Monday, September 28, 2015

श्राद्ध प्रक्रिया।

श्राद्ध प्रक्रिया।
1. श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई। और इसके
मूल में उपरोक्त श्लोक की भावना है। उचित समय
पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए
श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ जो (दान-
दक्षिणा आदि) दिया जाए, वही श्राद्ध
कहलाता है।

2. श्राद्ध के मुख्य देवता कौन हैं?
वसु, रुद्र तथा आदित्य, ये श्राद्ध के देवता हैं।

3. श्राद्ध किसका किया जाता है? और क्यों?
हर मनुष्य के तीन पूर्वज : पिता, दादा और
परदादा क्रमश: वसु, रुद्र और आदित्य के समान
माने जाते हैं। श्राद्ध के वक्त वे ही सभी पूर्वजों के
प्रतिनिधि समझे जाते हैं। समझ जाता है, कि वे
श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करते हैं। और
ठीक ढंग से किए श्राद्ध से तृप्त होकर वे अपने वंशधर
के सपरिवार सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य का वरदान
देते हैं। श्राद्ध के बाद उस दौरान उच्चरित मंत्रों तथा
आहुतियों को वे सभी पितरों तक ले जाते हैं।

4. श्राद्ध कितनी तरह के होते हैं?
नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य श्राद्ध,
श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर,
नैमित्तिक किसी विशेष पारिवारिक मौके (जैसे
पुत्र जन्म) पर और काम्य विशेष मनौती के लिए
कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में
किया जाता है।

5. श्राद्ध कौन-कौन कर सकता है?
आमतौर पर पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते
पाए जाते हैं। लेकिन शास्त्रनुसार ऐसा हर
व्यक्ति जिसने मृतक की संपत्ति विरासत में पाई
है, उसका स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। यहाँ तक
कि विद्या की विरासत से लाभान्वित होने
वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर
सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र
या प्रपौत्र श्राद्ध करते हैं। निस्संतान
पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र
को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड
नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र
का ऐसा बच्च, जिसका उपनयन न हुआ हो,
पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता है। शेष
कार्य (पिण्डदान, अग्निहोम) उसकी ओर से कुल
पुरोहित करता है।

6. श्राद्ध के लिए उचित और वजिर्त पदार्थ क्या हैं?
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं : तिल, माष, चावल,
जौ, जल, मूल (जड़युक्त सब्जी) और फल। तीन चीजें
शुद्धि कारक हैं : पुत्री का पुत्र, तिल और
नेपाली कम्बल! श्राद्ध करने में तीन बातें प्रशंसनीय
हैं : सफाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)
का न होना)। श्राद्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें हैं :
अपरान्ह का समय, कुशा,
श्राद्धस्थली की स्वच्छता, उदारता से
भोजनादि की व्यवस्था और अच्छे
ब्राह्मणों की उपस्थिति।
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में
नहीं लगते, इस प्रकार हैं : मसूर, राजमा, कोदों,
चना, कपित्थ, अलसी (तीसी, सन, बासी भोजन
और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हरिणी, ऊँटनी, भेड़
और एक खुर वाले पशुओं का दूध भी वजिर्त है। पर भैंस
का घी वजिर्त नहीं। श्राद्ध में दूध, दही और
घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने गए हैं।

7. श्राद्ध में कुश तथा तिल का क्या महत्व है?
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार
माना गया है। माना यह भी जाता है कि कुश
और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़
पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा-विष्णु-महेश
कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश
का अग्रभाग देवताओं का, मध्य मनुष्यों का और
जड़ पितरों का माना जाता है। तिल
पितरों को प्रिय और दुष्टात्माओं को दूर भगाने
वाले माने जाते हैं। माना गया है
कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाए,
तो दुष्टात्माएँ हवि उठा ले जाती हैं।

8. दरिद्र व्यक्ति श्राद्ध कम खर्चे में कैसे करे?
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र लोग केवल
मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम
दक्षिणा, वह भी न हो तो सात या आठ तिल
अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को दे दें।
या किसी गाय को दिनभर घास खिला दें।
अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से
याचना करें कि मैंने हाथ वायु में फैला दिए हैं, मेरे
पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

9. पिण्ड क्या हैं? उनका अर्थ क्या है?
श्राद्ध के दौरान पके हुए चावल दूध और तिल
मिश्रित जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण
कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक
विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है, कि हर
पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में
पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र मौजूद होते
हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा और
परदादा तथा पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं,
आपस में मिलाकर फिर अलग बाँटते हैं। यह
प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन-जिन लोगों के
गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में
हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड
को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने
वाला सूँघता भी है। अपने
यहां सूँघना यानी आधा भोजन
करना माना गया है। इस तरह श्राद्ध करने
वाला पिण्डदान के पहले अपने
पितरों की उपस्थिति को खुद अपने भीतर
भी ग्रहण करता है।

10. इस पूरे अनुष्ठान का अर्थ क्या है?
अपने दिवंगत बुजुर्गो को हम दो तरह से याद करते
हैं : स्थूल शरीर के रूप में और भावनात्मक रूप से! स्थूल
शरीर तो मरने के बाद अग्नि या जलप्रवाह को भेंट
कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम
पितरों की स्मृति उनके ‘भावना शरीर’
की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों, और हमें
सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आशीर्वाद दें।

Sunday, September 27, 2015

स्यमन्तक मणि।



स्यमन्तक मणि।
भगवान कृष्ण और जामवंत में क्यों हुआ 28 दिनों तक युद्ध?
एक थे राजा सत्राजित जिन्होने सूर्य की तपस्या कर स्यमन्तक नाम की मणि पाई (वह मणि रोजाना 8 भरी सोना देती थी साथ ही जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे), एक दिन जब कृष्ण खेल रहे थे तो सत्राजित मणि सर पर लगा उनसे मिलने पहुंचे जिसे देख कृष्ण ने कहा की इस मणि के अधिकारी तो राजा उग्रसेन जी है। बात सुन सत्राजित बिना कुछ बोले ही वहाँ से उठ कर चले गए, मणि को अपने घर के मन्दिर में स्थापित कर दिया। एक दिन राजा का भाई स्यमन्तक को पहन कर घोड़े पर सवार हो शिकार पे निकला जन्हा एक सिंह ने उसे मार गिराया। मणि भी उसके पेट में चली गई जिसे ऋक्षराज जामवंत ने मारा और वह मणि पाली और अपनी गुफा में चला गया। जामवंत ने उस मणि को अपने बालक को दे दिया जो उसे खिलौना समझ उससे खेलने लगा।

भाई के गायब होने पर राजा ने बिना सोचे कृष्ण जी पर हत्या और चोरी के आरोप फैला दिए। आरोप झुटलाने के लिए श्री कृष्ण वन में गए जन्हा उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि नहीं दिखी। निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे, जिनके सहारे आगे बढ़ने पर उन्हें मरे हुए सिंह का शरीर मिला। वहाँ पर रीछ के पैरों के पद-चिन्ह भी मिले जो कि एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि तुम लोग यहीं रुको। मैं इस गुफा में प्रवेश कर मणि ले जाने वाले का पता लगाता हूँ। इतना कहकर वे सभी यादवों को गुफा के मुख पर छोड़ उस गुफा के भीतर चले गये।वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि वह मणि एक रीछ के बालक के पास है जो उसे हाथ में लिए खेल रहा था। श्री कृष्ण ने उस मणि को उठा लिया। यह देख कर जामवंत अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटा। जामवंत और श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध होने लगा। जब कृष्ण गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरांत वहाँ से द्वारिकापुरी वापस आ गये तथा समस्त वृतांत वासुदेव और देवकी से कहा। वासुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा।

श्री कृष्ण और जामवंत दोनों ही पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाईस दिन बीत गए। कृष्ण की मार से महाबली जामवंत की नस टूट गई। वह अति व्याकुल हो उठा और अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगा। जामवंत के द्वारा श्री राम के स्मरण करते ही भगवान श्री कृष्ण ने श्री रामचन्द्र के रूप में उसे दर्शन दिये। जामवंत उनके चरणों में गिर गया और अपने कर्मो की क्षमा मांगी. तब कृष्ण ने उनसे कहा की रामअवतार के समय रावण के वध हो जाने के पश्चात मुझसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की जो की मेने अगले अवतार में पूरी करने का वर दिया था. अपना कथन पूरा करने रघुवंशी अगला जन्म लेके आया है. जामवंत ने भगवान श्री कृष्ण से अपनी कन्या जामवंती का विवाह कर दिया।

कृष्ण द्वारका पहुँचे तो सत्राजित को बुलवा कर उसकी स्यमन्तक मणि उसे लौटा दी, अपने द्वारा लगाये गये कलंक के कारण शर्मिंदा राजा ने अपनी कन्या सत्य-भामा का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी। किन्तु कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके सत्राजित को वापस कर दिया।

Friday, September 25, 2015

वामनावतार।



वामनावतार।
वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। इसके साथ ही यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए — अलबत्ता बौने ब्राह्मण के रूप में। इनको दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वह आदित्यों में बारहवें थे। ऐसी मान्यता है कि वह इन्द्र के छोटे भाई थे। भागवत कथा के अनुसार विष्णु ने इन्द्र का देवलोक में अधिकार पुनः स्थापित करने के लिए यह अवतार लिया। देवलोक असुर राजा बली ने हड़प लिया था। बली विरोचन के पुत्र तथा प्रह्लाद के पौत्र थे और एक दयालु असुर राजा के रूप में जाने जाते थे। यह भी कहा जाता है कि अपनी तपस्या तथा ताक़त के माध्यम से बली ने त्रिलोक पर आधिपत्य हासिल कर लिया था। वामन, एक बौने ब्राह्मण के वेष में बली के पास गये और उनसे अपने रहने के लिए तीन कदम के बराबर भूमि देने का आग्रह किया। उनके हाथ में एक लकड़ी का छाता था। गुरु शुक्राचार्य के चेताने के बावजूद बली ने वामन को वचन दे डाला। राजा बलि से भिक्षा माँगते वामनदेव वामन ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि पहले ही कदम में पूरा भूलोक (पृथ्वी) नाप लिया। दूसरे कदम में देवलोक नाप लिया। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने अपने कमण्डल के जल से वामन के पाँव धोये। इसी जल से गंगा उत्पन्न हुयीं। तीसरे कदम के लिए कोई भूमि बची ही नहीं। वचन के पक्के बली ने तब वामन को तीसरा कदम रखने के लिए अपना सिर प्रस्तुत कर दिया। वामन बली की वचनबद्धता से अति प्रसन्न हुये। चूँकि बली के दादा प्रह्लाद विष्णु के परम् भक्त थे, वामन (विष्णु) ने बाली को पाताल लोक देने का निश्चय किया और अपना तीसरा कदम बाली के सिर में रखा जिसके फलस्वरूप बली पाताल लोक में पहुँच गये।

एक और कथा के अनुसार वामन ने बली के सिर पर अपना पैर रखकर उनको अमरत्व प्रदान कर दिया। विष्णु अपने विराट रूप में प्रकट हुये और राजा को महाबली की उपाधि प्रदान की क्योंकि बली ने अपनी धर्मपरायणता तथा वचनबद्धता के कारण अपने आप को महात्मा साबित कर दिया था। विष्णु ने महाबली को आध्यात्मिक आकाश जाने की अनुमति दे दी जहाँ उनका अपने सद्गुणी दादा प्रहलाद तथा अन्य दैवीय आत्माओं से मिलना हुआ।

Wednesday, September 23, 2015

तेजाजी महाराज।


तेजाजी महाराज।
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तेजा दशमी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन तेजाजी महाराज के मंदिरों पर मेला लगता है, जहां सर्पदंश से पीड़ित सहित अन्य जहरीले कीड़ों की ताँती (धागा) छोड़ा जाता है।

कथा
तेजाजी राजा बाक्साजी के पुत्र थे। बचपन में ही उनके साहसिक कारनामों से लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। एक बार अपने हाली (साथी) के साथ तेजा अपनी बहन पेमल को लेने उसकी ससुराल गए। बहन पेमल की ससुराल जाने पर वीर तेजा को पता चलता है कि मेणा नामक डाकू अपने साथियों के साथ पेमल की ससुराल की सारी गायों को लूट ले गया। वीर तेजा अपने साथी के साथ जंगल में मेणा डाकू से गायों को छुड़ाने के लिए गए। रास्ते में एक बांबी के पास भाषक नामक सांप घोड़े के सामने आ जाता है एवं तेजा को डसना चाहता था।

तब तेजा उसे वचन देते हैं कि अपनी बहन की गाएं छुड़ाने के बाद मैं वापस यहीं आऊंगा, तब मुझे डंस लेना। अपने वचन का पालन करने के लिए डाकू से अपनी बहन की गाएं छुड़ाने के बाद लहुलुहान अवस्था में तेजा नाग के पास आते हैं। तेजा को घायल अवस्था में देखकर नाग कहता है कि तुम्हारा तो पूरा शरीर कटा-पिटा है, मैं दंश कहां मारूं। तब वीर तेजा उसे अपनी जीभ पर काटने के लिए कहते हैं।

वीर तेजा की वचनबद्धता को देखकर नाग उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहता है कि आज के दिन (भाद्रपद शुक्ल दशमी) से पृथ्वी पर कोई भी प्राणी, जो सर्पदंश से पीड़ित होगा, उसे तुम्हारे नाम की ताँती बांधने पर जहर का कोई असर नहीं होगा। यही कारण है कि भाद्रपद शुक्ल दशमी को तेजाजी के मंदिरों में श्रृद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति वहां जाकर तांती खोलते हैं।

Tuesday, September 22, 2015

कच देवयानी।

कच देवयानी।
देव और दानवों में सदा युद्ध छिड़ा रहता था। दैत्य देवों से सहजोर पड़ते थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी, एक और भी कारण था। दैत्यों के पूज्य गुरुशुक्राचार्य मुर्दे को जीवित कर देने वाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे। यद्यपि देवता अमर थे और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख घबरा गये थे।

शुक्राचार्य की सेवा- देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा। श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने रूपवान, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा। कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये। आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी और उसे हृदय से प्यार करने लगी। जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये। उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया। पर आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया। और एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला।

कच और संजीवनी विद्या- जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया। असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह प्रति बार बचता रहा। अन्त में कच को मार कर उसको भोजन रूप में शुक्राचार्य को खिला दिया। अब कच को जीवित करने का एक ही उपाय था कि शुक्राचार्य की मृत्यु। शुक्राचार्य समझ गये कि कच का प्रयोजन संजीवनी विद्या सीखना ही है। शुक्राचार्य ने मन मार कर कच को जीवित किया और विद्या सिखाई फिर उनका पेट फाड़ कर कच निकला और कच ने शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य ने कच को श्राप दिया कि इस विद्या का प्रयोग वह नहीं कर पायेगा। कच ने कहा कि वह दूसरों को सिखा देगा।

विद्या दान- अध्ययन समाप्त हो चुका था। गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर विदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया। देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, और उस समय लाज के परदे में ढका हुआ, कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया। परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया। इससे देवयानी को क्रोध हुआ। कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी, पर कच अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था, पुनश्चः देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना। देवयानी ने कच के दिल की सच्चाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया, उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये। कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे। अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया।

Saturday, September 19, 2015

भगवान भोलेनाथ।



भगवान भोलेनाथ।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचरा
श्चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ।।

हे वरद शंकर जी। आप श्मशानवासी है आप वहाँ क्रीड़ा करते हैं, भूत-प्रेत-पिशाच आपके मित्र है, आपके शरीर पर चिता के भस्म का लेपन शोभा पा रहा है और मनुष्यों के खोपडीयों की माला आपके गले में शोभित है। इस तरह का आपका रूप देखा जाय तो आप में कुछ मंगल या शुभ नहीं दिखाई पडता (अर्थात देखने में सब अशुभ ही दीखता है), किन्तु जो मनुष्य भक्ति पूर्वक आपका स्मरण करते है, उन सभी भक्तों का आप सदैव शुभ और मंगल करते है। भगवान भोलेनाथ की अखंड कृपा आप सब पर बनी रहे।

Thursday, September 17, 2015

गणेश चतुर्थी।



गणेश चतुर्थी।
शिवपुराणमें भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्तिगणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराणके मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकोंके स्वामी।

कथा- शिवपुराणके अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपालबना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर विष्णुजीउत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर!तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्यदेकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्षपर्यन्तश्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

Tuesday, September 15, 2015

राम-भक्त जटायु।


राम-भक्त जटायु।
जब राम-भक्त जटायु की अंतिम साँसे चल रही थी तब लक्ष्मण ने उसे कहा कि हे जटायु तुम्हे मालूम था कि तुम रावण से युद्ध कदापि नही जीत सकते तो तुमने उसे ललकारा क्यो?

तब जटायु ने बहुत अच्छा जवाब दिया था। जटायु ने कहा कि मुझे मालूम था कि मैं रावण से युद्ध मे नही जीत सकता पर अगर मैंने उस वक्त रावण से युद्ध नही किया होता तो भारतवर्ष की आने वाली पीढ़िया मुझे कायर कहती।

अरे एक नारी का अपहरण मेरी आँखों के सामने हो रहा है और मैं कायरो की भांति बिल मे पडा रहूँ इससे तो मृत्यु ही अच्छी है मैं अपने सर पे कायरता का कलंक लेके जीना नहीं चाहता था इसलिए मैंने रावण से युद्ध किया।

ये एक पक्षी के विचार है अगर भारतवर्ष के हर लोग की ऐसी सोच होती तो आज भारत विश्वगुरु होता।

Sunday, September 13, 2015

उपासना का फल।


उपासना का फल।
न घ्रं स्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानुः।
आपश्चिदस्मै घृतमित् क्षरन्ति यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम्।।
अथर्व0 ७\१८/२

शब्दार्थ - भगवद्भक्त को, उपासक को ग्रीष्मकाल का प्रचंड सूर्य नहीं तपाता हिम, पाला, सर्दी उसे पीड़ित नहीं करती। यह पृथ्वी जीवन देनेवाली बनकर उसके ऊपर सुखों की वृष्टि करती है जलधाराएं भी इसके लिए घृत की धाराएं बनकर सुख की वृष्टि करती हैं। जहाँ प्रभु का प्रेमरस होता हैं वहाँ सदा ही कल्याण होता हैं।

भावार्थ – वेद मे ईश्वर को 'वृष' कहा गया है। वह मेघ बनकर सुखों की वृष्टि करता है। जब भक्त पर प्रभु-कृपाओं की वृष्टि होने लगती है- ग्रर्मी और सर्दी उसे नहीं सताती। पृथ्वी उसके लिए सुखों की वृष्टि करने लग जाती है। उसे संसार में किसी वस्तुओं का अभाव नहीं रहता। उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती है। जलधाराएं भी उसके उपर सुखों की वृष्टि करती है। जहां प्रभू का मधुर-प्रेमरस बहता है, वहां तो सदा कल्याण-ही-कल्याण है, अपकल्याण तो वहां हो ही नहीं सकता। संसार के लोगों! यदि संसार के ताप से, संसार के थपेड़ों से बचना चाहते हो, यदि सुख और आनन्द की अभिलाषा है, यदि कल्याण की कामना है तो अपने-आपको प्रभू के प्रेमरस में लीन कर लो, आप भवसागर से पार उतर जाओगे।

Friday, September 11, 2015

जोबनेर ज्‍वाला माता।

जोबनेर ज्‍वाला माता।
ऐतिहासिक परिचयः-
सुन्‍दर शैल शिखर पर राजे, मन्दिर ज्‍वाला माता का।
अनुदिन ही यात्रीगण आते, करने दर्शन माता का।।
इसी भवानी के पद तल में, नगर बसा एक अनुपम सा।
जोबनेर विख्‍यात नाम से, पद्रेश में सुन्‍दरतम् सा।।

उतुंग शिखरों से युक्‍त हरे-भरे त्रिकोणाकार पर्वत की गोद में स्थित ‘जोबनेर’ चन्‍द्रवंश मुकुटमणि महाराज ययाति द्वारा अपने पुत्र पुरू के यौवनदान की स्‍मृति में ‘यौवनेर’ के नाम से बसाया था, जो अपभ्रंश होकर जोबनेर के नाम से पुकारे जाने लगा। महाराज ने अपनी दोनों रानियों- देवयानी व शर्मिष्‍ठा की स्‍मृति में दो तीर्थ सरोवरों का निर्माण कराया था जो सांभर के सन्निकट अब तक विद्यमान हैं। जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा जोबनेर ज्‍वाला माता के मन्दिर के कारण प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक प्रसिद्ध रहा है। पहाड़ की हरिताभा के बीच चांदी सा चमकता हुआ यह मन्दिर दूर से ही दर्शक का मन मोह लेती है।

दक्ष-यज्ञ विध्‍वंस होने के बाद सती की मृत देह के गलित अंग-प्रत्‍यंग जिस-जिस स्‍थान पर गिरे, वे स्‍थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। सती का जानु (घुटना) यहां गिरने से यह स्‍थल कामनाप्रद सिद्धपीठ के रूप में पूज्‍य है। ज्‍वाला माता के विग्रह की यह विशिष्‍टता है कि यह किसी के द्वारा प्रतिष्‍ठापित नहीं बल्कि प्रस्‍तर काल में गुफा से स्‍वत: उद्भूत देवी प्रतिमा का जानु भाग मात्र है। देवी को अपना अंश यहां प्रकट करना अभिष्‍ट था।

देवी प्रतिमा के जानु मात्र ही प्रकट होने के सम्‍बन्‍ध में एक किंवदन्‍ती इस प्रकार से प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ग्‍वाला इस पर्वत पर भेड़-बकरियां चरा रहा था। ज्‍वाला माता ने वृद्धा का रूप धारण कर उससे कहा कि- ‘‘इस पर्वत में से अभी देवी प्रकट होगी। भीष्‍ण गर्जना के साथ पर्वत तक हिलने लगेगा। तुम भयभीत हो जाओगे अत: तुरन्‍त यहां से भाग जाओ।’’ किन्‍तु ग्‍वाला माता के शान्‍त रूप से डरा नहीं और वहीं डटा रहा। इतने में श्‍वेतावस्‍त्रा शान्‍त मातृ रूप अदृश्‍य हो गया और गम्‍भीर गर्जना के से दसों दिशाओं को निनादित करता हुआ, पर्वत वक्ष वीदीर्ण कर सिंहवाहिनी देवी को तेजोमय स्‍वरूप प्रकट हुआ। प्रतिमा के वाम चरण जानु (घुटना) भाग ही बाहर आ पाया था कि उक्‍त ग्‍वाला के प्राण पखेरू उड़ने को उद्यत हो गए। प्रकट होने की शुभ बेला में मृत्‍यु की अशुभ घड़ी के निवारणार्थ देवी ने अपना प्रकट होना रोक लिया एवं प्रकट अंश को स्थिर कर ज्‍योतिर्मय स्‍वरूप विलीन हो गया। पर्वत के गर्भद्वार से सटे जानु भाग को मुखाकृति से सुसज्जित कर भक्‍तगण कृतार्थ हो गए।

Wednesday, September 09, 2015

घटोत्कच।

घटोत्कच।
घटोत्कच भीम और हिडिंबा पुत्र था और बहुत बलशाली था। वह महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक था। लाक्षागृह के दहन के पश्चात सुरंग के रास्ते लाक्षागृह से निकल कर पाण्डव अपनी माता के साथ वन के अन्दर चले गये। कई कोस चलने के कारण भीमसेन को छोड़ कर शेष लोग थकान से बेहाल हो गये और एक वट वृक्ष के नीचे लेट गये। माता कुन्ती प्यास से व्याकुल थीं इसलिये भीमसेन किसी जलाशय या सरोवर की खोज में चले गये। एक जलाशय दृष्टिगत होने पर उन्होंने पहले स्वयं जल पिया और माता तथा भाइयों को जल पिलाने के लिये लौट कर उनके पास आये। वे सभी थकान के कारण गहरी निद्रा में निमग्न हो चुके थे अतः भीम वहाँ पर पहरा देने लगे।

उस वन में हिडिंब नाम के एक भयानक असुर का निवास था। मानवों का गंध मिलने पर उसने पाण्डवों को पकड़ लाने के लिये अपनी बहन हिडिंबा को भेजा ताकि वह उन्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा पूर्ति कर सके। वहाँ पर पहुँचने पर हिडिंबा ने भीमसेन को पहरा देते हुये देखा और उनके सुन्दर मुखारविन्द तथा बलिष्ठ शरीर को देख कर उन पर आसक्त हो गई। उसने अपनी राक्षसी माया से एक अपूर्व लावण्मयी सुन्दरी का रूप बना लिया और भीमसेन के पास जा पहुँची। भीमसेन ने उससे पूछा, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो और रात्रि में इस भयानक वन में अकेली क्यों घूम रही हो?" भीम के प्रश्न के उत्तर में हिडिम्बा ने कहा, "हे नरश्रेष्ठ! मैं हिडिम्बा नाम की राक्षसी हूँ। मेरे भाई ने मुझे आप लोगों को पकड़ कर लाने के लिये भेजा है किन्तु मेरा हृदय आप पर आसक्त हो गया है तथा मैं आपको अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ। मेरा भाई हिडिम्ब बहुत दुष्ट और क्रूर है किन्तु मैं इतना सामर्थ्य रखती हूँ कि आपको उसके चंगुल से बचा कर सुरक्षित स्थान तक पहुँचा सकूँ।"

इधर अपनी बहन को लौट कर आने में विलम्ब होता देख कर हिडिम्ब उस स्थान में जा पहुँचा जहाँ पर हिडिम्बा भीमसेन से वार्तालाप कर रही थी। हिडिम्बा को भीमसेन के साथ प्रेमालाप करते देखकर वह क्रोधित हो उठा और हिडिम्बा को दण्ड देने के लिये उसकी ओर झपटा। यह देख कर भीम ने उसे रोकते हुये कहा, "रे दुष्ट राक्षस! तुझे स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती? यदि तू इतना ही वीर और पराक्रमी है तो मुझसे युद्ध कर।" इतना कह कर भीमसेन ताल ठोंक कर उसके साथ मल्ल युद्ध करने लगे। कुंती तथा अन्य पाण्डव की भी नींद खुल गई। वहाँ पर भीम को एक राक्षस के साथ युद्ध करते तथा एक रूपवती कन्या को खड़ी देख कर कुन्ती ने पूछा, "पुत्री! तुम कौन हो?" हिडिम्बा ने सारी बातें उन्हें बता दी। अर्जुन ने हिडिम्ब को मारने के लिये अपना धनुष उठा लिया किन्तु भीम ने उन्हें बाण छोड़ने से मना करते हुये कहा, "अनुज! तुम बाण मत छोडो़, यह मेरा शिकार है और मेरे ही हाथों मरेगा।" इतना कह कर भीम ने हिडिम्ब को दोनों हाथों से पकड़ कर उठा लिया और उसे हवा में अनेक बार घुमा कर इतनी तीव्रता के साथ भूमि पर पटका कि उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

हिडिम्ब के मरने पर वे लोग वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे, इस पर हिडिम्बा ने कुन्ती के चरणों में गिर कर प्रार्थना करने लगी, "हे माता! मैंने आपके पुत्र भीम को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया है। आप लोग मुझे कृपा करके स्वीकार कर लीजिये। यदि आप लोगों ने मझे स्वीकार नहीं किया तो मैं इसी क्षण अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।" हिडिम्बा के हृदय में भीम के प्रति प्रबल प्रेम की भावना देख कर युधिष्ठिर बोले, "हिडिम्बे! मैं तुम्हें अपने भाई को सौंपता हूँ किन्तु यह केवल दिन में तुम्हारे साथ रहा करेगा और रात्रि को हम लोगों के साथ रहा करेगा।" हिडिंबा इसके लिये तैयार हो गई और भीमसेन के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। एक वर्ष व्यतीत होने पर हिडिम्बा का पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह अत्यन्त मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया।

हिडिम्बा ने अपने पुत्र को पाण्डवों के पास ले जा कर कहा, "यह आपके भाई की सन्तान है अतः यह आप लोगों की सेवा में रहेगा।" इतना कह कर हिडिम्बा वहाँ से चली गई। घटोत्कच श्रद्धा से पाण्डवों तथा माता कुन्ती के चरणों में प्रणाम कर के बोला, "अब मुझे मेरे योग्य सेवा बतायें।? उसकी बात सुन कर कुन्ती बोली, "तू मेरे वंश का सबसे बड़ा पौत्र है। समय आने पर तुम्हारी सेवा अवश्य ली जायेगी।" इस पर घटोत्कच ने कहा, "आप लोग जब भी मुझे स्मरण करेंगे, मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर घटोत्कच वर्तमान उत्तराखंड की ओर चला गया।

Sunday, September 06, 2015

तारक मंत्र।


तारक मंत्र।
'श्री राम जय राम जय जय राम' - यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है। साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह अनुभव का विषय है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है।

हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य आज यही है कि हम राम नाम का सहारा नहीं ले रहे हैं। हमने जितना भी अधिक राम नाम को खोया है, हमारे जीवन में उतनी ही विषमता बढ़ी है, उतना ही अधिक संत्रास हमें मिला है। एक सार्थक नाम के रुप में हमारे ऋषि-मुनियों ने राम नाम को पहचाना है। उन्होंने इस पूज्य नाम की परख की और नामों के आगे लगाने का चलन प्रारंभ किया।

प्रत्येक हिन्दू परिवार में देखा जा सकता है कि बच्चे के जन्म में राम के नाम का सोहर होता है। वैवाहिक आदि सुअवसरों पर राम के गीत गाए जाते हैं। राम नाम को जीवन का महामंत्र माना गया है।

राम सर्वमय व सर्वमुक्त हैं। राम सबकी चेतना का सजीव नाम हैं।
अस समर्थ रघुनायकहिं, भजत जीव ते धन्य॥

प्रत्येक राम भक्त के लिए राम उसके हृदय में वास कर सुख सौभाग्य और सांत्वना देने वाले हैं।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिख दिया है कि प्रभु के जितने भी नाम प्रचलित हैं, उन सब में सर्वाधिक श्री फल देने वाला नाम राम का ही है।

यह नाम सबसे सरल, सुरक्षित तथा निश्चित रुप से लक्ष्य की प्राप्ति करवाने वाला है। मंत्र जप के लिए आयु, स्थान, परिस्थिति, काल, जात-पात आदि किसी भी बाहरी आडम्बर का बंधन नहीं है। किसी क्षण, किसी भी स्थान पर इसे जप सकते हैं।

जब मन सहज रूप में लगे, तब ही मंत्र जप कर लें। तारक मंत्र 'श्री' से प्रारंभ होता है। 'श्री' को सीता अथवा शक्ति का प्रतीक माना गया है। राम शब्द 'रा' अर्थात् र-कार और 'म' मकार से मिल कर बना है। 'रा' अग्नि स्वरुप है। यह हमारे दुष्कर्मों का दाह करता है। 'म' जल तत्व का द्योतक है। जल आत्मा की जीवात्मा पर विजय का कारक है।

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिख दिया है कि प्रभु के जितने भी नाम प्रचलित हैं, उन सब में सर्वाधिक श्री फल देने वाला नाम राम का ही है।

Saturday, September 05, 2015

श्री कृष्णजन्माष्टमी।



श्री कृष्णजन्माष्टमी।
श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें।

मोहरात्रि।
श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्तिहटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।

Friday, September 04, 2015

जन्माष्टमी व्रत कथा।


जन्माष्टमी व्रत कथा।
स्कन्दपुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्यपुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।

विधि।
इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है? नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें। हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें। यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात 'मत्स्य कूर्म' इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें।

पूर्ण विधि।
उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें-
ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥
अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए। फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें- 'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।'
अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रतजगा करें।

उद्देश्य।
जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।

Thursday, September 03, 2015

भगवान बलरामजी।


भगवान बलरामजी।
भगवान श्री कृष्ण के भाई बलराम जी के बारे में कहा जाता है कि यह शेषनाग के अवतार थे। शेष के अवतार होने के कारण यह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाते थे। शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध है। इसी के कारण बलराम जी से ऐसी गलती हुई कि पूरा संत समाज इनके विरुद्घ हो गया। संतों ने कहा आपने महापाप किया है और इसका प्रायश्चित करना होगा।

वेदव्यास जी के प्रिय शिष्य सूत जी थे। सूत जी पुराणों के ज्ञाता थे और ऋषियों के आश्रम में जाकर पुराण कथा सुनाया करते थे। संतों के बीच इनका बड़ा आदर था। एक बार सूत जी पुराण कथा सुना रहे थे। इसी बीच दाऊ बलराम कहीं से आश्रम में पहुंच गए। बलराम जी को देखते ही सभी संत खड़े होकर नमस्कार करने लगे। लेकिन पुराण कथा सुना रहे व्यास जी अपने आसान पर बैठे रहे। क्योंकि पुराण कथा सुनाते समय बीच में उठना नियम विरुद्घ था। बलराम जी ने समझा कि सूत जी उनका अनादर कर रहे हैं।

क्रोध में आकर बलराम जी ने अपनी तलवार से सूत जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। संत समाज बलराम जी के इस व्यवहार से हैरान रह गया। संतों ने बलराम जी से कहा कि आपने एक निर्दोष ब्राह्मण की हत्या करके महापाप किया है। आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा।