Monday, December 28, 2015

श्‍याम भक्ति।



श्‍याम भक्ति।
'थाली भर कर ल्‍याई रे खीचड़ो ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्‍हारा श्‍याम घणी जिमावै छोरी जाट की।।'
उक्‍त भजन आपने कई बार सुना ही होगा। भक्‍त शिरोमणि कर्मा बाई का बखान करते हुए राजस्‍थान के गॉवों व नगरों की चौपलों पर यह भजन गाया जाता है। कर्मा बाई मारवाड की मीरा थी। अपनी श्रध्‍दा और भक्ति के बल पर श्रीकृष्‍ण के उन्‍होने साक्षात दर्शन किये । उनका जीवन अत्‍यंत प्ररेणादायक है तथा बताता है कि यदि मन में श्रध्‍दा हो, दृढ़ संकल्‍प हो, मजबूत इच्‍छा शक्ति हो तो असम्‍भव को भी सम्‍भव किया जा सकता है । नागौर जिले की मकराना तहसील में एक गाँव है कालवा। यह बोरावाड़ कस्‍बे से पांच कि॰मी॰ दूर नागौर रोड़ पर है। इसी गांव में जीवनराम डूड़ी के घर चार सौ साल पहले विक्रमी 1671 की श्रावण कृष्‍ण व्‍दादशी (युगाब्‍द 4716 सन् 1614) को एक कन्‍यारत्‍न का जन्‍म हुआ। काफी जप-तप करने के बाद हुई इस कन्‍या का नाम कर्मा रखा गया। करमा के जन्‍म पर पूरे गांव में मंगल गीत गाये गये। बाल्‍यकाल से ही कर्मा के चेहरे पर एक अनूठी आभा दिखाई पड़ती थी। अकेली होने से वह घर की लाड़ली थी, पर खेल-कूद के स्‍थान पर घर के एकान्‍त में वह पालथी मार कर बैठ जाती और चारभुजा नाथ को निहारती रहती। जीवनराम का घर कालवा के चारभुजा नाथ मंदिर में ही था और घर के आंगन से मंदिर में स्थित भगवान की मूर्ति साफ दिखाई देती थी। भगवान की सेवा-पूजा का काम जीवनराम डूडी ही करते थे।

कर्मा अब तेरह साल की हो गई। जीवनराम को कार्तिक पूर्णिमा पर स्‍नान के लिये तीर्थराज पुष्‍कर जाना था। कर्मा की मां को भी इस बार पुष्‍कार स्‍नान करना था। कर्मा बड़ी हो गई थी, इसलिये मंदिर में भगवान की ठीक से सेवा-पूजा का काम उन्‍होंने उसे ही बताया। जाते समय उन्‍होंने कहा -बेटी स्‍नान ध्‍यान कर भगवान को भोग लगा कर ही कुछ खाना। चार भुजा नाथ की सेवा में कमी मत रखना। बाबा और मां के जाने के बाद दूसरे दिन सुबह करमा ने स्‍नान कर बाजरे का खीचड़ा बनाया और उसमें खूब घी डाल कर थाली को भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया। हाथ जोड़ कर उसने चारभुजानाथ से कहा-प्रभु भूख लगे तब खा लेना, तब तक मैं और काम निपटा लेती हॅू। कर्मा घर का काम करने लगी। बीच-बीच में देख लेती थी कि प्रभु ने खीचड़ा खाया कि नहीं। थाली वैसी की वैसी देख कर उसे चिंता होने लगी कि आज भगवान भोग क्‍यों नही लगा रहे? कुछ सोच कर उसने खीचड़े में थोड़ा गुड़ व घी और मिलाया तथा वहीं बैठ गई। भगवान से वह कहने लगी- प्रभु तुम भोग लगा लो, बाबा पुष्‍कर गये हैं, आज वे नहीं आयेंगे। मुझको भोग लगाने को कह गये हैं, सो खीचड़ो जीम लो, तुम्‍हारे खाने के बाद मैं भी खाऊंगी। परन्‍तु, थाली फिर भी भरी की भरी रही। अब कर्मा शिकायत करने लगी -प्रभु बाबा भोग लगाते हैं तो कुछ समय में ही जीम लेते हो और आज इतनी देर कर दी। खुद भी भूखे बैठे हो और मुझको भी भूखा मार रहे हो। कर्मा ने थोड़ा इंतजार और किया पर खीचड़ा वैसा का वैसा ही रहा। अब तो कर्मा को क्रोध आ गया और वह बोली - प्रभु मैंने कहा ना, बाबा आज नही आयेंगे। तुमको मेरे हाथ का ही खीचड़ा खाना है। जीम लो, वरना मैं भी भूखी रहॅूगी, चाहे प्राण ही क्‍यों न निकल जायें। दोपहर ढल गयी, तीसरा पहर भी ढलने लगा तो कर्मा गुस्‍से में उठ खड़ी हुई और गर्भ-गृह के खम्‍भे पर अपना सर मारने लगी। उसी समय एक आवाज आई - ठहर जा कर्मा, तुने परदा तो किया ही नहीं, खुले में मैं भोग कैसे लगाऊँ? य‍‍ह सुनकर कर्मा ने अपनी ओढ़नी की ओट कर दी और बोली-प्रभु इतनी सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भुखे रहे और मुझको भी भूखा मार दिया। कर्मा ने ऑखें खोली तो पाया कि थाली पूरी खाली हो गई। उसने संतोष की सांस ली और खुद ने भी खीचड़ा खाया। अब तो हर रोज यही क्रम चलने लगा।

कुछ दिनों के बाद बाबा पुष्‍कर से घर लौट आये। घर आकर उन्‍होंने देखा की घी और गुड़ खत्‍म होने वाला ही था। उन्‍होंने कर्मा से पूछा कि पूरा मटका भरा घी और सारा गुड़ कहॉ गया? कर्मा ने भोलेपन से जवाब दिया- बाबा तेरो चारभुजा नाथ रो थाली भर के खीचड़ा खा जाते हैं। पहले दिन तो मैं बहुत परेशान हुई। प्रभु का परदा नहीं किया तो उन्‍होंने भोग ही नहीं लगाया। तुमने मुझको बताया क्‍यों नहीं कि परदा करने पर ही ठाकुर जी जीमते हैं। जब मैंने परदा किया तो प्रभु पूरी थाली साफ कर गये। जीवनराम चिन्‍ता में पड़ गये कि बेटी कहीं पगला तो नहीं गई है। फिर सोचा कि शायद सारा घी-गुड़ कर्मा खुद ही खा गई। पर कर्मा अड़ी रही कि घी-गुड़ ठाकुर जी ने ही खाया है। इस पर बाबा ने कहा-ठीक हैं बेटी कल भी तू ही भोग लगाना, प्रभु जीमेंगे तो मैं भी दर्शन कर लूंगा। कर्मा समझ गई कि बाबा उस पर शक कर रहे हैं। दूसरे दिन उसने फिर खीचड़ा बनाया और थाली भर कर ठाकुर जी के सामने रख दिया। चारभुजा नाथ के सामने परदा कर वह क‍हने लगी- प्रभु, बाबा मुझको झूठी समझ रहे हैं। रोज की तरह भोग लगाओ। बाबा का शक दूर करो, वरना मैं यहीं प्राण त्‍याग दॅूगी। कहते है कि योगेश्‍वर श्रीकृष्‍ण ने जीवनराम को दिव्‍य दृष्टि दी और दोनों पिता-पुञी के सामने खीचड़े का भोग लगाया। प्रभु के दर्शन कर जीवनराम का जीवन धन्‍य हो गया। भक्ति विभोर हो जीवनराम नाचने लगे और चारभुजानाथ तथा कर्मा के जयकारे लगाने लगे। जयकारे सुन कर गांव के लोग भी मंदिर में आ गये और कर्मा बाई का जय-कारा करने लगे। उसी दिन से भक्‍त शिरोमणि के रूप में उनकी प्रसिध्दि हो गई। अपने अंतिम समय में कर्मा जगन्‍नाथपुरी में रहीं। वहॉ भी वे प्रतिदिन श्रीकृष्‍ण के प्रतिरूप भगवान जगन्‍नाथ को खीचड़े का भोग लगाती थीं। आज भी पुरी के जगत्‍प्रसिध्‍द मंदिर में प्रतिदिन ठाकुर जी को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है।

Friday, December 25, 2015

तुलसी पूजा।

तुलसी पूजा।
तुलसीकाननं चौव गृ‍हे यस्वावतिष्ठीते।
तदगृहं तीर्थभूतं हि नायांन्ति यमकिंकरा:।।
तुलसीमंजरीभिर्य: कुयाद्धरिहर्रानम।
स न गर्भगृहं याति मुक्तिभागी भवेन्नरर:।।
जिस वयक्ति के घर में तुलसी का पौधा होता है वह घर तीर्थ के समान है। वहां मृत्यु के देवता यमराज नहीं आते है। जो मनुष्य तुलसीमंजरी से भगवान श्रीहरी की पूजा करता है उसे फिर गर्भ में नहीं आना पडता अर्थात उसे पुन: धरती पर जन्म नहीं लेना पडता है। सुख-शांति, समृद्धि व आरोग्य प्रदायिनी तुलसी का स्थान भारतीय संस्कृति में पवित्र और महत्त्वपूर्ण है। यह माँ के समान सभी प्रकार से हमारा रक्षण व पोषण करती है। तुलसी पूजन, सेवन व रोपण से आरोग्य-लाभ, आर्थिक लाभ के साथ ही आध्यात्मिक लाभ भी होते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार ‘जिस घर में प्रतिदिन तुलसी-पूजा होती है उसमें यमदूत प्रवेश नहीं करते।
घर मे तुलसी की उपस्थितिमात्र से हलके स्पंदनों, नकारात्मक शक्तियों एवं दुष्ट विचारों से रक्षा होती है।
गरुड पुराण के अनुसार ‘तुलसी का वृक्ष लगाने, पालन करने, सींचने तथा ध्यान, स्पर्श और गुणगान करने से पूर्व जन्मार्जित पाप जलकर विनष्ट हो जाते हैं। तुलसी पूजन से बुद्धिबल, मनोबल, चारित्र्यबल व आरोग्यबल बढेगा । मानसिक अवसाद, आत्महत्या आदि से लोगों की रक्षा होगी और लोगों को भारतीय संस्कृति के इस सूक्ष्म ऋषि-विज्ञान का लाभ मिलेगा । तुलसी की उपस्थिति मात्र से हलके स्पंदनों, नकारात्मक शक्तियों एवं दुष्ट विचारों से रक्षा होती है । ईशान कोण में तुलसी लगाने से तथा पूजा के स्थान पर गंगाजल रखने से बरकत होती है । तुलसी पूजन दिवस के दिन शुद्ध भाव व भक्ति से तुलसी के पौधे की १०८ परिक्रमा करने से दरिद्रता दूर होती है।

Tuesday, December 22, 2015

हनुमान के द्वारा सूर्य को फल समझना।

हनुमान के द्वारा सूर्य को फल समझना।
एक दिन इनकी माता फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की "देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।"

राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दिया। इससे संसार की कोई भी प्राणी साँस न ले सकी और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मूर्छत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्माजी ने उन्हें जीवित किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की। फिर ब्रह्माजी ने कहा कि कोई भी शस्त्र इसके अंग को हानि नहीं कर सकता। इन्द्र ने कहा कि इसका शरीर वज्र से भी कठोर होगा। सूर्यदेव ने कहा कि वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र मर्मज्ञ होने का भी आशीर्वाद दिया। वरुण ने कहा मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा। यमदेव ने अवध्य और नीरोग रहने का आशीर्वाद दिया। यक्षराज कुबेर, विश्वकर्मा आदि देवों ने भी अमोघ वरदान दिये।

Wednesday, December 16, 2015

विवाह पंचमी।



विवाह पंचमी।
धर्म ग्रंथों के अनुसार, अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को भगवान श्रीराम व सीता का विवाह हुआ था। इसीलिए इस दिन विवाह पंचमी का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। जब श्रीराम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुंचे तो राजा जनक सभी को आदरपूर्वक अपने साथ महल लेकर आए। अगले दिन सुबह दोनों भाई फूल लेने बगीचे गए। उसी समय राजा जनक की पुत्री सीता भी माता पार्वती की पूजा करने के लिए वहां आईं। सीता श्रीराम को देखकर मोहित हो गईं और एकटक निहारती रहीं। श्रीराम भी सीता को देखकर बहुत आनंदित हुए-
देखि सीय सोभा सुखु पावा। ह्रदयं सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि जब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहं प्रगटि देखाई।।
अर्थात- सीताजी को शोभा देखकर श्रीराम ने बड़ा सुख पाया। ह्रदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किंतु मुख से वचन नहीं निकलते। मानों ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो। माता पार्वती का पूजन करते समय सीता ने श्रीराम को पति रूप में पाने की कामना की। अगले दिन धनुष यज्ञ (जो भगवान शंकर के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, सीता का विवाह उसी के साथ होगा) का आयोजन किया गया। राजा जनक के बुलावे पर ऋषि विश्वामित्र व श्रीराम व लक्ष्मण भी उस धनुष यज्ञ को देखने के लिए गए।

Monday, December 14, 2015

श्री नारायण।


श्री नारायण।
परोपकरणं येषां जार्गत हृदये सताम्।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पद: स्यु: पदे पदे।।

अर्थ : जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार की भावना जागृत रहती है, उनकी तमाम विपत्तियां अपने आप दूर हो जाती हैं और उन्हें पग-पग पर सम्पत्ति एवं धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

भावार्थ : यहां आचार्य चाणक्य के कहने का अर्थ यह है कि परोपकार ही जीवन है। अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। यदि पेट पालना ही जीवन का उद्देश्य है तो मानवता क्या हुई? स्वार्थी मनुष्य का जीवन निरर्थक है।

Thursday, December 10, 2015

सीता हरण।

सीता हरण।
क्या रावण जगद्जननी मां जानकी का हरण कर सकता था?
अब बात करते हैं सिया-हरण की। सीता हरण तो बहुत दूर की बात है, उन जैसी पतिव्रता नारी को छूना तक असम्भव था। उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी उनको स्पर्श तक करता तो तत्काल भस्म हो जाता। रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी। इसके पीछे एक गूढ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट वर्णन है... पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकडी लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-
"तब तक करो अग्नि में वासा।
जब तक करुं निशाचर नाशा॥"
प्रभु जानते थे कि रावण अब आने वाला है, इसलिए उन्होंने कहा- हे सीते अब वक्त आ गया है, तुम एक वर्ष तक अग्नि में निवास करो, तब तक मैं इस राक्षसों का संहार करता हूँ.. यह रहस्य स्वयं लक्ष्मण भी नहीं जानते थे..
"लक्ष्मनहु ये मरम न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥"
इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार करके ही मेरे पास आयेंगी.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी माता समान भाभी पर संदेह कर हैं.. मैं ऐसा नहीं होने दुंगा.. तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं.. सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ... और छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो तत्काल भस्म हो जाता... इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा...
"लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी।
पावक प्रगट करो तुम वेगी॥"
हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता से अग्नि उत्पन्न करो... उसके बाद छायारुप मां जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई और वास्तविक सीता मां श्री राम के पास आ गई..॥

Sunday, December 06, 2015

भगवान विष्‍णु।

भगवान विष्‍णु।
हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो भगवान शिव और ब्रह्मा को माना जाता है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन सांप के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित है। वह अपने नीचे वाले बाएं हाथ में पद्म (कमल) , अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएं हाथ में शंख (पांच्यजन्य), और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।

स्वामी चिन्मयानन्द ने "विष्णु सह्स्रनाम:" के अपने अनुवाद में इसे और भली प्रकार समझाया है: धातु विस् का अर्थ अंदर आना है, संसार की सभी वस्तुएं और जीव इन्ही से व्याप्त हैं । उपनिषद भी इस बात का अपने मन्त्र में स्पष्ट रूप से आग्रह करते हैं: इस परिवर्तनशील संसार में जो कुछ भी है। अर्थात वह अंतरिक्ष , समय और जड़ से बंधे हुए नहीं है। चिन्मयानन्द आगे कहते हैं : जिससे सभी वस्तुएं व्याप्त हैं वही विष्णु है।

चतुर्भुज स्वरूप- भगवान विष्णु शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते हैं। शंख शब्द का प्रतीक है, शब्द का तात्पर्य ज्ञान से है जो सृष्टि का मूल तत्त्व है। चक्र का अभिप्राय माया चक्र से है जो जड़ चेतन सभी को मोहित कर रही है। गदा ईश्वर की अनंत शक्ति का प्रतीक है और पद्म से तात्पर्य नाभि कमल से है जो सृष्टि का कारण है। इन चार शक्तियों से संपन्न होने के कारण हरि को चतुर्भुज कहा है।

Thursday, December 03, 2015

श्रीकालभैरव।

श्रीकालभैरव।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है।

भैरव का जन्म: काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है।

भगवान काल भैरव से जुड़े कुछ तथ्य -
1. काल भैरव भगवान शिव का अत्यन्त ही उग्र तथा तेजस्वी स्वरूप है।
2. सभी प्रकार के पूजन , हवन , प्रयोग में रक्षार्थ इनका पुजन होता है।
3. ब्रह्मा का पांचवां शीश खंडन भैरव ने ही किया था।
4. इन्हे काशी का कोतवाल माना जाता है।

Wednesday, December 02, 2015

श्रीहरि अवतार।



श्रीहरि अवतार।
हिंदू पौराणिक कथाओं में उल्लेखित देव और देवियों से जुड़ी हर घटना किसी न किसी प्रयोजन से होती है। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख विष्णु पुराण में मिलता है। भगवान विष्णु के धाम, बैकुंठ लोक में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादिक ऋषि कहलाते हैं और देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं) विष्णु लोक में भगवान विष्णु के दर्शन के लिए आए। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को बैकुंठ द्वार पर ही रोक लिया और भीतर जाने से मना किया। तब उन ऋर्षियों में से एक ऋर्षि ने कहा, ‘हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। लेकिन जय विजय ने उनकी नहीं सुनीं।’ सनकादिक ऋषियों ने गुस्से में कहा, ‘भगवान विष्णु के साथ रहने के कारण तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुंठ में नहीं हो सकता। इसलिए हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पाप योनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।’ इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा मांगने लगे।

तभी भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिए आए। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, ‘यह जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इसलिए आप मुझे क्षमा करें।’ भगवान के इन मधुर वचनों से ऋषियों का क्रोध शांत हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोले, ‘आप धर्म की मर्यादा रखने के लिए ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।’ भगवान विष्णु ने कहा, ‘हे ऋषिगणों! आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये दैत्य माता अदिति के गर्भ में जाकर दैत्य वंश में जन्म लेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जाएंगे।

Sunday, November 29, 2015

श्री नारायण।

श्री नारायण।
हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु 'परमेश्वर' के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार हैं। संपूर्ण विश्व श्रीविष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं।

ईश्वर के ताप के बाद जब जल की उत्पत्ति हुई तो सर्वप्रथम भगवान विष्णु का सगुण रूप प्रकट हुआ। विष्णु की सहचारिणी लक्ष्मी है। विष्णु की नाभी से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। आदित्य वर्ग के देवताओं में विष्णु श्रेष्ठ हैं। और भी कई विष्णु हैं।

विष्णु का अर्थ- विष्णु के दो अर्थ है- पहला विश्व का अणु और दूसरा जो विश्व के कण-कण में व्याप्त है।

विष्णु की लीला: भगवान विष्णु के वैसे तो 24 अवतार है किंतु मुख्यत: 10 अवतार को मान्यता है। विष्णु ने मधु केटभ का वध किया था। सागर मंथन के दौरान उन्होंने ही मोहिनी का रूप धरा था। विष्णु द्वारा असुरेन्द्र जालन्धर की स्त्री वृन्दा का सतीत्व अपहरण किया गया था।

विष्णु का स्वरूप: क्षीर सागर में शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए होते हैं। उनके शंख को 'पाञ्चजन्य' कहा जाता है। चक्र को 'सुदर्शन', गदा को 'कौमोदकी' और मणि को 'कौस्तुभ' कहते हैं। किरीट, कुण्डलों से विभूषित, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, कमल नेत्र वाले भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।

विष्णु मंत्र: पहला मंत्र- ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। दूसरा मंत्र- ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

Friday, November 27, 2015

अशोक सुंदरी।



अशोक सुंदरी।
भगवान शिव की एक पुत्री भी थीं। जिनका नाम था 'अशोक सुंदरी' इनका विवाह राजा नहुष से हुआ था। अशोक सुंदरी देवकन्या हैं, इस बात का उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है, अशोक सुंदरी को भगवान शिव और पार्वती की पुत्री बताया गया है। दरअसल माता पार्वती के अकेलेपन को दूर करने हेतु कल्पवृक्ष नामक पेड़ के द्वारा ही अशोक सुंदरी की रचना हुई थी। पद्म पुराण के अनुसार एक बार माता पार्वती विश्व में सबसे सुंदर उद्यान में जाने के लिए भगवान शिव से कहा। तब भगवान शिव पार्वती को नंदनवन ले गए, वहां माता को कल्पवृक्ष से लगाव हो गया और उन्‍होंने उस वृक्ष को लेकर कैलाश आ गईं। कल्पवृक्ष मनोकामना पूर्ण करने वाला वृक्ष है, पार्वती ने अपने अकेलेपन को दूर करने हेतु उस वृक्ष से यह वर मांगा कि उन्‍हें एक कन्या प्राप्त हो, तब कल्पवृक्ष द्वारा अशोक सुंदरी का जन्म हुआ। माता पार्वती ने उस कन्या को वरदान दिया कि उसका विवाह देवराज इंद्र जैसे शक्तिशाली युवक से होगा।एक बार अशोक सुंदरी अपने दासियों के साथ नंदनवन में विचरण कर रहीं थीं तभी वहां हुंड नामक राक्षस का आया। जो अशोक सुंदरी के सुंदरता से मोहित हो गया और उसने अशोक सुंदरी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा।लेकिन अशोक सुंदरी ने अपने भविष्य के बारे में बताते हुए विवाह के बारे में भी बताया कि उनका विवाह नहुष से ही होगा। यह सुनकर राक्षस ने कहा कि वह नहुष को मार डालेगा। ऐसा सुनकर अशोक सुंदरी ने राक्षस को शाप दिया कि उसकी मृत्यु नहुष के हाथों ही होगी। वह घबरा गया जिसके चलते उसने नहुष का अपहरण कर लिया। उस समय नहुष काफी छोटे थे। नहुष को राक्षस हुंड की एक दासी ने बचाया। इस तरह महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में नहुष बड़े हुए और उन्होंने हुंड का वध किया। इसके बाद नहुष तथा अशोक सुंदरी का विवाह हुआ तथा वह ययाति जैसे वीर पुत्र तथा सौ रूपवती कन्याओं की अशोक सुंदरी माता बनीं।