Friday, July 31, 2015

गुरू पूर्णिमा।

गुरू पूर्णिमा। 
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

Wednesday, July 29, 2015

भीम-हिडिम्बा विवाह।

भीम-हिडिम्बा विवाह।
जब भीमसेन ने हिडिम्बासुर का वध किया और सभी पाण्डव माता कुंती के साथ वन से जाने लगे तो हिडिम्बा भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। हिडिम्बा को पीछे आता देख भीम ने उससे जाने के लिए कहा तथा उस पर क्रोधित भी हुए। तब युधिष्ठिर ने भीम को रोक लिया।

हिडिम्बा ने कुंती व युधिष्ठिर से कहा कि इन अतिबलशाली भीमसेन को मैं अपना पति मान चुकी हूं। इस स्थिति में अब ये जहां भी रहेंगे मैं भी इनके साथ ही रहूंगी। आपकी आज्ञा मिलने पर मैं इन्हें अपन साथ लेकर जाऊंगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊंगी। आप लोगों पर जब भी कोई परेशानी आएगी उस समय मैं तुरंत आपकी सहायता के लिए आ जाऊंगी। हिडिम्बा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने भीमसेन को समझाया कि हिडिम्बा ने तुम्हें अपना पति माना है इसलिए तुम भी इसके साथ पत्नी जैसा ही व्यवहार करो। यह धर्मानुकूल है। भीमसेन ने युधिष्ठिर की बात मान ली।

इस प्रकार भीम व हिडिम्बा का गंर्धव विवाह हो गया। तब युधिष्टिर ने हिडिम्बा से कहा कि तुम प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तुम्हारे साथ रहेंगे और शाम होते ही मेरे पास आ जाएंगे। तब भीम ने कहा कि ऐसा सिर्फ तब तक ही होगा जब तक हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी। हिडिम्बा ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार भीम हिडिम्बा के साथ चले गए।

Monday, July 27, 2015

देवशयनी एकादशी।



देवशयनी एकादशी।
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी कहते हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।

पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यंत (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, ग्रहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराणतथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

Sunday, July 26, 2015

माता लक्ष्मी।


माता लक्ष्मी।
सुख व ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी से जुड़ी शास्त्रों में लिखी बातों का एक संकेत यह भी है कि माता लक्ष्मी कर्म और कर्तव्य से जुड़े इंसान पर हमेशा मेहरबान रहती है। माता लक्ष्मी के भगवान विष्णु का संग चुनने के पीछे भी यही बात साफ होती है क्योंकि श्री हरि विष्णु जगत पालक माने गए हैं। पालन के पीछे भी निरंतर कर्म, पुरुषार्थ और कर्तव्य का ही मूल भाव है। हर इंसान धन और समृद्धि के रूप में लक्ष्मी की प्रसन्नता की कामना रखता है, पर लक्ष्मी कृपा के लिए पवित्रता और परिश्रम जैसी कर्म, व्यवहार और स्वभाव में उतारने की अहम सीखों को विरले इंसान ही अपनाते हैं। यही कारण है कि सच्चाई व मेहनत के बिना पाया भरपूर धन भी मानसिक शांति छीन लेता है, तो कभी धन का अभाव जीवन को अशांत करता है। इस तरह, धन का सुख, दायित्वों को समझ किसी काम से जुड़े बिना संभव नहीं होता। साथ ही मन और व्यवहार की पवित्रता दूसरों को भी सुख देती है। इसके लिए पावनता और वैभव की देवी माता लक्ष्मी की साधना शुक्रवार को बहुत ही शुभ मानी गई है। शुक्रवार के दिन माता दुर्गा की तीन शक्तियों में एक महालक्ष्मी की साधना तमाम वैभव और यश देने वाली मानी गई है। जानिए, देवी लक्ष्मी स्मरण के लिए दो मंत्र और पूजा की आसान विधि-

शुक्रवार के दिन शाम को देवी लक्ष्मी की उपासना के पहले स्नान कर यथासंभव लाल वस्त्र पहन लक्ष्मी मंदिर या घर में लाल आसन पर बैठकर माता लक्ष्मी का ध्यान अक्षत और लाल फूल हाथ में लेकर नीचे लिखे मंत्र से करें-

महालक्ष्मी च विद्महे,
विष्णुपत्नी च धीमहि,
तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्।

माता के चरणों में फूल-अक्षत करने के साथ लाल चंदन, अक्षत, लाल वस्त्र, गुलाव के फूलों की माला चढ़ाकर कमलगट्टे की माला या तुलसी की माला से नीचे लिखे विशेष लक्ष्मी मंत्र का जप करें -

ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ॐ नम:।
पूजा व मंत्र जप के बाद माता को दूध से बनी मिठाई का भोग लगाएं।
घी के पांच बत्तियों वाले दीप से आरती कर देवी से सुख-वैभव की कामना करें।

Saturday, July 25, 2015

माँ दुर्गा।


माँ दुर्गा।
पुरातन काल में दुर्गम नामक दैत्य हुआ। उसने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर सभी वेदों को अपने वश में कर लिया जिससे देवताओं का बल क्षीण हो गया। तब दुर्गम ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं को देवी भगवती का स्मरण हुआ। देवताओं ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ तथा चण्ड-मुण्ड का वध करने वाली शक्ति का आह्वान किया।

देवताओं के आह्वान पर देवी प्रकट हुईं। उन्होंने देवताओं से उन्हें बुलाने का कारण पूछा। सभी देवताओं ने एक स्वर में बताया कि दुर्गम नामक दैत्य ने सभी वेद तथा स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया है तथा हमें अनेक यातनाएं दी हैं। आप उसका वध कर दीजिए। देवताओं की बात सुनकर देवी ने उन्हें दुर्गम का वध करने का आश्वासन दिया। यह बात जब दैत्यों का राज दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण कर दिया। तब माता भगवती ने देवताओं की रक्षा की तथा दुर्गम की सेना का संहार कर दिया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया।

तब माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उन्हें भी युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। भयंकर युद्ध में भगवती ने दुर्गम का वध कर दिया। दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण भी भगवती का नाम दुर्गा के नाम से भी विख्यात हुआ।

Friday, July 24, 2015

पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद'।



पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद'।

पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' (२३ जुलाई १९०६ - २७ फ़रवरी १९३१) ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। सन् १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् १९२७ में 'बिस्मिल' के साथ ४ प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

Thursday, July 23, 2015

श्री गजानन्‍द वन्‍दना।


जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
भावार्थ- जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (गणेश) मुझ पर कृपा करें।

Tuesday, July 21, 2015

सती अनसूया।



सती अनसूया।

भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में अनसूया का स्थान बहुत ऊँचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था। ब्रह्माजी के मानस पुत्र तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से उन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था।

भगवान् को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है तो वे नाना प्रकार की लीलाएँ करते हैं। श्रीलक्ष्मीजी, श्रीसरस्वतीजी को अपने पतिव्रत का बड़ा अभिमान था। तीनों देवियों के अहंकार को नष्ट करने के लिये भगवान ने नारद जी के मन में प्रेरणा की। फलतः वे श्रीलक्ष्मीजी के पास पहुँचे। नारदजी को देखकर लक्ष्मीजी का मुख-कमल खिल उठा। लक्ष्मीजी ने कहा—‘आइये, नारदजी ! आप तो बहुत दिनों के बाद आये कहिये, क्या हाल हैं?’

नारद जी बोले—‘माताजी ! क्या बताऊँ, कुछ बताते नहीं बनता। अबकी बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया। वहाँ मैं महर्षि अत्रि के आश्रमपर पहुँचा। माताजी ! मैं तो महर्षि की पत्नी अनसूयाजी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया। तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है।’ लक्ष्मीजी को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने पूछा—नारद ! क्या वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है ?’ नारदजी ने कहा—‘माताजी ! आप ही नहीं, तीनों लोकों में कोई भी स्त्री सती अनसूया की तुलना में किसी भी गिनती में नहीं है।’ इसी प्रकार देवर्षि नारद ने सती और सरस्वती के पास जाकर उनके मन में भी सती अनसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी। अन्त में तीनों देवियों ने त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिये बाध्य कर दिया।

ब्रह्म, विष्णु और महेश महर्षि अत्रि के आश्रमपर पहुँचे। तीनों देव मुनिवेष में थे। उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रमपर नहीं थे। अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत-सत्कार करना चाहा, किन्तु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया।

सती अनसूया ने उनसे पूछा —‘मुनियों ! मुझसे कौन-सा ऐसा अपराध हो गया, जो आपलोग मेरे द्वारा की हुई पूजाग्रहण नहीं कर रहे हैं ?’ मुनियों ने कहा—‘देवि ! यदि आप बिना वस्त्रके हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगे। यह सुनकर सती अनसूया सोच में पड़ गयीं। उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया वे बोलीं—मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूँगी। यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैंने कभी भी कामभाव से किसी पर-पुरुषका चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छः-छः माह के बच्चे बन जायँ।’

पतिव्रता का इतना कहना था कि त्रिदेव छः-छः माह के बच्चे बन गये। माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में खेलने के लिये डाल दिया इस प्रकार त्रिदेव माता अनसूया वात्सल्य प्रेम के बन्दी बन गये। इधर जब तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं तो वे चिन्तित हो गयीं। आखिर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिये चित्रकूट गयीं। संयोग से वहीं नारद जी से उनकी मुलाकात हो गयी। त्रिदेवियों ने उनसे अपने पतियों का पता पूछा। नारदने कहा कि वे लोग तो आश्रममें बालक बनकर खेल रहे हैं। त्रिदेवियों ने अनुसूयाजी से आश्रम में प्रवेश की आज्ञा माँगी। अनसूया जी ने उनसे उनका परिचय पूछा। त्रिदेवियों ने कहा—‘माताजी ! हम तो आपकी बहुएँ हैं। आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें।’ अनसूयाजी का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने बच्चे पर जल छिड़ककर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया और अन्ततः उन त्रिदेवों की पूजा-स्तुति की। त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अपने-अपने अंशों से अनुसूया के यहाँ पुत्ररूप में प्रकट होने का वरदान दिया।

Monday, July 20, 2015

गंगोत्री धाम।

गंगोत्री धाम।
गंगोत्री धाम में मां गंगा की पूजा होती है। पौराणिक कथा के अनुसार, स्वर्ग से उतरकर गंगाजी ने पहली बार गंगोत्री में ही धरती का स्पर्श किया था। कहते हैं, गंगा जी के मंदिर का निर्माण 18वीं सदी में अमर सिंह थापा ने करवाया, लेकिन वर्तमान मंदिर 20वीं सदी के प्रारंभ में जयपुर नरेश माधोसिंह ने बनवाया। इसके गवाक्ष राजस्थानी शैली और स्तंभ राजस्थानी व पहाड़ी शैली में बने हैं। सूर्योदय के समय स्वर्णिम किरणों से मंदिर की आभा दैदीप्यमान हो जाती है। गंगा का उद्गम गंगोत्री से 19 किमी. दूर गोमुख में है। लेकिन, श्रद्धालु गंगोत्री में ही गंगाजी के दर्शन करते हैं।

Sunday, July 19, 2015

श्रीजगन्नाथ रथ यात्रा।


श्रीजगन्नाथ रथ यात्रा।
उड़ीसा में समुद्र तट पर स्थित पुरी के भगवान जगन्नाथ हिंदुओं के प्रधान देवता है। उन का आकर्षण केवल निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, स्थान, संस्कृति और राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित नही है बल्कि विदेशों में भी बडी संख्या में श्रध्दालु श्रीजगन्नाथ के दर्शन के लिए पुरी पहुंचते हैं। इसी लिए उन्हें जगन्नाथ या ब्रह्मांड का भगवान कहते है। देश, धर्म तथा धार्मिक मान्यताओं से परे दुनिया भर के अनुयाईयों का परम भक्ति से सराबोर जनसमूह उस देव की एक झलक पाना चाहता है जो मिलन, एकता और अखंडता की मूर्ति है।

जगन्नाथ संप्रदाय कितना पुराना है तथा यह कब उत्पन्न हुआ था इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नही कहा जा सकता। वैदिक साहित्य और पौराणिक कथाओं में भगवान जगन्नथ या पुरूषोत्तम का विष्णु के अवतार के रूप में उनकी महिमा का गुणगान किया गया है। अन्य अनुसंधान स्रोतों से इस बात के पर्याप्त सबूत है कि यह संप्रदाय वैदिक काल से भी पुराना है। इन स्रोतों के अनुसार भगवान जगन्नाथ शबर जनजातीय समुदाय से संबधित है और वे लोग इनकी पूजा गोपनीय रूप से करते थे। बाद में उनको पुरी लाया गया। वे सारे ब्रह्मांड के देव है तथा वे सबसे संबधित है। अनेक संप्रदायों जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, गणपति, बौध्द तथा जैन ने अपने धार्मिक सिंध्दातों में समानता पाई है। जगन्नाथ जी के भक्तों में सालबेग भी है जो जन्म से मुस्लिम था। भगवान जगन्नथ और उनके मंदिर ने अनेक संप्रदायों तथा धार्मिक समुदायों के धर्म गुरूओं का पुरी आकर्षित किया है। आदि शंकराचार्य ने इसे गोवर्धन पीठ स्थापित करने के लिए चुना। उन्होंने जगन्नाथाष्टक का भी संकलन किया। अन्य धार्मिक संत या धर्म गुरू जो यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की उनमें माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, सांयणाचार्य, रामानुज, रामानंद, तुलसीदास, नानक, कबीर, तथा चैतन्य हैं और स्थानीय संत जैसे जगन्नाथ दास, बलराम दास, अच्युतानंद, यशवंत, शिशु अनंत और जयदेव भी यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की। पुरी में इन संतों द्वारा मठ या आश्रम स्थापित किये गये जो अभी भी मौजूद हैं तथा किसी न किसी रूप में जगन्नाथ मंदिर से संबधित हैं।

Saturday, July 18, 2015

यक्ष के प्रश्न।

यक्ष के प्रश्न।
महाभारत के अनुसार एक समय की बात है पांडव वन में थे। एक दिन वन में घूमते समय उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। सहदेव पानी की तलाश में गया। जल्दी ही उसने एक तालाब खोज लिया। वह अभी पानी पीने को ही था कि किसी यक्ष ने कहा पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, तभी पानी पीना, क्योंकि सहदेव प्यासा था इसलिए उसने बात को अनसुनी कर बिना कोई उत्तर दिए पानी पी लिया और वहीं मुर्छित हो गया। इसी तरह नकुल, भीम और अर्जुन भी आए और यक्ष के प्रश्न का बिना जवाब दिए पानी पी लिया वे सभी बेहोश होते गए।

सबसे बाद में वहां धर्मराज युधिष्ठिर पहुंचे। यक्ष ने फिर से पहले ही की तरह प्रश्नोतर करना चाहा। युधिष्ठिर ने कहा- देव बिना विचारे काम करने वाले अपने भाइयों की स्थिति मैं देख रहा हूं। आपके प्रश्न का उत्तर दिए बिना पानी ग्रहण नहीं करूंगा। आप प्रश्न पूछिए। यक्ष ने पूछा- किमाश्चर्यम् यानी संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या हैं? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- देव एक-एक करके व्यक्ति मृत्यु के मुंह में समाता जा रहा है, फिर भी जो जीवित है, वे सोचते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे। इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है? यक्ष बहुत प्रसन्न हुए और पानी पीने की आज्ञा दे दी। इसके बाद यक्ष ने उनके चारों भाइयों को भी जीवित कर दिया।

Thursday, July 16, 2015

भगवान राम।


भगवान राम।
हिन्दू धर्म में राम, भगवान विष्णु के दस अवतारों में से सातवें माने जाते हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम, महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित, संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है| उन पर तुलसीदास ने भीभक्ति काव्य श्री रामचरितमानस रचा था| रामचन्द्र हमारे आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। इनके तीन भाई, भरत केकैयी से लक्ष्मण और शत्रुघ्न सुमित्रा से।

राम की ऐतिहासिकता : चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन राम का जन्म हुआ था। चेन्नई की एक गैर-सरकारी संस्था ‘भारत ज्ञान’ ने कई वर्षों की शोध से यह पता लगाया कि राम का जन्म 5114 ई.पू. 10 जनवरी को हुआ था। राम के बारे में यह शोध मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, विद्वानों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के सामने प्रस्तुत किया गया था। इस शोध के तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने बताया कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है।

Wednesday, July 15, 2015

भील का शिव पूजन।

भील का शिव पूजन।
 खुद की भस्म से किया शिव का पूजन
सिंहकेतु नाम का एक राजा था। वह शिकार खेलने रोज जंगल जाता था। एक दिन रास्ते में उसे एक शिव मंदिर मिला। उसमें एक शिवलिंग था।

राजा के साथ चण्ड नाम का भील भी था। उसने वह शिवलिंग अपने पास रख लिया व राजा से उसकी पूजन विधि पूछी। राजा ने मजाक में कहा कि इसे रोज नहलाकर इसकी फूल-पत्तियों से पूजा करना व इसे धूप-दीप दिखाना। इस शिवलिंग को भस्म जरूर चढ़ाना और वो भस्म चिता राख ही हो। फिर भोग लगाकर नाच-गाना किया करो। 

यह सुनकर भील अपनी पत्नी के साथ रोज शिव पूजन करने लगा। शमशान में रोज भस्म भी मिल जाती थी। एक दिन शिव की माया के कारण उसे भस्म नहीं मिली। वह बहुत दुखी हुआ। उसकी पत्नी ने जब यह सुना तो वह स्वयं ही भस्म होने लगी। भील ने उसे बहुत समझाया पर शिव भक्ति में लीन वह भीलनी जलकर भस्म हो गई।


भील ने बड़े दुखी मन से अपनी पत्नी की भस्म को देखा पर अगले ही पल शिव पूजन में भस्म मिलने की खुशी से वह भर उठा। उसने बड़े प्रेम से उस भस्म से शिव पूजन पूरा किया। तभी एक चमत्कार हुआ। उसकी पत्नी सशरीर उसके पास बैठी शिव पूजन कर रही थी। दोनों ने शिव-महिमा का गुणगान किया और शिवलोक को प्राप्त हुए। 

Sunday, July 12, 2015

अर्जुन को अहंकार।

अर्जुन को अहंकार।

कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा। जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती। कृष्ण अर्जुन को अपना शिष्य ही नहीं बल्कि मित्र भी मानते थे। जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उनके मित्र अर्जुन के मन में अपनी शक्तियों और क्षमताओं को लेकर अहंकार पैदा हो गया है तो उन्हेंने जान बूझकर यह सारा खेल रचाया। ताकि अर्जुन को यह अहसास हो सके कि इंसान के हाथ में सब कुछ नहीं है। ऐसा करके कृष्ण ने अर्जुन के प्रति अपनी मित्रता का फर्ज ही निभाया तथा अर्जुन को अहंकार से दूर किया।

Saturday, July 11, 2015

सच्ची पूजा।


सच्ची पूजा।
महाराज युधिष्ठिर ध्यानमग्न बैठे थे। जब उन्होंने आंखें खोलीं, तो द्रौपदी ने कहा, ‘धर्मराज! आप भगवान का इतना ध्यान करते हैं, उनका भजन करते हैं, फिर उनसे यह क्यों नहीं कहते कि हमारे संकटों को दूर कर दें। इतने सालों से हम वन में भटक रहे हैं। इतना कष्ट होता है, इतना क्लेश। कभी पत्थरों पर रात बितानी होती है तो कभी कांटों में। कहीं प्यास बुझाने को पानी नहीं मिलता, तो कभी भूख मिटाने को भोजन नहीं। इसलिए भगवान से कहिए कि वे हमारे कष्टों का अंत करें।

इस पर युधिष्ठिर बोले, ‘सुनो द्रौपदी! मैं भगवान का स्मरण किसी सौदे के तहत नहीं करता। मैं आराधना करता हूं क्योंकि इससे मुझे आनंद मिलता है। उस विशाल पर्वतमाला को देखो। उसे देखते ही मन प्रसन्न हो उठता है। हम उससे कुछ मांगते नहीं। हम उसे देखते हैं इसलिए कि उसे देखने में हमें प्रसन्नता मिलती है। पूरी प्रकृति से हमारा रिश्ता ऐसा ही है। बिना किसी प्राप्ति की आशा से ही हम उससे जुड़ते हैं। इसमें असीम सुख की अनुभूति होती है। मैं ऐसे ही सुख के लिए ईश्वरोपासना करता हूं, व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं।’

Thursday, July 09, 2015

देवी उर्मिला की सिद्धियां।


देवी उर्मिला की सिद्धियां।
प्रस्तुत लेख आनंद रामायण से लिया गया है इसलिये यदि किसी प्रकार की कोई भी शंका हो तो कृप्या आनंद रामायण का अध्यन करे।

(जब हनुमान जी देवी उर्मिला की सिद्धियों को देखकर दंग रह गए)
आनंद रामायण के अनुसार जब हनुमानजी ने अपने बाएं हाथ पर संजीवनी पवर्त उठाया तो दिव्य गंधमय पुष्पों की वर्षा होने लगी व चारों ओर से मंगल-ध्वनि होने लगी। हनुमानजी पर्वत सहित ऊर्ध्वगामी होकर संकल्प मात्र से वायु देव के 48 स्वरूपों को पार करके 49 वें स्वरूप पर पहुंच गए। यहां से हनुमान जी को अयोध्या पुरी नज़र आई। जिसे देखकर उनके मन में इच्छा जागृत हुई कि श्रीराम की नगरी व उनके परिवार जनों का दर्शन किया जाए। पुरी अयोध्या को ‘रां’ बीज मंत्र द्वारा कीलित देखकर हनुमानजी को रोमांच हो आया। हनुमानजी ने हाथ जोड़कर नंदीग्राम सहित अयोध्या की परिक्रमा की। फिर नंदीग्राम की एक कुटिया में खिड़की से झांका तो देखा कि भरत जी सिंहासन पर स्थापित चरण पादुकाओं के पास बैठकर ध्यान-मग्न थे। अर्धरात्रि काल था, सभी सो रहे थे, कौशल्या जी, सुमित्रा जी व कैकयी जी को हनुमानजी ने शयन करते देखा। उन्होंने देखा कि माता कौशल्या के पलंग पर ही, पैरों की ओर भरत पत्नी मांडवि जी लेटी थी। ठीक यही स्थिति शत्रुघ्न-पत्नी श्रुतकीर्ति की माता सुमित्रा के पलंग पर थी। केवल माता कैकयी अपने पलंग पर अकेली थीं। हनुमानजी ने विचारा कि घर में एक राजबहू उर्मिला भी हैं, फिर माता कैकयी अकेली क्यों? जिज्ञासा वश हनुमानजी ने ध्यान लगाया तो देखा कि उर्मिला जी ने 14 वर्षों की अवधि में विशेष साधनों का प्रण लिया है तथा वो विशिष्ट साधना में पूरे मनोयोग से जुट हुई हैं। हनुमानजी ने देखा कि श्रीराम के वियोग में पूरा परिवार योगी-तपस्वी हो गया है। हनुमान जी ने देखना चाहा कि देवी उर्मिला जी की साधना कहां तक पहुंची है। देवी उर्मिला जी के भवन का द्वार बंद था, हनुमानजी सूक्ष्म रूप से भीतर प्रवेश कर गए। हनुमानजी एक दृश्य देखकर चकित रह गए। एक उच्च पीठासन पर मनोहर दीपक प्रज्वलित है, जिसके दिव्य प्रकाश से सारा कक्ष आलोकित हो रहा है। उसी दीपक के नीचे ललित चुनरी कलात्मक ढंग से तह की हुई रखी है। संजीवनी पर्वत पर दिव्य पुष्पों की जो सुगंध थी, वही सुगंध पूरे गर्भगृह को सुवासित किए हुए थी। हनुमान जी अभी विस्मय से उबर भी नहीं पाए थे कि उन्हें नारी-कंठ की ध्वनि में सुनाई पड़ा, ‘‘आइए हनुमानजी आपका स्वागत है"। यह ध्वनि देवी उर्मिला जी की है। हनुमानजी अत्यंत विनम्र होकर बोले, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है देवी कि आपकी साधना पूर्ण रूपेण सफल हो गई, तभी आपने मुझ अदृश्य को देख लिया और पहचान भी लिया। हनुमान जी ने देवी उर्मिला जी से दर्शन देने की प्रार्थना की। फिर एक कक्ष का द्वार खुला व एक अद्भुत घटना हुई। प्रज्वलित दीपक की लौ बढ़कर द्वार तक गई व उर्मिला के मुख मंडल को आलोकित करती हुई उन्हीं के साथ चलती रही। उर्मिला जी जब दीपक के पास आकर खड़ी हो गई, तब शिखा भी सामान्य शिखा में समाहित हो गई। हनुमानजी ने भाव-विभोर होकर उर्मिला जी को प्रणाम किया व कहा "आप मुझे आज्ञा व आशीर्वाद दें, मुझे शीघ्र लंका पहुंचना है।’’ उर्मिला जी ने कहा, ‘‘मुझे ज्ञात है पुत्र! मेरे पतिदेव, मेघनाद की वीरघातिनी शक्ति से मूर्छित हैं, क्योंकि उन्होनें शबरी के भावना से अर्पित जूठे बेरों की अपेक्षा की थी। अब उन्हीं बेरों के परिवर्तित रूप से आपके द्वारा सिंचित संजीवनी से उनकी मूर्छा दूर होगी, यही उनका प्रायश्चित है।" उर्मिला जी ने कहा, ‘‘हे पुत्र हनुमान! आपके इस महान कार्य का एक दूसरा परिणाम यह भी हुआ है कि आपने बेर की पत्तियों का जो तांत्रिक प्रयोग किया है, उसने रावण के तांत्रिक प्रयोगों का निराकरण किया है। यह कार्य आपके अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता था।’’हनुमानजी बोले, ‘‘सब कुछ प्रभु श्रीराम की कृपा से हुआ है"। उर्मिला जी ने कहा, ‘‘यह सत्य है कि सब राम कृपा से होता है, परंतु आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं। मैं जानती हूं, आप शिवशंकर के ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं। अब जाओ वत्स! आगे का कार्य भी निर्विघ्न रूप से संपन्न करो।’’ हनुमानजी बोले, ‘‘आपका आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होगा, आपकी साधना महान है। आपने सर्वज्ञता की सिद्धि भी प्राप्त कर ली है"।
हनुमानजी ‘जय श्रीराम’ कहकर अदृश्य हो गए।

Tuesday, July 07, 2015

श्री ठाकुरजी।

श्री ठाकुरजी।
यह ठाकुरजी की मुर्ती तक़रीबन 500 साल पुरानी है और यह स्वामी नारायण मंदिर घरपुर(गुजरात) में है। ठाकुर जी के हाथ में जो घडी है वह पल्स रेट से चलती है। इस घडी को एक अंग्रेज ने 50 साल पहले यह जानने के लिए ठाकुरजी के हाथ में डाली थी की मूर्ति में प्राण है या नहीं। और घडी हाथ में डालते ही वह चलने लगी और आज तक सही समय बता रही है। जब ठाकुरजी का श्रृंगार करने के लिए घडी निकालते है तो वह बंद हो जाती है और फिर उनके हाथ में डालते ही चलने लगती है।

Sunday, July 05, 2015

तपस्या का फल।

तपस्या का फल।
भगवान शंकर को पति के रूप में पाने हेतु माता-पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी। उनकी तपस्या पूर्णता की ओर थी। एक समय वह भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न बैठी थी। उसी समय उन्हें एक बालक के डुबने की चीख सुनाई दी। माता तुरंत उठकर वहां पहुंची। उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है।
बालक अपनी जान बचाने के लिए प्रयास कर रहा है, तथा मगरमच्छ उसे आहार बनाने का। करुणामयी मां को बालक पर दया आ गई। उन्होंने मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोड़ दीजिए इसे आहार न बनाएं। मगरमच्छ बोला माता यह मेरा आहार है मुझे हर छठे दिन उदर पूर्ति हेतु जो पहले मिलता है, उसे मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है। माता ने फिर कहा आप इसे छोड़ दे इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल दुंगी। ग्राह ने कहा ठीक है। माता ने उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का पुण्य फल उस ग्राह को दे दिया।
ग्राह तपस्या के फल को प्राप्त कर सूर्य की भांति चमक उठा। उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई। उसने कहां माता आप अपना पुण्य वापस ले लें। मैं इस बालक को यू हीं छोड़ दुंगा। माता ने मना कर दिया तथा बालक को गोद में लेकर ममतामयी माता दुलारने लगी। बालक को सुरक्षित लौटाकर, माता ने अपने स्थान पर वापस आकर तप शुरु कर दिया। भगवान शिव तुरंत ही वहां प्रकट हो गए, और बोले पार्वती अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। हर प्राणी में मेरा ही वास है, तुमने उस ग्राह को तप का फल दिया वह मुझे ही प्राप्त हुआ। अत: तुम्हारा तप फल अनंत गुना हो गया। तुमने करुणावश द्रवित होकर किसी प्राणी की रक्षा की अत: मैं तुम पर प्रसन्न हूं तथा तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं।
कथा का सारांश यही है कि जो परहित की कामना करता है। उस पर परमात्मा की असीम कृपा होती है। जो व्यक्ति असहायों की सहायता, दयालु प्रेमी करुणाकारी होता है। ईश्वर उसको स्वीकार करते हैं। यह कथा ब्रह्मपुराण में उल्लेखित है।

Saturday, July 04, 2015

ग्रह मिलन।

ग्रह मिलन। 
दोस्‍तों, आज 4 जुलाई 2015 को दो चाँद होगें। जिसका इंतजार पूरी दुनिया कर रही है। इस दिन मंगल ग्रह बहुत चमकीला होगा बिल्‍कुल पूरे चाँद की तरह जिसे खाली आँखों से देखा जा सकता है। इस दिन धरती से 34.65 मील की दूरी पर होगा। इस दिन आधी रात 12:30 बजे इसे देखना ना भूले क्‍योंकि तब आसमान में दो चाँद दिखाई देंगें। ऐसा दोबारा 2287 में होगा। सभी शेयर करें क्‍योंकि जो अभी जिंदा हैं वो इसे दोबारा नहीं देख पायेंगें।

जगन्नाथ मंदिर।



जगन्नाथ मंदिर।

पुरी का जगन्नाथ मंदिर विश्व भर में प्रसिद्ध है। मं‍दिर का आर्किटेक्ट इतना भव्य है कि दूर-दूर के वास्तु विशेषज्ञ इस पर रिसर्च करने आते हैं। कुछ आश्चर्यजनक तथ्य इन दिनों फेसबुक पर खासे चर्चित हैं। प्रस्तुत है आपके लिए संपादित अंश-

1. मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।

2. पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।

3. सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है।

4. पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पाएंगे।

5. मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है।

6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, लाखों लोगों तक को खिला सकते हैं।

7. मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।

8. मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

9. मंदिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।

10. प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है।

11. मंदिर का क्षेत्रफल 4 लाख वर्गफुट में है।

12. मंदिर की ऊंचाई 214 फुट है।

13. विशाल रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोइए एवं उनके 300 सहायक-सहयोगी एकसाथ काम करते हैं। सारा खाना मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है।



Thursday, July 02, 2015

जलती रहेगी गोरखनाथ के इंतजार में मां की ज्वाला।

जलती रहेगी गोरखनाथ के इंतजार में मां की ज्वाला।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा है ज्वाला देवी का मंदिर। मां ज्वाला देवी तीर्थ स्थल को देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ माना जाता है। शक्तिपीठ वह स्थान कहलाते हैं जहां-जहां भगवान विष्णु के चक्र से कटकर माता सती के अंग गिरे थे। शास्त्रों के अनुसार ज्वाला देवी में सती की जिह्वा गिरी थी। मान्यता है कि सभी शक्तिपीठों में देवी हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है।

ज्वाला रूप में माता।
ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला जो चांदी के जाला के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।

ज्वालादेवी की ज्योति।
ज्वाला माता से संबंधित गोरखनाथ की कथा इस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये। इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब ये माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी।

गोरख डिब्बी।
ज्वाला दवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। मंदिर के पास ही 'गोरख डिब्बी' है। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है।