Monday, August 31, 2015

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग।


घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद से लगभग 29 कि.मी. की दूर पर वेरुल नामक गांव में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में आखिरी माना जाता है। कई ग्रंथों और पुराणों में उल्लेख है कि घुश्मेश्वर महादेव के दर्शन कर लेने से मनुष्य को जीवन का हर सुख मिलता है। इस ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है।

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पीछे एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि दक्षिण दिशा के देवगिरी पर्वत के पास सुधर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। उन दोनों की कोई संतान नहीं थी। संतान पाने की इच्छा से सुदेहा ने अपने पति को अपनी ही छोटी बहन घुश्मा से विवाह करने को कहा। अपनी पत्नी के कहने पर सुधर्मा ने घुश्मा से विवाह कर लिया। विवाह के बाद दोनों बहनें सुधर्मा के साथ प्रेम से रहने लगीं। घुश्मा भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त थी, वह रोज सौ पार्थिव शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करती थी और पूजा के बाद उन्हें एक सरोवर में विसर्जित कर देती थी। कुछ समय बाद जब घुश्मा को पुत्र हुआ तो सुदेहा को उससे जलन होने लगी। एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के पुत्र का वध कर दिया और उसके शव को उसी सरोवर में फेंक दिया, जहां घुश्मा अपने शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। जब घुश्मा को अपने पुत्र की हत्या के बारे में पता चला तो भी उसका मन जरा भी विचलित नहीं हुआ। वह रोज की तरह शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करने लगी और भगवान से अपने पुत्र को वापस पाने की कामना करने लगी। पूजा के बाद जब घुश्मा शिवलिंगों को सरोवर में विसर्जित करने गई तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे जीवित खड़ा था। अपने पुत्र की मृत्यु का कारण जानने पर भी घुश्मा के मन में अपनी बड़ी बहन के प्रति जरा भी क्रोध नहीं आया। घुश्मा की इसी सरलता और भक्ति से खुश होकर भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। भगवान शिव के ऐसा कहने पर घुश्मा ने भगवान से अपनी बहन को उसके अपराध के लिए मांग करने को और हमेशा के लिए इसी स्थान पर रहने का वरदान मांगा। घुश्मा के कहने पर भगवान उसी स्थान पर घुश्मेश्वर लिंग के रूप में स्थित हो गए।

Saturday, August 29, 2015

रक्षाबन्धन।


रक्षाबन्धन।
रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं।रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है।

पौराणिक प्रसंग।
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

Friday, August 28, 2015

वाराह भगवान।

वाराह भगवान।
भागवत पुराण के अनुसारब्रह्मा नें मनु और सतरूपा का निर्माण किया और सृष्टि करने की आज्ञा दी। इसके लिये भूमि की आवश्यकता होती है जिसे हिरण्याक्ष नामक दैत्य लेकर सागर के भीतर भू देवी को अपना तकिया बना कर सोया था तथा देवताओं के डर से विष्ठा का घेरा बना रखा था।

मनु सतरूपा को जल ही जल दिखा जिसके बारे में ब्रह्मा को बताया तब ब्रह्मा ने सोचा कि सभी देव तो विष्ठा के पास तक नहीं जाते, एक शूकर ही है जो विष्ठा के समीप जा सकता है। भगवान विष्णु का ध्यान किया और अपने नासिका से वाराह नारायण को जन्म दिया, पृथ्वी को ऊपर लाने की आज्ञा दी। वाराह भगवान समुद्र में उतरे और हिरण्याक्ष का संहार कर भू देवी को मुक्त किया।

[चित्र में-- अपनी कोहनी पर भू देवी को उठाए हुए जल से बाहर आ रहे तथा सर्प पर खड़े वाराह भगवान का शिलाचित्र, दिल्ली संग्रहालयमें।]

Tuesday, August 25, 2015

पशुपतिनाथ मन्दिर।


पशुपतिनाथ मन्दिर।
पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू के तीन किलोमीटर उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के किनारे पर स्थित एक हिंदू मंदिर है । नेपाल के एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने से पहले यह मंदिर राष्ट्रीय देवता, भगवान पशुपतिनाथ का मुख्य निवास माना जाता था। यह मंदिर यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में सूचीबद्ध है। पशुपतिनाथ में आस्थावानों (मुख्य रूप से हिंदुओं) को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देखने की अनुमति है। यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। परंपरा है कि मंदिर में चार पुजारी और एक मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं। पशुपतिनाथमें शिवरात्रि त्योहार विशेष महत्वके साथ मनाया जाता है ।

इतिहास एवं किंवदंतियाँ।
किंवदंतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था किंतु उपलब्ध ऐतिहासिक रिकॉर्ड 13वीं शताब्दी के ही हैं। इस मंदिर की कई नकलों का भी निर्माण हुआ है जिनमें भक्तपुर (1480), ललितपुर (1566) और बनारस (19वीं शताब्दी के प्रारंभ में) शामिल हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ। इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया।

नेपाल महात्म्य और हिमवतखंड पर आधारित स्थानीय किंवदंती के अनुसार भगवान शिव एक बार वाराणसी के अन्य देवताओं को छोड़कर बागमती नदी के किनारे स्थित मृगस्थली चले गए, जो बागमती नदी के दूसरे किनारे पर जंगल में है। भगवान शिव वहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले गए। जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए।

भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर की किंवदंती के अनुसार पाण्डवों को स्वर्गप्रयाण के समय भैंसे के स्वरूप में शिव के दर्शन हुए थे जो बाद में धरती में समा गए लेकिन भीम ने उनकी पूँछ पकड़ ली थी। ऐसे में उस स्थान पर स्थापित उनका स्वरूप केदारनाथ कहलाया, तथा जहाँ पर धरती से बाहर उनका मुख प्रकट हुआ, वह पशुपतिनाथ कहलाया।

Sunday, August 23, 2015

सूर्य भगवान्।



सूर्य भगवान्।
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

Saturday, August 22, 2015

गोस्वामी तुलसीदास।


गोस्वामी तुलसीदास।
गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ - १६२३] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर गाँव (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ लिखे। उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। उनको मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। रामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। त्रेता युग के ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया।

अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरो भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गाँव है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् १५५४ के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अयोध्या (उत्तर प्रदेश) ले गये और वहाँ संवत्‌ १५६१ माघ शुक्ला पञ्चमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। वहाँ से कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ नरहरि बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भाँति समझ न आयी।

ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् १५८३ को २९ वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूँकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहाँ शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहाँ रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरूजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी क्योंकि तब तक उनका गौना नहीं हुआ था अत: तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदासबना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
यह दोहा सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड दिया और वापस अपने गाँव राजापुर लौट गये। राजापुर में अपने घर जाकर जब उन्हें यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर नष्ट हो चुका है तो उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ। उन्होंने विधि-विधान पूर्वक अपने पिता जी का श्राद्ध किया और गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान्‌जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान्‌जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। संवत्‌ १६०७ की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

Friday, August 21, 2015

शारदा माँ।


शारदा माँ।
पिरामिडाकार त्रिकूट पर्वत में विराजी माँ शारदा सर्व मनोकामनाओं को पूरा करने वाली हैं। 522 ईसा पूर्व को चतुर्दशी के दिन नृपल देव ने सामवेदी की स्थापना की थी। तभी से त्रिकूट पर्वत में पूजा अर्चना का दौर शुरू हुआ। इस मंदिर की पवित्रता का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी भी आल्हा माँ शारदा की पूजा करने सुबह पहुँचते हैं। माँ शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे के न पढ़े जा सके शिलालेख भी कई पहेलियों को समेटे हुए हैं। सन्‌ 1922 में जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने शारदा मंदिर परिसर में जीव बलि को प्रतिबंधित कर दिया था।

विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे मान्यता है कि माँ शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी। मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्म ग्रंथों में महेन्द्र मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। जन श्रुतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम माँ शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया। हिन्दू श्रद्धालुजन देवी को माँ अथवा माई के रूप में परम्परा से संबोधित करते चले आ रहे हैं। माई का घर होने के कारण पहले माई घर तथा इसके उपरांत इस नगर को मैहर के नाम से संबोधित किया जाने लगा। एक अन्य मान्यता के अनुसार, भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान उनके कंधे पर रखे माता सती के शव से गले का हार त्रिकूट पर्वत के शिखर पर आ गिरा। इसी वजह से यह स्थान शक्तिपीठ तथा नाम माई का हार के आधार पर मैहर के रूप में विकसित हुआ।

कई रहस्य आज भी बरकरार: ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस तथ्य का प्रमाण प्राप्त होता है कि सन्‌ 539 (522 ई.पू.) चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नृपलदेव ने सामवेदी देवी की स्थापना की थी। प्रसिद्ध इतिहासविद् ए. कनिघम द्वारा माँ शारदा मंदिर का काफी अध्ययन किया गया है। मैहर स्थित जन सूचना केन्द्र के प्रभारी पंडित मोहनलाल द्विवेदी शिलालेख के हवाले से बताते हैं कि कनिघम के प्रतीत होने वाले 9वीं व 10वीं सदी के शिलालेख की लिपि न पढ़े जाने के कारण अभी भी रहस्य बने हुए हैं।

चौतरफा हैं प्राचीन धरोहरें: मैहर केवल शारदा मंदिर के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है बल्कि इसके चारों ओर प्राचीन धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। मंदिर के ठीक पीछे इतिहास के दो प्रसिद्ध योद्धाओं व देवी भक्त आल्हा- ऊदल के अखाड़े हैं तथा यहीं एक तालाब और भव्य मंदिर है जिसमें अमरत्व का वरदान प्राप्त आल्हा की तलवार उसी की विशाल प्रतिमा के हाथ में थमाई गई है।

आज भी आल्हा करते हैं पहले श्रृंगार: मैहर मंदिर के महंत पंडित देवी प्रसाद बताते हैं कि अभी भी माँ का पहला श्रृंगार आल्हा ही करते हैं और जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। इस रहस्य को सुलझाने वैज्ञानिकों की टीम भी डेरा जमा चुकी है लेकिन रहस्य अभी भी बरकरार है।

इसके अलावा 950 ईसा पूर्व चंदेल राजपूत वंश द्वारा बनाया गया गोलामठ मंदिर, 108 शिवलिंगों का रामेश्वरम मंदिर, भदनपुर में राजा अमान द्वारा स्थापित किया गया हनुमान मंदिर अन्य धार्मिक केन्द्र हैं। इसके अतिरिक्त मैहर क्षेत्र के ग्राम मड़ई, मनौरा, तिदुंहटा व बदेरा में सदियों पुराने भवन व शिलालेख हैं जो भारतीय इतिहास को एक नए आलोक में झाँकने का अवसर प्रदान करते हैं। शिव पुराण के मुताबिक बदेरा में ही शिवभक्त बाणासुर की राजधानी थी जिसकी पुष्टि बदेरा के जंगल में जगह-जगह मिल रहे शिव मंदिरों के भग्नावशेष व शिवलिंग करते हैं।

Wednesday, August 19, 2015

महामृत्युञ्जय शिव।


महामृत्युञ्जय शिव।
शिव आदि देव है। शिव को समझना या जानना सब कुछ जान लेना जैसा हैं। अपने भक्तों पर परम करूणा जो रखते है, जिनके कारण यह सृष्टि संभव हो पायी है, वह एकमात्र शिव ही है। शिव इस ब्रह्माण्ड में सबसे उदार एवं कल्याणकारी हैं। अनेक रुपों में शिव सिर्फ दाता हैं। सम्पूर्ण लोक के सभी देवता और देवियाँ महा ऐश्वर्यशाली हैं, परन्तु शिव के पास सब कुछ रहते हुए भी वे वैरागी हैं। कारण वे ही निराकार और साकार पूर्ण ब्रह्म हैं। शिव पल पल कितने विष पीते है, कहना क्या? दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती का कन्यादान किया था, शिव दमाद थे। परन्तु एक बार किसी सभा में सभी देवों की उपस्थिती में दक्ष के आने पर सभी देवता और ॠषिगण सम्मान में दक्ष को प्रणाम करने लगे, परन्तु शिव कुछ नही बोले। इस बात को स्वयं का अनादर समझ कर दक्ष शिव को भूतों का स्वामी, वेद से बहिष्कृत रहने वाला कह अपमान करने लगे, परन्तु शिव ने कुछ नहीं कहा।

कुछ काल बाद दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन कनखल क्षेत्र में रखा सभी देवी, देवता, ॠषि, मुनि सहित असुर, नवग्रह, नक्षत्र मण्डल को भी निमंत्रित किया परन्तु शिव को नही बुलाया। कारण शिव के अपमान के लिए ही यज्ञ रखा गया था। शिव भक्त दधिचि शिव के बिना यज्ञ को अमंगलकारी बताकर वहां से चले गये। अभिमानी लोगों का यही हाल है वो थोड़ी सी शक्ति आ जाने पर अपने को सर्वज्ञ समझ लेते है। रोहिणी संग चन्द्रमा को जाते देख सती को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि मेरे पिता के यहां यज्ञ में ये जा रहे है तो आश्चर्य हुआ कि हमे क्यों नही बुलाया? वे शिव जी के समीप जाकर बोली कि स्वामी मेरे पिता ने हमें यज्ञ में नहीं बुलाया फिर भी मैं जाना चाहती हूँ। सती को शिव नें समझाया कि बिन बुलाए जाना मृत्यु के समान हैं, परन्तु सती द्वारा हठ करने पर शिव ने आज्ञा प्रदान की। यज्ञ में जब शिव की निन्दा सुन सती ने आत्मदाह कर लिया तो शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र तथा कालिका को प्रकट कर असंख्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ के विनाश के लिए भेजा। क्या परिणाम हुआ अंहकारी, देव, दानव के साथ दक्ष का भी सिर मुण्डन हो गया।फिर शिव की दया ही थी कि ब्रह्मा जी के स्तुति से प्रसन्न होकर दक्ष को पशु मुख देकर अभय दान प्रदान किया। शिव है तो सारी सृष्टि हैं। शिव का एक रूप है "महामृत्युञ्जय" जो सभी को अमृत प्रदान करते है।

Monday, August 17, 2015

हरियाली तीज।

हरियाली तीज।
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। जनमानस में यह हरियाली तीज के नाम से जानी जाती है। यह मुख्यत: स्त्रियों का त्योहार है। इस समय जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर सी बिछा देती है तो प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। हरतालिका तीज व्रत भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की तृतीय कोहस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती महिला गौरी शंकर की पूजा करती है।

यह श्रावणी तीज,हरियाली और कजली तीज के रूप में भी मनायी जाती है यह त्यौहार मुख्यत: महिलाओं का त्यौहार है जिसमें महिलाएं उपवास और व्रत रखती हैं और मां गौरी की पूजा करती हैं। सावन के आते ही चारों ओर मनमोहक वातावरण की सुंदर छ्ठा फैल जाती है। श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में तृतिया तिथि को महिलाएं हरियाली तीज के रुप में मनाती हैं इस समय वर्षा ऋतु की बौछारें प्रकृति को पूर्ण रूप से भिगो देती हैं। प्रकृति में हर तरफ हरियाली की चादर सी बिछी होती है और इसी कारण से इस त्यौहार को हरियाली तीज कहा जाता है।


सावन की तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हंह तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं। देश के पूर्वी इलाकों में इसे कजली तीज के रुप में जाना तथा अधिकतर लोग इसे हरियाली तीज के नाम से जानते हैं इस समय प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित हो जाता है जगह-जगह झूले पड़ते हैं और स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं।

Sunday, August 16, 2015

"भय का निवारण करते है".....भैरव।


"भय का निवारण करते है".....भैरव।
बटुक भैरव शिवांश है तथा शाक्त उपासना में इनके बिना आगे बढना संभव ही नहीं है। शक्ति के किसी भी रूप की उपासना हो भैरव पूजन कर उनकी आज्ञा लेकर ही माता की उपासना होती है। भैरव रक्षक है साधक के जीवन में बाधाओं को दूर कर साधना मार्ग सरल सुलभ बनाते है।

भैरव कृपा।
भैरव भक्त वत्सल है शीघ्र ही सहायता करते है, भरण, पोषण के साथ रक्षा भी करते है। ये शिव के अतिप्रिय तथा माता के लाडले है, इनके आज्ञा के बिना कोई शक्ति उपासना करता है तो उसके पुण्य का हरण कर लेते है कारण दिव्य साधना का अपना एक नियम है जो गुरू परम्परा से आगे बढता है। अगर कोई उदण्डता करे तो वो कृपा प्राप्त नहीं कर पाता है। भैरव सिर्फ शिव माँ के आज्ञा पर चलते है वे शोधन, निवारण, रक्षण कर भक्त को लाकर भगवती के सन्मुख खड़ा कर देते है। इस जगत में शिव ने जितनी लीलाएं की है उस लीला के ही एक रूप है भैरव। भैरव या किसी भी शक्ति के तीन आचार जरूर होते है, जैसा भक्त वैसा ही आचार का पालन करना पड़ता है। ये भी अगर गुरू परम्परा से मिले वही करना चाहिए। आचार में सात्वीक ध्यान पूजन, राजसिक ध्यान पूजन, तथा तामसिक ध्यान पूजन करना चाहिए। भय का निवारण करते है भैरव।

भैरव स्वरुप।
इस जगत में सबसे ज्यादा जीव पर करूणा शिव करते है और शक्ति तो सनातनी माँ है इन दोनो में भेद नहीं है कारण दोनों माता पिता है, इस लिए करूणा, दया जो इनका स्वभाव है वह भैरव जी में विद्यमान है। सृष्टि में आसुरी शक्तियां बहुत उपद्रव करती है, उसमें भी अगर कोई विशेष साधना और भक्ति मार्ग पर चलता हो तो ये कई एक साथ साधक को कष्ट पहुँचाते है, इसलिए अगर भैरव कृपा हो जाए तो सभी आसुरी शक्ति को भैरव बाबा मार भगाते है, इसलिये ये साक्षात रक्षक है।

काल भैरव ।
भूत बाधा हो या ग्रह बाधा, शत्रु भय हो रोग बाधा सभी को दूर कर भैरव कृपा प्रदान करते है। अष्ट भैरव प्रसिद्ध है परन्तु भैरव के कई अनेको रूप है सभी का महत्व है परन्तु बटुक सबसे प्यारे है। नित्य इनका ध्यान पूजन किया जाय तो सभी काम बन जाते है, जरूरत है हमें पूर्ण श्रद्धा से उन्हें पुकारने की, वे छोटे भोले शिव है, दौड़ पड़ते है भक्त के रक्षा और कल्याण के लिए।

Friday, August 14, 2015

हरियाली अमावस्या।


हरियाली अमावस्या।
श्रावण कृष्ण अमावस्या को हरियाली अमावस्या के रूप में मनाया जाता है। इसे श्रावणी अमावस्यां, हरियाली अमावस्याव व आदी अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहर सावन में प्रकृति पर आई बहार की खुशियों का जश्न है। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को प्रकृति के करीब लाना है। गांवों में इस दिन मेले लगाए जाते हैं तो कहीं दंगल का आयोजन भी किया जाता है। कुछ स्थानों पर इस दिन पीपल के वृक्ष की पूजा कर उसके फेरे लगाने तथा मालपुए का भोग लगाने की परंपरा है।

धार्मिक मान्यता अनुसार वृक्षों में देवताओं का वास बताया गया है। शास्त्र अनुसार पीपल के वृक्ष में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व शिव का वास होता है। इसी प्रकार आंवले के पेड़ में लक्ष्मीनारायण के विराजमान की परिकल्पना की गई है। इसके पीछे वृक्षों को संरक्षित रखने की भावना निहित है। पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए ही हरियाली अमावस्या के दिन वृक्षारोपण करने की प्रथा बनी। इस दिन कई शहरों व गांवों में हरियाली अमावस्या के मेलों का आयोजन किया जाता है।

Thursday, August 13, 2015

कुदरती शिवलिंग।

कुदरती शिवलिंग।
इस शिवलिंग में जो तिलक दिख रहा है वो कुदरत की देन है ऐसे शिव लिंग प्रायः नर्मदा नदी में मिलते है जिसे नर्मदेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

Wednesday, August 12, 2015

भगवान शिव।

भगवान शिव।
शिव को देवों के देव कहते हैं, इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है।

भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

Monday, August 10, 2015

कांवड़ यात्रा।



कांवड़ यात्रा।
हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु - पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है।

धार्मिक संदर्भ में कहें तो इंसान ने अपनी स्वार्थपरक नियति से शिव को रूष्ट किया है। कांवड यात्रा का आयोजन अति सुन्दर बात है। लेकिन शिव को प्रसन्न करने के लिए इन आयोजन में भागीदारी करने वालों को इसकी महत्ता भी समझनी होगी। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।

Saturday, August 08, 2015

सृष्टि की उत्पत्ति।




सृष्टि की उत्पत्ति।
सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था, न सूर्य दिखाई देते थे न चन्द्रमा, अन्य ग्रह नक्षत्रों का भी कहीं पता नही था। न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायु की भी सत्ता नही थी। उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव ही की ही सत्ता और विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत महात्मा आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। एक बार भगवान शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा किमैं एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये। जिसके कंधे पर सृष्टि-संचालन का महान भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भाग पर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्त्वगुण की प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था।  रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान शिव को प्रणाम करके कहा कि 'भगवन! मेरा नाम निश्चित किजिये और कामबताइये' उसकी बात सुनकर भगवान शंकर ने मुसकुराकर कहा - 'वत्स! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्यहोगा. इस समय तुम उत्तम तप करो'। भगवान शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णुकठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम उनके अंगों से जल - धारायेंनिकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जल में शयनकिया। जल अर्थात् 'नार' में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम 'नारायण' हुआ।

तदन्तर सोये हुये नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर ड़ाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमल के नाल में भ्रमण करते रहें किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिकर्ता का पता नही लगा। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने परब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सन्मुख भगवान विष्णु प्रकट हुये। पर्मेश्वर शिव की लीला सेउस समय वहाँ श्रीविष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ और बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि - अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान विष्णु ने प्रार्थना किया कि 'महाप्रभो ! हम आपके स्वरुपों को नही जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये'।
भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले- 'सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभांति संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन्! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु! तुम इस चराचर जगत का पालन करो। तदन्तर शिव ने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।

Thursday, August 06, 2015

श्रीनाथ जी।



श्रीनाथ जी।
श्रीवल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का श्रीनाथ द्वारा मंदिर वैष्णव और वल्लभ सम्प्रदाय ही नहीं समूचे हिंदू समाज के लिए महत्व रखता है। राजस्थान के उदयपुर शहर से 30 मील की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध एकलिंगजी स्थान से मात्र 17 मील उत्तर में स्थित है यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर।अन्य मंदिरों से भिन्न, यहाँ पुष्टिमार्ग के नियमानुसार ही समय-समय पर श्रीनाथ जी की मूर्ति के दर्शन कराए जाते हैं। वल्लभाचार्य को ही गोवर्धन पर्वत (मथुरा) पर श्रीनाथजी की मूर्ति मिली थी। उसी मूर्ति को पहले घिसार फिर यहाँ स्थापित किया गया है।

वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थी। यह वैष्णवों में सात स्वरुप के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके बड़े पुत्र गिरिधरजी तिलकायत थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसाईजी टिकायत या तिलकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथजी की मूर्ति गिरिधरजी के पूजन में रही। मान्यता अनुसार औरंगजेब ने जब हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब श्रीनाथजी की मूर्ति तोड़ दिए जाने के भय से दामोदरजी, जो गिरिधरजी के पुत्र थे प्रतिमा को लेकर सन 1669 (विक्रम संवत 1726) में गोवर्धन से निकल गए तथा कई स्थानों से होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे। बाद में मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह के निवेदन से मूर्ति को सन 1671 (विक्रम संवत 1728) को मेवाड़ ले आए जहाँ बनास नदी के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई।

Tuesday, August 04, 2015

नाग पंचमी।


नाग पंचमी। 
नाग पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रुप में मनाया जाता है। इस दिन नाग देवता या सर्प की पूजा की जाती है और उन्हें दूध पिलाया जाता है। नागपंचमी के ही दिन अनेकों गांव व कस्बों में कुस्ती का आयोजन होता है जिसमें आसपास के पहलवान भाग लेते हैं। गाय, बैल आदि पशुओं को इस दिन नदी, तालाब में ले जाकर नहलाया जाता है।

हमारी संस्कृति ने पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति सबके साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है। हमारे यहां गाय की पूजा होती है। कई बहनें कोकिला-व्रत करती हैं। कोयल के दर्शन हो अथवा उसका स्वर कान पर पड़े तब ही भोजन लेना, ऐसा यह व्रत है। हमारे यहाँ वृषभोत्सव के दिन बैल का पूजन किया जाता है। वट-सावित्री जैसे व्रत में बरगद की पूजा होती है, परन्तु नाग पंचमी जैसे दिन नाग का पूजन जब हम करते हैं, तब तो हमारी संस्कृति की विशिष्टता पराकाष्टा पर पहुंच जाती है।

गाय, बैल, कोयल इत्यादि का पूजन करके उनके साथ आत्मीयता साधने का हम प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वे उपयोगी हैं। लेकिन नाग हमारे किस उपयोग में आता है, उल्टे यदि काटे तो जान लिए बिना न रहे। हम सब उससे डरते हैं। नाग के इस डर से नागपूजा शुरू हुई होगी, ऐसा कई लोग मानते हैं, परन्तु यह मान्यता हमारी संस्कृति से सुसंगत नहीं लगती। नाग को देव के रूप में स्वीकार करने में आर्यों के हृदय की विशालता का हमें दर्शन होता है। 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌' इस गर्जना के साथ आगे बढ़ते हुए आर्यों को भिन्न-भिन्न उपासना करते हुए अनेक समूहों के संपर्क में आना पड़ा। वेदों के प्रभावी विचार उनके पास पहुँचाने के लिए आर्यों को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा।

विभिन्न समूहों को उपासना विधि में रहे फर्क के कारण होने वाले विवाद को यदि निकाल दिया जाए तो मानव मात्र वेदों के तेजस्वी और भव्य विचारों को स्वीकार करेगा, इस पर आर्यों की अखण्ड श्रद्धा थी। इसको सफल बनाने के लिए आर्यों ने अलग-अलग पुंजों में चलती विभिन्न देवताओं की पूजा को स्वीकार किया और अलग-अलग पुंजों को उन्होंने आत्मसात करके अपने में मिला लिया। इन विभिन्न पूजाओं को स्वीकार करने के कारण ही हमें नागपूजा प्राप्त हुई होगी, ऐसा लगता है।

Sunday, August 02, 2015

भगवान भोलेनाथ।



भगवान भोलेनाथ।
शिव को देवों के देव कहते हैं, इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है।

भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

Saturday, August 01, 2015

शिवमय सावन।


शिवमय सावन।
भगवान शिव को प्रिय है सावन का महीना-
सावन का महीना आते है हर तरह बम भोले की गूंज सुनाई देने लगती है। इस महीने में भक्तजन भगवान शिव को कांवर में जल लाकर चढ़ाते हैं।इसका कारण यह है कि सावन भगवान शिव का प्रिय महीना है। लेकिन सावन ही भगवान शिव को सबसे प्रिय क्यों है यह सवाल अगर आपके भी मन उठता है तो इसका जवाब है।


शिव का प्रिय सावन, यह है पहला कारण-
शास्त्र और पुराणों के अनुसार भगवान शिव का प्रिय महीना सावन होने का कई कारण है। इनमें सबसे प्रमुख कारण यह है कि, सती के देहत्याग करने के बाद जब आदिशक्ति ने पार्वती के रुप में जन्म लिया तो इसी महीने में तपस्या करके भगवान शिव को पति रुप में पाने का वरदान प्राप्त किया। यानी भगवान शिव और पार्वती का मिलन इसी महीने में हुआ था। इसलिए यह महीना भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है।

इसलिए शिव और पृथ्वी वासियों के लिए खास है सावन महीना-
शिव का प्रिय मास होने का दूसरा बड़ा कारण यह है कि भगवान शिव इस महीने में अपने ससुराल यानी पृथ्वी पर आए थे। शिव जी के ससुराल आने पर आर्घ्य और जलाभिषेक से इनका स्वागत किया गया था। मान्यता है कि हर वर्ष इस महीने में शिव जी अपने ससुराल पधारते हैं। इसलिए यह महीना उनका प्रिय है और पृथ्वीवासियों के लिए शिव कृपा पाने का उत्तम मास है।

तीसरा कारण जिससे शिव को सावन प्रिय है-
सागर मंथन के समय जब हालाहल नामक विष सागर से निकला था। उस समय सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने इस विष को अपने गले में धारण कर लिया। यह घटना सावन के महीने में हुआ था।
विष को धारण करने से शिव जी मूर्च्छित हो गए। ब्रह्मा जी के कहने पर देवताओं ने शिव जी का जलाभिषेक किया और जड़ी बूटियों का भोग लगाया। इससे शिव जी की मूर्च्छा दूर हुई। इसके बाद से ही भगवान शिव का जलाभिषेक होने लगा। इस अद्भुत घटना के कारण शिव को सावन अति प्रिय है।

यह है बड़ा कारण जिससे शिव जी को सावन प्रिय है-
शास्त्रों के अनुसार सावन मास में भगवान शिव योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसके बाद सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।
यही कारण है कि सावन में अन्य किसी भी देवता की पूजा से शिव की पूजा का कई गुणा फल प्राप्त होता है। इसलिए माना जाता है कि भगवान शिव को सावन सबसे अधिक प्रिय है।