने दर्शन माता का।।
इसी भवानी के पद तल में, नगर बसा एक अनुपम सा।
जोबनेर विख्‍यात नाम से, पद्रेश में सुन्‍दरतम् सा।।

उतुंग शिखरों से युक्‍त हरे-भरे त्रिकोणाकार पर्वत की गोद में स्थित ‘जोबनेर’ चन्‍द्रवंश मुकुटमणि महाराज ययाति द्वारा अपने पुत्र पुरू के यौवनदान की स्‍मृति में ‘यौवनेर’ के नाम से बसाया था, जो अपभ्रंश होकर जोबनेर के नाम से पुकारे जाने लगा। महाराज ने अपनी दोनों रानियों- देवयानी व शर्मिष्‍ठा की स्‍मृति में दो तीर्थ सरोवरों का निर्माण कराया था जो सांभर के सन्निकट अब तक विद्यमान हैं।

जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा जोबनेर ज्‍वाला माता के मन्दिर के कारण प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक प्रसिद्ध रहा है। पहाड़ की हरिताभा के बीच चांदी सा चमकता हुआ यह मन्दिर दूर से ही दर्शक का मन मोह लेती है।

दक्ष-यज्ञ विध्‍वंस होने के बाद सती की मृत देह के गलित अंग-प्रत्‍यंग जिस-जिस स्‍थान पर गिरे, वे स्‍थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। सती का जानु (घुटना) यहां गिरने से यह स्‍थल कामनाप्रद सिद्धपीठ के रूप में पूज्‍य है।

ज्‍वाला माता के विग्रह की यह विशिष्‍टता है कि यह किसी के द्वारा प्रतिष्‍ठापित नहीं बल्कि प्रस्‍तर काल में गुफा से स्‍वत: उद्भूत देवी प्रतिमा का जानु भाग मात्र है। देवी को अपना अंश यहां प्रकट करना अभिष्‍ट था।

देवी प्रतिमा के जानु मात्र ही प्रकट होने के सम्‍बन्‍ध में एक किंवदन्‍ती इस प्रकार से प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ग्‍वाला इस पर्वत पर भेड़-बकरियां चरा रहा था। ज्‍वाला माता ने वृद्धा का रूप धारण कर उससे कहा कि- ‘‘इस पर्वत में से अभी देवी प्रकट होगी। भीष्‍ण गर्जना के साथ पर्वत तक हिलने लगेगा। तुम भयभीत हो जाओगे अत: तुरन्‍त यहां से भाग जाओ।’’ किन्‍तु ग्‍वाला माता के शान्‍त रूप से डरा नहीं और वहीं डटा रहा। इतने में श्‍वेतावस्‍त्रा शान्‍त मातृ रूप अदृश्‍य हो गया और गम्‍भीर गर्जना के से दसों दिशाओं को निनादित करता हुआ, पर्वत वक्ष वीदीर्ण कर सिंहवाहिनी देवी को तेजोमय स्‍वरूप प्रकट हुआ। प्रतिमा के वाम चरण जानु (घुटना) भाग ही बाहर आ पाया था कि उक्‍त ग्‍वाला के प्राण पखेरू उड़ने को उद्यत हो गए। प्रकट होने की शुभ बेला में मृत्‍यु की अशुभ घड़ी के निवारणार्थ देवी ने अपना प्रकट होना रोक लिया एवं प्रकट अंश को स्थिर कर ज्‍योतिर्मय स्‍वरूप विलीन हो गया। पर्वत के गर्भद्वार से सटे जानु भाग को मुखाकृति से सुसज्जित कर भक्‍तगण कृतार्थ हो गए।

Friday, June 12, 2015

अनमोल वचन।

अनमोल वचन।
सूर्योदय के समय और दिन में सोने से आयु क्षीण होती है। (महाभारत, अनुशासन पर्व)

* कहा गया हैः 'दाँतों का काम आँतों से नहीं लेना चाहिए।' अति ठंडा पानी या ठंडे पदार्थ तथा अति गर्म पदार्थ या गर्म पानी के सेवन से दाँतों के रोग होते हैं। खूब ठंडा पानी या ठंडे पदार्थों के सेवन के तुरंत बाद गर्म पानी या गर्म पदार्थ का सेवन किया जाय अथवा इससे विरूद्ध क्रिया की जाय तो दाँत जल्दी गिरते हैं।

* प्रातःकाल सैर अवश्य करनी चाहिए। सुबह-सुबह ओस से भीगी घास पर नंगे पैर चलना आँखों के लिए विशेष लाभदायी है शौच व लघुशंका के समय मौन रहना चाहिए। मल-विसर्जन के समय बायें पैर पर दबाव रखें। इस प्रयोग से बवासीर रोग नहीं होता। पैर के पंजों के बल बैठकर पेशाब करने से मधुमेह की बीमारी नहीं होती। भोजन के बाद पेशाब करने से पथरी का डर नहीं रहता।

* 'गले से नीचे के शारीरिक भाग पर गर्म (गुनगुने) पानी से स्नान करने से शक्ति बढ़ती है, किंतु सिर पर गर्म पानी डालकर स्नान करने से बालों तथा नेत्रशक्ति को हानि पहुँचती है।' (बृहद वाग्भट, सूत्रस्थानः अ.3)

* प्रतिदिन स्नान करने से पूर्व दोनों पैरों के अँगूठों में सरसों का शुद्ध तेल लगाने से वृद्धावस्था तक नेत्रों की ज्योति कमजोर नहीं होती।
* जो सिर पर पगड़ी या टोपी रख के, दक्षिण की ओर मुख करके अथवा जूते पहन
कर भोजन करता है, उसका वह सारा भोजन आसुरी समझना चाहिए। (महाभारत, अनुशासन पर्वः 90.19)

*जो सदा सेवकों और अतिथियों के भोजन कर लेने के पश्चात् ही भोजन करता है, उसे केवल अमृत भोजन करने वाला (अमृताशी) समझना चाहिए। (महाभारत, अनुशासन पर्व:93.13)

* पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके भोजन करने से क्रमशः दीर्घायु और सत्य की प्राप्ति होती है। भूमि पर बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते कभी न करे। किसी के साथ एक पात्र में तथा अपवित्र मनुष्य के निकट बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। (महाभारत, अनुशासन पर्व)

* लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना चाहिए। यह नरक की प्राप्ति कराने वाला है।(महाभारत अनुशासन पर्व)

* एक बार पकाया हुआ भोजन दुबारा गर्म करके खाने से शरीर में गाँठें बनती हैं, जिससे टयूमर
की बीमारी हो सकती है।

* कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्गलोक में स्थान नहीं है। उनका पुण्य क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं। (महाभारत महाप्रयाण पर्वः 3.10)
* जो मनुष्य पीपल के वृक्ष को देखकर प्रणाम करता है, उसकी आयु बढ़ती है तथा जो इसके नीचे बैठकर धर्म- कर्म करता है, उसका कार्य पूर्ण हो जाता है। जो मूर्ख मनुष्य पीपल के वृक्ष को काटता है, उसे इससे होने वाले पाप से छूटने का कोई उपाय नहीं है।(पद्म पुराण खंड 7, अ.12)

*सभी पक्षों की अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी-इन सभी तिथियों में स्त्री समागम करने
से नीच योनि एवं नरकों की प्राप्ति होती है। (महाभारत, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्वः 104.29.30)

*दिन में और दोनों संध्याओं के समय जो सोता है या स्त्री-सहवास करता है, वह सात जन्मों तक रोगी और दरिद्र होता है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण)

* ब्रह्महत्या से जो पाप लगता है उससे दुगना पाप गर्भपाप करने से लगता है। इस गर्भपातरूप महापाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं है ( पाराशर स्मृतिः 4.20)

* बाल तथा नाखून काटने के लिए बुधवार और शुक्रवार के दिन योग्य माना जाते हैं। एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, सूर्य- संक्रान्ति, शनिवार, मंगलवार, गुरुवार, व्रत तथा श्राद्ध के दिन बाल एवं नाखून नहीं काटने चाहिए।

Wednesday, June 10, 2015

श्रीहरि: वंदना।


श्रीहरि: वंदना।
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा,
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां,
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌।।

भावार्थ:-जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ।

Sunday, June 07, 2015

कुम्भ की कथा।


कुम्भ की कथा।
कुम्भ की कथा का वर्णन विष्णुपुराण में मिलता है। जब देवताओं और असुरों में संग्राम हुआ तो देवता हारने लगे। ऐसे में उन्होंने श्री विष्णु से मदद की गुहार लगाई। विष्णु ने देवताओंको असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया। विष्णु के अनुसार इस समुद्र मंथनसे निकलने वाले अमृत को पीकर देवता अमर हो जायेंगे और फिर असुरों को आसानी से हरा सकेंगे।

असुर अमृत के लालच में देवताओं के साथ समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए। विष्णु के अवतार कछप की पीठ पर विराट मद्रांचल पर्वत को मथनी बनाया गया और नाग राज वासुकी को रस्सी बना कर असुरों और देवताओं ने समुद्र मंथन शुरू किया। समुद्र मंथन से एक-एक कर कुल चौदह महारत्न निकले। इस मंथन से हलाहलविष भी निकला जिसे पीने से भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वो नीलकंठ कहलाए। समुद्र मंथन के अंत में धनवन्तरी अमृत-कलश ले कर प्रकट हुए। अमृत को पाने के लिए देवताओं और असुरों में पुनः युद्ध छिड गया।

युद्ध को रोकने के लिए विष्णु ने मोहनी (अत्यंत सुन्दर स्त्री) का रूप धारण किया। मोहनी ने दोनों के बीच समझौता कराया कि वो एक-एक कर देवताओं और असुरों को अमृत-पान कराएगी। मोहनी ने छल से सिर्फ देवताओं को ही अमृत पिलाना शुरू कर दिया। असुरों में से एक असुर राहु को इस बात का पता लग गया और वो वेश बदल कर देवताओं के बीच जा बैठा। सूर्य और चन्द्रमा को इस बात का पता लग गया। उन्होंने मोहनी को इस बात से परिचित कराया लेकिन तब तक वो अमृत-पान कर चुका था। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सर धड़ से अलग कर दिया। उसके दो हिस्से ही राहू और केतु कहलाए। चूँकि वो अमृत पी चुका था,इसलिए ऐसा माना जाता है कि वही राहु और केतु सूर्य और चन्द्रमा पर अपनी काली छाया डाल कर ग्रहण का निर्माण करते हैं।

इसी बीच अमृत को असुरों से बचाने के लिए इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर वहां से भागने लगे। वो लगातार १२ दिन तक भागते रहे। इस दौरान अमृत की कुछ बूंदे १२ स्थानों पर गिरी। जिनमे से चार स्थान पृथ्वी पर और आठ स्वर्ग पर थे। पृथ्वी पर ये चार स्थान थे - प्रयाग (इलाहाबाद), नासिक, उज्जैन और हरिद्वार। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के १२ साल के बराबर होता है, इसीलिए हर बारहवे साल इन स्थानों पर महाकुम्भ का अयोजन होता है।

Saturday, June 06, 2015

वाराणसी की कथा।


वाराणसी की कथा।
यह कथा द्वापरयुग की है जब भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने काशी को जलाकर राख कर दिया था। बाद में यह वाराणसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कथा इस प्रकार हैः

मगध का राजा जरासंध बहुत शक्तिशाली और क्रूर था। उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे। यही कारण था कि आस-पास के सभी राजा उसके प्रति मित्रता का भाव रखते थे। जरासंध की अस्ति और प्रस्ति नामक दो पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था।

कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था। प्रजा को उसके अत्याचारों से बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। दामाद की मृत्यु की खबर सुनकर जरासंध क्रोधित हो उठा। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते जरासंध ने कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण उसे पराजित कर जीवित छोड़ देते थे।

एक बार उसने कलिंगराज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया। जरासंध तो भाग निकला किंतु पौंड्रक और काशीराज भगवान के हाथों मारे गए।

काशीराज के बाद उसका पुत्र काशीराज बना और श्रीकृष्ण से बदला लेने का निश्चय किया। वह श्रीकृष्ण की शक्ति जानता था। इसलिए उसने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हें समाप्त करने का वर माँगा। भगवान शिव ने उसे कोई अन्य वर माँगने को कहा। किंतु वह अपनी माँग पर अड़ा रहा।

तब शिव ने मंत्रों से एक भयंकर कृत्या बनाई और उसे देते हुए बोले-“वत्स! तुम इसे जिस दिशा में जाने का आदेश दोगे यह उसी दिशा में स्थित राज्य को जलाकर राख कर देगी। लेकिन ध्यान रखना, इसका प्रयोग किसी ब्राह्मण भक्त पर मत करना। वरना इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।” यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

इधर, दुष्ट कालयवन का वध करने के बाद श्रीकृष्ण सभी मथुरावासियों को लेकर द्वारिका आ गए थे। काशीराज ने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए कृत्या को द्वारिका की ओर भेजा। काशीराज को यह ज्ञान नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण भक्त हैं। इसलिए द्वारिका पहुँचकर भी कृत्या उनका कुछ अहित न कर पाई। उल्टे श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उसकी ओर चला दिया। सुदर्शन भयंकर अग्नि उगलते हुए कृत्या की ओर झपटा। प्राण संकट में देख कृत्या भयभीत होकर काशी की ओर भागी।

सुदर्शन चक्र भी उसका पीछा करने लगा। काशी पहुँचकर सुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दिया। किंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को भस्म कर दिया।

कालान्तर में वारा और असि नामक दो नदियों के मध्य यह नगर पुनः बसा। वारा और असि नदियों के मध्य बसे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ गया। इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ।

Tuesday, June 02, 2015

महावीर हनुमान।

महावीर हनुमान।
श्रीहनुमान चालीसा में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते है-
‘महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी’
अर्थात्- आप महान वीर और बलवान हैं, वज्र के समान अंगों वाले, खराब बुद्धि दूर करके शुभ बुद्धि देने वाले हैं।

हनुमानजी गदा युद्ध का प्रयोग नहीं करते थे, मुक्के का प्रयोग करते थे, हनुमानजी को महावीर कहा गया है। वीर शब्द भी बहुतों के लिए आया है- भीष्म पितामाह, अर्जुन, मेघनाथ पर ‘महावीर’ केवल हनुमानजी के लिए आया है। महावीर जिनमें पाँच लक्षण हो- विद्यावीर, धर्मवीर, दानवीर... आदि वह वीर है और पाँच लक्षण से युक्त वीर को भी अपने वश में करके रखें वो महावीर हैं। भगवान में ये पाँच लक्षण थे और हनुमानजी ने उन्हें भी अपने वश में कर रखा था।