Wednesday, April 29, 2015

ध्यान साधना क्या है?


ध्यान साधना क्या है?
हमारे समक्ष प्रश्न है: ध्यान साधना क्या है? ध्यान साधना और अधिक हितकारी मनोदशा या रवैया विकसित करने के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाने की विधि है। यह उद्देश्य बारंबार एक निश्चित प्रकार की मनोदशा विकसित करके स्वयं को उसमें ढाल कर उसे अपना स्वभाव बनाने का यत्न करके हासिल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि ऐसी बहुत सी मनोदशाएं और रवैये हो सकते हैं जो हितकारी है। एक मनोदशा ऐसी हो सकती है जिसमें व्यक्ति अधिक निश्चिंत, तनाव रहित, अपेक्षाकृत कम चिन्तित हो सकता है; एक अन्य मनोदशा में व्यक्ति अधिक ध्यान केन्द्रित, या किसी अन्य मनोदशा में अधिक शांत, अनवरत अनर्गल विचारों तथा मानसिक चिन्ता से मुक्त हो सकता है। इनसे भी अलग एक ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति को अधिक आत्मज्ञान, जीवन का बोध आदि हो सकते हैं; या कोई ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति और अधिक प्रेम और करुणा का भाव हो। इस प्रकार हम ध्यान साधना के माध्यम से अनेक प्रकार की हितकारी मनोदशाएं विकसित कर सकते हैं।

चित्त को स्थिर करना-
ध्यान साधना की एक विधि यह है कि चित्त को स्थिर किया जाए ताकि चित्त की और अधिक सहज अवस्था में पहुँच सकें। अपने चित्त को स्थिर करके हमारा उद्देश्य एक ऐसी चित्तवृत्ति विकसित करना होता है जहाँ हमारा चित्त निर्मल और सचेत हो, एक ऐसी चित्तवृत्ति जिसमें हम प्रेम और उदारता का भाव विकसित कर सकें, या अपने अन्दर के उस मानवीय मित्रभाव को प्रकट कर सकें जो हमारे अन्दर सहज रूप से विद्यमान है। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को पूर्णतः तनावमुक्त होना चाहिए ─ यह केवल शरीर के स्नायुओं की तनाव मुक्ति की बात नहीं है, यद्यपि वह भी आवश्यक है, बल्कि उस मानसिक और भावनात्मक तनाव तथा खिंचाव से मुक्ति का प्रश्न है जो हमें किसी भी प्रकार की संवेदना को ग्रहण करने से रोकता है ─ विशेषतः जो हमें सहज मित्रभाव और चित्त की निर्मलता का अनुभव करने से रोकता है।
किन्तु यदि हमारा चित्त अधिक स्थिर, शांत, निर्मल और उदार हो तो हम उसका उपयोग रचनात्मक ढंग से कर सकते हैं। ऐसा चित्त हमारे दैनिक जीवन में तो सहायक हो ही सकता है, साथ ही हम इसका उपयोग ध्यान की मुद्रा में बैठ कर अपने जीवन की परिस्थितियों को और बेहतर ढंग से समझने के लिए कर सकते हैं। व्यवधान उत्पन्न करने वाले मनोभावों और विषयेतर विचारों से मुक्त चित्त की सहायता से हम महत्वपूर्ण विषयों पर अधिक स्पष्टता से चिन्तन कर सकते हैं। हमारा चित्त शांत और स्थिर होना चाहिए। ध्यान साधना वह साधन है जो हमें इस अवस्था तक पहुँचाने की क्षमता रखता है।

सहायक स्थितियाँ-
ध्यान साधना के लिए स्थितियों का सहायक होना भी निश्चित रूप से आवश्यक होता है। कुछ लोग समझते हैं कि सहायक स्थिति, यदि कहा जाए तो, किसी “हॉलीवुड मंच-सज्जा” के जैसी होनी चाहिए। लोग सोचते हैं कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए मोमबत्तियों, विशेष प्रकार के संगीत और लोबान की आवश्यकता होगी; उन्हें लगता है कि उनके लिए पूरा हॉलीवुड का फिल्म-सेट तैयार किया जाना चाहिए। यदि आप इस प्रकार का वातावरण चाहते हैं तो ठीक है; लेकिन ऐसा करना निश्चित तौर पर आवश्यक नहीं है। सामान्यतया जहाँ आप ध्यान साधना करने वाले हों उस कमरे को साफ किया जाता है। कमरे को व्यवस्थित कर लें; कपड़े फर्श पर न बिखरे हों, आदि। यदि हमारे आस-पास का वातावरण व्यवस्थित हो तो वह चित्त को व्यवस्थित रखने में सहायक होता है। यदि वातावरण अव्यवस्थित हो तो वह हमारे चित्त पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
विशेष तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में यदि हमारे आस-पास का वातावरण शांतिपूर्ण हो तो यह बहुत सहायक सिद्ध होता है। बौद्ध परम्परा में ध्यान लगाने के लिए संगीत का प्रयोग निश्चित तौर पर नहीं किया जाता है। संगीत एक बाह्य स्रोत है जिसका प्रयोग हम स्वयं को शांत रखने की दृष्टि से करते हैं। किन्तु शांतचित्तता के किसी बाहरी स्रोत पर निर्भर होने के बजाए हम आन्तरिक शांति को विकसित करने में सक्षम होना चाहते हैं। इसके अलावा, संगीत का प्रभाव सम्मोहक हो सकता है, और हम स्तम्भित नहीं होना चाहते हैं। हमें अपने आप को किसी शामक प्रभाव से शांत करने की आवश्यकता नहीं है, जैसे हम किसी दंत चिकित्सक के प्रतीक्षालय में हों और हमें शांत बनाए रखने के लिए वहाँ धीमा संगीत बजाया जा रहा हो। ध्यान साधना के लिए यह कोई अच्छा वातावरण नहीं है।
जहाँ तक ध्यान साधना की मुद्रा का प्रश्न है, यदि हम विभिन्न एशियाई परम्पराओं को देखें, तो ध्यान साधना के लिए बैठने की विभिन्न विधियाँ प्रचलित हैं। तिब्बती और भारतीय लोग पालथी मार कर बैठते हैं; जापानी लोग पैरों को पीछे की ओर अपने नीचे दबाकर घुटनों के बल बैठते हैं; थाइलैंड के लोग अपने दोनों पैर एक और मोड़ कर बैठते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बैठने की मुद्रा आरामदेह होनी चाहिए। यदि आपको लगता है कि आपको कुर्सी पर बैठना चाहिए, तो वह भी ठीक है। ध्यान साधना के बहुत उन्नत स्तर के अभ्यासों में जब हम शरीर के ऊर्जा तंत्रों का अभ्यास करते हैं तब मुद्रा महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन सामान्यतया हमें किसी भी स्थिति में ध्यान साधना कर पाने योग्य होना चाहिए। हो सकता है कि आपको किसी गद्दी पर पालथी मार कर बैठने की आदत हो, लेकिन यदि आप किसी विमान में हों या रेल में सफ़र कर रहे हों और पालथी मार कर बैठ पाना सम्भव न हो, तो आप अपनी सीट पर सामान्य स्थिति में बैठे हुए ही ध्यान साधना कर सकते हैं।

कम अनुभव वाले ध्यान साधकों के लिए यह विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है कि उनके आस-पास का वातावरण शांत हो। हममें से बहुत से लोगों के लिए, विशेष तौर पर शहरों में रहने वाले लोगों के लिए, शांतिपूर्ण स्थानों की तलाश आसान नहीं होती है। इसलिए बहुत से लोग तड़के सुबह या देर रात के समय ध्यान साधना करते हैं जब शोर अपेक्षाकृत कम होता है। धीरे-धीरे जब हम इस दिशा में काफ़ी आगे बढ़ जाते हैं तो शोर हमें विचलित नहीं करता है; लेकिन शुरुआत में बाहर का कोलाहल बहुत जल्दी हमारा ध्यान भंग कर सकता है।

श्वास पर ध्यान केन्द्रित करना-
बहुत से लोग जानना चाहते हैं: मैं ध्यान साधना का अभ्यास कैसे शुरू करूँ? बहुत सी परम्पराओं में अधिकांश साधक ध्यान साधना की शुरुआत श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके करते हैं। श्वास पर ध्यान साधते समय आप सामान्य ढंग से श्वास लीजिए: न बहुत तेज़, न बहुत धीरे; न बहुत गहरा, और न ही बहुत हल्का। सिर्फ़ नाक से सामान्य ढंग से श्वास लीजिए। बहुत तेज़, गहरा श्वास बिल्कुल नहीं लेना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से आपको ज़ोर से चक्कर आ सकते हैं और उससे आपका कोई हित नहीं होगा।
श्वास को साधते समय आप दो स्थानों पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं: या तो नासिका के अन्दर जाते और बाहर निकलते श्वास की अनुभूति पर; या फिर श्वास-प्रश्वास के कारण पेट के फूलने और पिचकने की अनुभूति पर। यदि आपका चित्त बहुत अधिक भटक रहा हो जिसे हम अंग्रेज़ी भाषा में ‘स्पेस्ड आउट’ होना कहते हैं या कल्पना की उड़ान भर रहा हो, तो ऐसी स्थिति में पेट के नाभि के आस-पास के अन्दर की ओर दबने और फिर बाहर की ओर फूलने वाले भाग पर ध्यान केन्द्रित करना स्वयं को ध्यान साधना में पुनःस्थापित करने में सहायक होता है। वहीं दूसरी ओर यदि आपको बहुत नींद या थकान अनुभव हो, तो नासिका के भीतर जाते और उससे बाहर आते श्वास पर ध्यान केन्द्रित करने से ऊर्जा का स्तर बढ़ाने में सहायता मिलती है।

दूसरों के प्रति प्रेम भाव जाग्रत करना-
एक बार जब हम श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके अपने चित्त को शांत कर लेते हैं, तो फिर हम चित्त की शांत और सचेतन अवस्था का आगे की साधना के लिए उपयोग कर सकते हैं। हम इसका उपयोग हम अपनी भावनात्मक अवस्था के प्रति और अधिक जागरूक होने के लिए कर सकते हैं। प्रेम भाव जाग्रत करने के लिए स्वयं को प्रेम की अवस्था तक ले जाना पड़ता है। शुरुआत के तौर पर आप इस प्रकार विचार करें: “मैं सभी से प्रेम करता हूँ”, और फिर वास्तविकता में ऐसा अनुभव करें। इस प्रकार के विचार के पीछे कोई शक्ति नहीं लगाई गई है। इस प्रकार से आप अपने आप में एक प्रकार का प्रेम भाव जाग्रत करते हैं,यथा: “सभी जीव आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं; यहाँ हम सभी एक साथ हैं। सभी समान हैं: हम सभी आनन्दित रहना चाहते हैं, कोई भी दुखी नहीं रहना चाहता है; सभी चाहते हैं कि उन्हें पसन्द किया जाए, कोई नहीं चाहता कि उसे पसन्द न किया जाए या उसकी उपेक्षा की जाए। सभी जीव मुझ जैसे ही हैं।“
और चूँकि हम सभी यहाँ एकत्र हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, तो प्रेम का भाव कुछ इस प्रकार का होगा: “सभी सुखी हों और सभी को आनन्दित होने के लिए कारण मिलें। सभी सुखी हों, किसी को भी कोई समस्या न हो तो कितना अच्छा हो।“ स्वयं को चित्त की इस अवस्था में ला कर और हृदय में इस प्रकार का प्रेम जागृत करके हम कल्पना करते हैं कि हमारे भीतर से एक स्नेहपूर्ण, सूर्य के समान पीला प्रकाश उत्पन्न हो रहा है जो सभी के लिए प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हमारा ध्यान भटकता है, तो हम उसे इस भावना पर पुनः केन्द्रित कर सकते हैं: “सर्वे भवन्तु सुखिनः।“

Monday, April 27, 2015

जानकी नवमी।

जानकी नवमी।
सीता नवमी वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन सीता का प्राकट्य हुआ था। इस पर्व को "जानकी नवमी" भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन पुष्य नक्षत्र में जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय पृथ्वी से एक बालिका का प्राकट्य हुआ। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को भी 'सीता' कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम 'सीता' रखा गया। इस दिन वैष्णव संप्रदाय के भक्त माता सीता के निमित्त व्रत रखते हैं और पूजन करते हैं। मान्यता है कि जो भी इस दिन व्रत रखता व श्रीराम सहित सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे पृथ्वी दान का फल, सोलह महान दानों का फल तथा सभी तीर्थों के दर्शन का फल अपने आप मिल जाता है। अत: इस दिन व्रत करने का विशेष महत्त्व है।

सीता जन्म कथा-
सीता के विषय में रामायण और अन्य ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है, उसके अनुसार मिथिला के राजा जनक के राज में कई वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। इससे चिंतित होकर जनक ने जब ऋषियों से विचार किया, तब ऋषियों ने सलाह दी कि महाराज स्वयं खेत में हल चलाएँ तो इन्द्र की कृपा हो सकती है। मान्यता है कि बिहार स्थित सीममढ़ी का पुनौरा नामक गाँव ही वह स्थान है, जहाँ राजा जनक ने हल चलाया था। हल चलाते समय हल एक धातु से टकराकर अटक गया। जनक ने उस स्थान की खुदाई करने का आदेश दिया। इस स्थान से एक कलश निकला, जिसमें एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक निःसंतान थे। इन्होंने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर पुत्री बना लिया। हल का फल जिसे 'सीत' कहते हैं, उससे टकराने के कारण कालश से कन्या बाहर आयी थी, इसलिए कन्या का नाम 'सीता' रखा गया था। 'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार श्रीराम के जन्म के सात वर्ष, एक माह बाद वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को जनक द्वारा खेत में हल की नोक (सीत) के स्पर्श से एक कन्या मिली, जिसे उन्होंने सीता नाम दिया। जनक दुलारी होने से 'जानकी', मिथिलावासी होने से 'मिथिलेश' कुमारी नाम भी उन्हें मिले। उपनिषदों, वैदिक वाङ्मय में उनकी अलौकिकता व महिमा का उल्लेख है, जहाँ उन्हें शक्तिस्वरूपा कहा गया है। ऋग्वेद में वह असुर संहारिणी, कल्याणकारी, सीतोपनिषद में मूल प्रकृति, विष्णु सान्निध्या, रामतापनीयोपनिषद में आनन्द दायिनी, आदिशक्ति, स्थिति, उत्पत्ति, संहारकारिणी, आर्ष ग्रंथों में सर्ववेदमयी, देवमयी, लोकमयी तथा इच्छा, क्रिया, ज्ञान की संगमन हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें सर्वक्लेशहारिणी, उद्भव, स्थिति, संहारकारिणी, राम वल्लभा कहा है। 'पद्मपुराण' उन्हें जगतमाता, अध्यात्म रामायण एकमात्र सत्य, योगमाया का साक्षात् स्वरूप और महारामायण समस्त शक्तियों की स्रोत तथा मुक्तिदायिनी कह उनकी आराधना करता है।

'रामतापनीयोपनिषद' का वर्णन
'रामतापनीयोपनिषद' में सीता को जगद की आनन्द दायिनी, सृष्टि, के उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार की अधिष्ठात्री कहा गया है-
श्रीराम सांनिध्यवशां-ज्जगदानन्ददायिनी।
उत्पत्ति स्थिति संहारकारिणीं सर्वदेहिनम्॥
'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार सीता राम से सात वर्ष छोटी थीं।
ममभत्र्ता महातेजा वयसापंचविंशक:।
अष्टादशा हि वर्षाणि मम जन्मति गण्यते॥
'रामायण' तथा 'रामचरितमानस' के बालकाण्ड में सीता के उद्भवकारिणी रूप का दर्शन होता है एवं उनके विवाह तक सम्पूर्ण आकर्षण सीता में समाहित हैं, जहाँ सम्पूर्ण क्रिया उनके ऐश्वर्य को रूपायित करती है।अयोध्याकाण्ड से अरण्यकाण्ड तक वह स्थितिकारिणी हैं, जिसमें वह करुणा-क्षमा की मूर्ति हैं। वह कालरात्रि बन निशाचर कुल में प्रविष्ट हो उनके विनाश का मूल बनती हैं। यद्यपि तुलसीदास ने सीताजी के मात्र कन्या तथा पत्नी रूपों को दर्शाया है, तथापि वाल्मीकि ने उनके मातृस्वरूप को भी प्रदर्शित कर उनमें वात्सल्य एवं स्नेह को भी दिखलाया है।

सीता जयंती-
सीताजी की जयंती वैशाख शुक्ल नवमी को मनायी जाती है, किंतु भारत के कुछ भाग में इसे फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को मनाते हैं। रामायण के अनुसार वह वैशाख में अवतरित हुईं थीं, किन्तु 'निर्णयसिन्धु' के 'कल्पतरु' ग्रंथानुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को। अत: दोनों ही तिथियाँ उनकी जयंती हेतु मान्य हैं। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम तथा माता जानकी के अनन्य भक्त तुलसीदास न 'रामचरितमानस' के बालकांड के प्रारंभिकश्लोक में सीता जी ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार, की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है-
उद्भव स्थिति संहारकारिणीं हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामबल्लभाम्॥
अद्भुत रामायण का उल्लेख

श्रीराम तथा सीता-
इस घटना से ज्ञात होता है कि सीता राजा जनक की अपनी पुत्री नहीं थीं। धरती के अंदर छुपे कलश से प्राप्त होने के कारण सीता खुद को पृथ्वी की पुत्री मानती थीं। लेकिन वास्तव में सीता के पिता कौन थे और कलश में सीता कैसे आयीं, इसका उल्लेख अलग-अलग भाषाओं में लिखे गये रामायण और कथाओं से प्राप्त होता है। 'अद्भुत रामायण' में उल्लेख है कि रावण कहता है कि- "जब मैं भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूँ, तब वही मेरी मृत्यु का कारण बने।" रावण के इस कथन से ज्ञात होता है कि सीता रावण की पुत्री थीं। 'अद्भुत रामायण' में उल्लेख है कि गृत्स्मद नामक ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था। एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया था, तब रावण इनकी कुटिया में आया और यहाँ मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया। रावण ने कहा कि यह तेज विष है। इसे छुपाकर रख दो। मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दुःखी थी। एक दिन जब रावण बाहर गया था, तब मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया। इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गयी।

Sunday, April 26, 2015

पुराण संख्या।

पुराण संख्या।
अट्ठारह पुराण-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते॥
म-2, भ-2, ब्र-3, व-4।
अ-1,ना-1, प-1, लिं-1, ग-1, कू-1, स्क-1॥
विष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं—विष्णु, पद्म, ब्रह्म, वायु(शिव), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड और भविष्य।

ब्रह्म पुराण
पद्म पुराण
विष्णु पुराण
वायु पुराण -- (शिव पुराण)
भागवत पुराण -- (देवीभागवत पुराण)
नारद पुराण
मार्कण्डेय पुराण
अग्नि पुराण
भविष्य पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण
लिङ्ग पुराण
वाराह पुराण
स्कन्द पुराण
वामन पुराण
कूर्म पुराण
मत्स्य पुराण
गरुड़ पुराण
ब्रह्माण्ड पुराण

पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रत्येक पुराण में अठारहो पुराणों के नाम और उनकी श्लोकसंख्या है। नाम और श्लोकसंख्या प्रायः सबकी मिलती है, कहीं कहीं भेद है। जैसे कूर्म पुराण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण; मार्कंडेय पुराण में लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण; देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण और मत्स्य में वायुपुराण है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक श्रीमद्भागवत, दूसरा देवीभागवत। कौन वास्तव में पुराण है इसपर झगड़ा रहा है। रामाश्रम स्वामी ने 'दुर्जनमुखचपेटिका' में सिद्ध किया है कि श्रीमद्भागवत ही पुराण है। इसपर काशीनाथ भट्ट ने 'दुर्जनमुखमहाचपेटिका' तथा एक और पंडित ने 'दुर्जनमुखपद्यपादुका' देवीभागवत के पक्ष में लिखी थी।

उपपुराण
गणेश पुराण
श्री नरसिंह पुराण
कल्कि पुराण
एकाम्र पुराण
कपिल पुराण
दत्त पुराण
श्रीविष्णुधर्मौत्तर पुराण
मुद्गगल पुराण
सनत्कुमार पुराण
शिवधर्म पुराण
आचार्य पुराण
मानव पुराण
उश्ना पुराण
वरुण पुराण
कालिका पुराण
महेश्वर पुराण
साम्ब पुराण
सौर पुराण
पराशर पुराण
मरीच पुराण
भार्गव पुराण

अन्यपुराण तथा ग्रन्थ-
हरिवंश पुराण
सौरपुराण
महाभारत
श्रीरामचरितमानस
रामायण
श्रीमद्भगवद्गीता
गर्ग संहिता
योगवासिष्ठ
प्रज्ञा पुराण

श्लोक संख्या-
सुखसागर के अनुसारः-
ब्रह्मपुराण में श्लोकों की संख्या १४००० और २४६ अद्धयाय है|
पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या ५५००० हैं।
विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं।
शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं।
मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं।
अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं।
भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं।
वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं।
वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं।
कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं।
मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं।
गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं।
ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।

Friday, April 24, 2015

काली माता।


काली माता।
हिन्दू धर्म में सबसे जागृत देवी है मां कालिका। मां कालिका को खासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। काली शब्द का अर्थ काल और काले रंग से है। काल का अर्थ समय। मां काली को देवी दुर्गा की दस महाविद्याओं में से एक माना जाता है। मां काली के चार रूप है- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली। कालिका के दरबार में जो एक बार चला जाता है उसका नाम-पता दर्ज हो जाता है। यहां यदि दान मिलता है तो दंड भी। माता के नाम से एक अलग ही पुराण है, जिसमें उनकी महिमा का वर्णन है।

कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्व प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की चार अंगुलियां गिरी थी। इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है। यह स्थान प्राचीन समय से ही शक्तिपीठ माना जाता था, लेकिन इस स्थान पर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने मंदिर का निर्माण करवाया था। 25 एकड़ क्षेत्र में फैले इस मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1855 पूरा हुआ।

मां गढ़ कालिका : उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का प्राचीन मंदिर हैं, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे। यहां प्रत्येक वर्ष कालिदास समारोह के आयोजन के पूर्व मां कालिका की आराधना की जाती है। गढ़ कालिका के मंदिर में मां कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारत काल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया। वैसे तो गढ़ कालिका का मंदिर शक्तिपीठ में शामिल नहीं है, किंतु उज्जैन क्षेत्र में मां हरसिद्धि ‍शक्तिपीठ होने के कारण इस क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उज्जैन में ‍शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर मां भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे।

पावागढ़ शक्तिपीठ : गुजरात की ऊंची पहाड़ी पर बसा पावागढ़ मंदिर। यहां स्थित काली मां को महाकाली कहा जाता है। काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर मां के शक्तिपीठों में से एक है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहा जाता है, जहां सती मां के अंग गिरे थे। पावागढ़ में मां के वक्षस्थल गिरे थे। कहते हैं कि यहां माता का जागृत दरबार लगता है और उनकी कई सेविकाएं उनके लिए कार्य करती हैं। यहीं लोगों को दंड या दान मिलता है। इस पहाड़ी को गुरु विश्वामित्र से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि गुरु विश्वामित्र ने यहां काली मां की तपस्या की थी। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण्य के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पावागढ़ मंदिर ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। रोप-वे से उतरने के बाद आपको लगभग 250 सीढ़ियां चढ़ना होंगी, तब जाकर आप मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुंचेंगे।

Thursday, April 23, 2015

जयंती विशेष।


जयंती विशेष।
आज जम्बूिदीप के प्रसिद्ध तीन संतो की जयंती है।
श्री रामानुजाचार्य। श्री आदि शंकराचार्य। श्री सूरदास।

श्री रामानुजाचार्य।
रामानुजाचार्य (जन्म: १०१७ - मृत्यु: ११३७) विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था।
रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया।
१०१७ ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था - ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यदिराज नामक सन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।

श्री आदि शंकराचार्य।
आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य,ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। भारतीय संस्कृति के विकास में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ईसवी 788 को तथा मोक्ष 820ई. को स्वीकार किया जाता है। शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरलराज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा)जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरीको शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त की।

श्री सूरदास जी।
सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।

Tuesday, April 21, 2015

अक्षय तृतीया।



अक्षय तृतीया।
अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाखमाह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था।इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। जी.एम. हिंगे के अनुसार तृतीया ४१ घटी २१ पल होती है तथा धर्म सिंधु एवं निर्णय सिंधु ग्रंथ के अनुसार अक्षय तृतीया ६ घटी से अधिक होना चाहिए। पद्म पुराण के अनुसा इस तृतीया को अपराह्न व्यापिनी मानना चाहिए। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। मदनरत्न के अनुसार:

“ अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥ „

अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। पुराणों में लिखा है कि इस दिन [पितृ पक्ष|[पितरों]] को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है।

क्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये।

“ सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।
दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥ „

अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है।
ऐसी भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा विशेष फलदायी मानी गई है। इस दिन किया गया आचरण और सत्कर्म अक्षय रहता है।

Monday, April 20, 2015

भगवान परशुराम।


भगवान परशुराम।
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया का पर्व मनाया जाता है। कुछ स्थानों पर इसे आखा तीज भी कहते हैं।

हिंदू पंचांग के मुताबिक वर्ष के दूसरे महीने वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इस तिथि पर किए गए दान-धर्म का अक्षय यानी कभी नाश न होने वाला फल व पुण्य मिलता है। इसलिए यह सनातन धर्म में दान-धर्म का अचूक काल माना गया है। इसे चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं, क्योंकि यह तिथि 8 चिरंजीवियों में एक भगवान परशुराम की जन्म तिथि भी है। हिन्दू धर्म मान्यताओं में किसी भी शुभ काम के लिए साल के स्वयं सिद्ध मुहूर्तों में आखा तीज भी एक है।

शास्त्रों के मुताबिक- स्नात्वा हुत्वा य दत्वा य जप्त्वानन्तफलं लभेत्।
यानी इस दिन किए जाने वाले स्नान, हवन, जप सहित सभी काम और दिया हुआ दान अक्षय होता है। यानी इनका क्षय नहीं होता है और ये अनन्त फल देते हैं। इसीलिए यह शुभ तिथि अक्षय तृतीया के नाम से जानी जाती है।

शास्त्रों के मुताबिक वैशाख माह विष्णु भक्ति का शुभ काल है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इस माह की अक्षय तृतीया को ही भगवान विष्णु के नर-नरायण, हयग्रीव और परशुराम अवतार हुए थे। इसलिए इस दिन परशुराम जयंती, नर-नारायण जयंती भी मनाई जाती है। त्रेतायुग की शुरुआत भी इसी शुभ तिथि से मानी जाती है। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा भी पुण्यदायी व महामंगलकारी मानी जाती है।

Sunday, April 19, 2015

सूर्य मंदिर।


सूर्य मंदिर।
भारत के पूर्वी समुद्री तट पर कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा साम्राज्य के राजा नर्सिम्देव प्रथम ने तेरहवीं सदी में तत्कालीन समय के अनुसार लगभग 40 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की लागत से करवाया था। आठ सौ वर्ष पूर्व की भारतीय निर्माण शास्त्र की अदभुद शैली एवं विज्ञान को देख कर अचंभित होना स्वभाविक है। वहां के कुछ उन्नत निर्माण शौली का विवरण ये रहा-

सम्पूर्ण ढाँचे को बड़े बड़े पत्थरों से बनाया गया है। इन पत्थरो के बीच किसी भी तरह का चुना प्रयोग नहीं किया गया था, अपितु पत्थरों को जोड़ने के लिए बड़ी बड़ी कीलों को क्लैम्पिग किया गया था। यहाँ सूर्य देव के सिंघासन और चक्रों के बीच कीलें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं।

छतों का भार सहने के लिए बड़ी बड़ी लौह बीम का इस्तेमाल हुआ है। यह बीम आज भी जंक रहित हैं।

मन्दिर में अनेक चुम्बक लगी हुई थीं, जिनमे दो अत्यधिक शक्तिशाली चुम्बक मन्दिर के उपर और नीचे लगाई गयीं थीं।

सम्पूर्ण स्ट्रक्चर जो लोहे की कील और बीम से जकड़ा गया था, वह सब चुम्बकीय शक्ति से दृण और स्थिर था।

यहाँ सूर्य सिंघासन पर एक धातु की सूर्य प्रतिमा थी जो दो चुम्बकों की शक्ति के द्वारा हवा में स्थिर थी।

हम सब ने प्रायः भूमि पर हॉरिजॉन्टल सोलर क्लॉक देखा/ सुना है, लेकिन सूर्य मंदिर के रथ का प्रत्येक पहिया एक सोलर क्लॉक है जो कुछ मिनट के एरर से एकदम सटीक समय बताता है।

सत्रवीं शताब्दी में जब भारत के पूर्वी तट पर पुर्तगालियों का आगमन हुआ तो मंदिर की शक्तिशाली चुम्बक द्वारा उनके मैग्नेटिक कम्पास डिस्टर्ब होने के कारण वह भटक जाया करते थे। तब पुर्तगालियों ने मंदिर की मैगनेट को नष्ट कर दिया। चूँकि मैगनेट के द्वारा मंदिर का ढांचा स्थिर था, मैगनेट नष्ट होने के बाद ढांचा कमजोर हो गया और धीरे धीरे गिरने लगा।

अपने देश में एक झोपडी भी बनाने की औकात न रखने वाले पश्चिमी एशियाई आक्रमणकारी यहाँ बड़े बड़े ताज महल बनाने का दावा कर गए। कभी किसी पुरातत्वविद से बात कीजिये, पता चलेगा की कैसे यहीं की निर्माण शैली को अपना नाम देकर इतिहास गुमराह कर दिया गया है। और यदि सही से शोध किया जाए तो न जाने कितने ही ताज महल यहाँ तेजो महालय निकलेंगे।

Friday, April 17, 2015

भीष्म पितामाह।

भीष्म पितामाह।
भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंनें आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।

एक बार हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके रूप-सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जाँघ पर आकर बैठ गईं। महाराज यह देख कर आश्चर्य में पड़ गये तब गंगा ने कहा, 'हे राजन्! मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूँ और आपसे विवाह करने की अभिलाषा ले कर आपके पास आई हूँ।' इस पर महाराज प्रतीप बोले, 'गंगे! तुम मेरी दहिनी जाँघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिये, दाहिनी जाँघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ।' यह सुन कर गंगा वहाँ से चली गईं।

अब महाराज प्रतीप ने पुत्र प्राप्ति के लिये घोर तप करना आरम्भ कर दिया। उनके तप के फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने शान्तनु रखा। शान्तनु के युवा होने पर उसे गंगा के साथ विवाह करने का आदेश दे महाराज प्रतीप स्वर्ग चले गये। पिता के आदेश का पालन करने के लिये शान्तनु ने गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिये निवेदन किया। गंगा बोलीं, “राजन्! मैं आपके साथ विवाह तो कर सकती हूँ किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।” शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र हुये जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया और अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु से रहा न गया और वे बोले, “गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।” यह सुन कर गंगा ने कहा, “राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।” इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्धान हो गईं। तत्पश्चात महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, “गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।” गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, “राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।” महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया।

एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, “हे देवि! तुम कौन हो?” कन्या ने बताया, “महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।”

महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, “राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।” निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये। सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, “हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।” उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, “हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।” इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, “वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जैसी कि न आज तक किसी ने किया है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।”

Wednesday, April 15, 2015

कच देवयानी।


कच देवयानी।
देव और दानवों में सदा युद्ध छिड़ा रहता था। दैत्य देवों से सहजोर पड़ते थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी, एक और भी कारण था। दैत्यों के पूज्य गुरुशुक्राचार्य मुर्दे को जीवित कर देने वाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे। यद्यपि देवता अमर थे और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख घबरा गये थे।

शुक्राचार्य की सेवा- देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा। श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने रूपवान, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा। कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये। आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी और उसे हृदय से प्यार करने लगी। जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये। उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया। पर आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया। और एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला।

कच और संजीवनी विद्या- जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया। असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह प्रति बार बचता रहा। अन्त में कच को मार कर उसको भोजन रूप में शुक्राचार्य को खिला दिया। अब कच को जीवित करने का एक ही उपाय था कि शुक्राचार्य की मृत्यु। शुक्राचार्य समझ गये कि कच का प्रयोजन संजीवनी विद्या सीखना ही है। शुक्राचार्य ने मन मार कर कच को जीवित किया और विद्या सिखाई फिर उनका पेट फाड़ कर कच निकला और कच ने शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य ने कच को श्राप दिया कि इस विद्या का प्रयोग वह नहीं कर पायेगा। कच ने कहा कि वह दूसरों को सिखा देगा।

विद्या दान- अध्ययन समाप्त हो चुका था। गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर विदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया। देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, और उस समय लाज के परदे में ढका हुआ, कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया। परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया। इससे देवयानी को क्रोध हुआ। कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी, पर कच अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था, पुनश्चः देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना। देवयानी ने कच के दिल की सच्चाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया, उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये। कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे। अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया।

Monday, April 13, 2015

पाण्‍डव भीम।

पाण्‍डव भीम।
हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत के अनुसार भीम पाण्डवों में दूसरे स्थान पर थे। वे पवनदेव के वरदान स्वरूप कुन्ती से उत्पन्न हुए थे, लेकिन अन्य पाण्डवों के विपरीत भीम की प्रशंसा पाण्डु द्वारा की गई थी। सभी पाण्डवों में वे सर्वाधिक बलशाली और श्रेष्ठ कद-काठी के थे एवं युधिष्ठिर के सबसे प्रिय सहोदर थे।

उनके पौराणिक बल का गुणगान पूरे काव्य में किया गया है। जैसे:- "सभी गदाधारियों में भीम के समान कोई नहीं है और ऐसा भी कोई को गज की सवारी करने में इतना योग्य हो और बल में तो वे दस हज़ार हाथियों के समान है। युद्ध कला में पारंगत और सक्रिय, जिन्हे यदि क्रोध दिलाया जाए जो कई धृतराष्ट्रों को वे समाप्त कर सकते हैं। सदैव रोषरत और बलवान, युद्ध में तो स्वयं इन्द्र भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते।" वनवास काल मे इन्होने अनेक राक्षसों का वध किया जिसमे बकासुर एवं हिडिंब आदि प्रमुख हैं एवं अज्ञातवास मे विराट नरेश के साले कीचक का वध करके द्रौपदी की रक्षा की। यह गदा युद़्ध मे बहुत ही प्रवीण थे एवं बलराम के शिष़्य थे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में राजाओं की कमी होने पर उन्होने मगध के शासक जरासंघ को परास्त करके ८६ राजाओं को मुक्त कराया। द्रौपदी के चीरहरण का बदला लेने के लिए उन्होने दुःशासन की क्षाती फाड कर उसका रक्त पान किया।

महाभारत के युद्ध में भीम ने ही सारे कौरव भाईयों का वध किया था। इन्ही के द्वारा दुय्रोधन के वध के साथ ही महाभारत के युद्ध का अंत हो गया।

Saturday, April 11, 2015

माता लक्ष्मी।

माता लक्ष्मी।
सुख व ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी से जुड़ी शास्त्रों में लिखी बातों का एक संकेत यह भी है कि माता लक्ष्मी कर्म और कर्तव्य से जुड़े इंसान पर हमेशा मेहरबान रहती है। माता लक्ष्मी के भगवान विष्णु का संग चुनने के पीछे भी यही बात साफ होती है क्योंकि श्री हरि विष्णु जगत पालक माने गए हैं। पालन के पीछे भी निरंतर कर्म, पुरुषार्थ और कर्तव्य का ही मूल भाव है।

हर इंसान धन और समृद्धि के रूप में लक्ष्मी की प्रसन्नता की कामना रखता है, पर लक्ष्मी कृपा के लिए पवित्रता और परिश्रम जैसी कर्म, व्यवहार और स्वभाव में उतारने की अहम सीखों को विरले इंसान ही अपनाते हैं। यही कारण है कि सच्चाई व मेहनत के बिना पाया भरपूर धन भी मानसिक शांति छीन लेता है, तो कभी धन का अभाव जीवन को अशांत करता है।

इस तरह, धन का सुख, दायित्वों को समझ किसी काम से जुड़े बिना संभव नहीं होता। साथ ही मन और व्यवहार की पवित्रता दूसरों को भी सुख देती है। इसके लिए पावनता और वैभव की देवी माता लक्ष्मी की साधना शुक्रवार को बहुत ही शुभ मानी गई है।

शुक्रवार के दिन माता दुर्गा की तीन शक्तियों में एक महालक्ष्मी की साधना तमाम वैभव और यश देने वाली मानी गई है। शुक्रवार के दिन शाम को देवी लक्ष्मी की उपासना के पहले स्नान कर यथासंभव लाल वस्त्र पहन लक्ष्मी मंदिर या घर में लाल आसन पर बैठकर माता लक्ष्मी का ध्यान अक्षत और लाल फूल हाथ में लेकर नीचे लिखे मंत्र से करें –

महालक्ष्मी च विद्महे,
विष्णुपत्नी च धीमहि,
तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्।

माता लक्ष्मी की उपासना के लिए विशेष रूप से शाम के वक्त स्नान के बाद लालकुंकुम, लाल कमल या लाल फूल चढ़ाकर धूप व घी के दीप से आरती करें। मातालक्ष्मी को अनार के फल का भोग लगाएं। बाद यहां बताए जा रहे श्रीसूक्त के 3विशेष मंत्रों का स्मरण करें।

माता लक्ष्मी की संक्षिप्त पूजा के बाद माता लक्ष्मी के ऋग्वेद में बताए श्रीसूक्त केइन 3 मंत्रों को बोलें या जानकारी न होने पर किसी विद्वान ब्राह्मण से पूरे श्रीसूक्तका ही पाठ कराएं और सुनें। श्रीसूक्त के मंत्रों का अलग-अलग पाठ भी शुभ फल हीदेता है-

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु ते।।

अश्वदायै गोदायै धनदायै महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे।।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।

माता के चरणों में फूल-अक्षत करने के साथ लाल चंदन, अक्षत, लाल वस्त्र, गुलाव के फूलों की माला चढ़ाकर कमलगट्टे की माला या तुलसी की माला से नीचे लिखे विशेष लक्ष्मी मंत्र का जप करें-
ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ॐ नम:।

पूजा व मंत्र जप के बाद माता को दूध से बनी मिठाई का भोग लगाएं।
घी के पांच बत्तियों वाले दीप से आरती कर देवी से सुख-वैभव की कामना करें।

Thursday, April 09, 2015

मीराबाई।

मीराबाई।
मीराबाई (१५०४-१५५८) कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवियित्री हैं। उनका जन्म १५०४ ईस्वी में जोधपुर के पास मेड्ता ग्राम मे हुआ था। कुड्की में मीरा बाई का ननिहाल था। उनके पिता का नाम रत्नसिंह था। उनके पति कुंवर भोजराज उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हे पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरां इसके लिए तैयार नही हुई। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और तीर्थाटन को निकल गईं। वे बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं। जहाँ संवत १५५८ ईस्वी में वो भगवान कृष्ण कि मूर्ति मे समा गई। मीरा बाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है।

कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री हैं। उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रती एक गहरी टीस है, जो भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो गयी है। मीरांबाई का जन्म संवत् 1504 में जोधपुर में कुरकी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं विवाह के थोड़े ही दिन के बाद उनके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीरांबाईका कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उनको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।

Tuesday, April 07, 2015

दशावतार वन्दना।


दशावतार वन्दना।
नमो मत्स्याय देवाय कूर्मदेवाय वै नमः। नमो वाराहदेवाय नरसिंहाय वै नमः॥
वामनाय नमस्तुभ्यं परशुरामाय ते नमः। नमोSस्तु रामदेवाय विष्णुदेवाय ते नमः॥
नमोSस्तु बुद्धदेवाय कल्कि च नमो नमः। नमः सर्वात्मने तुभ्यं शिरसेत्य भिपूजयेत्॥

मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि-ये दस अवतार धारण करनेवाले आप सर्वात्मा को मैं मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ।

Monday, April 06, 2015

भक्त ध्रुव।

भक्त ध्रुव।
राजा उत्तानपाद ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु के पुत्र थे। उनकी सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। उन्हें सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र हुए। रानी सुनीति ध्रुव के साथ-साथ उत्तम को भी अपना पुत्र मानती थीं, लेकिन रानी सुरुचि ध्रुव और सुनीति से ईर्ष्या और घृणा करती थीं। वो उन्हें नीचा दिखाने के अवसर ढूंढ़ती रहती थी। एक बार उत्तानपाद उत्तम को गोद में लिए प्यार कर रहे थे। तभी ध्रुव भी वहां आ गया।

उत्तम को पिता की गोद में बैठा देखकर वह भी उनकी गोद में जा बैठा। यह देखकर रानी सुनीति ने ध्रुव को पिता की गोद से नीचे खींचकर कड़वी बातें कहीं। ध्रुव रोते हुए अपनी माता रानी सुनीति के पास गया और सब कुछ बता दिया। वह उसे समझाते हुए बोली भले ही कोई तुम्हारा अपमान करें, लेकिन तुम कभी अपने मन में दूसरों के लिए अमंगल की इच्छा मत करना। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। यदि तुम पिता की गोद में बैठना चाहते हो तो भगवान विष्णु की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो।

उनकी कृपा से ही तुम्हारे पितामह स्वयंभू मनु को दुर्लभ लौकिक और अलौकिक सुख भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसलिए तुम भी उनकी आराधना में लग जाओ। केवल वे ही तुम्हारे दुःखों को दूर कर सकते हैं। सुनीति की बात सुनकर ध्रुव के मन में श्रीविष्णु के लिए भक्ति और श्रद्धा के भाव पैदा हो गए। वह घर त्यागकर वन की ओर चल पड़ा। भगवान विष्णु की कृपा से वन में उसे देवर्षि नारद दिखाई दिए। उन्होंने ध्रुव को श्रीविष्णु की पूजा-आराधना की विधि बताई। ध्रुव ने यमुना के जल में स्नान किया और निराहार रहकर एकाग्र मन से श्रीविष्णु की आराधना करने लगा। पांच महीने बीतने के बाद वह पैर के एक अंगूठे पर स्थिर होकर तपस्या करने लगा। धीरे-धीरे उसका तेज बढ़ता गया। उसके तप से तीनों लोक कंपायमान हो उठे। जब उसके अंगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी, तब भगवान विष्णु भक्त ध्रुव के समक्ष प्रकट हुए और उसकी इच्छा पूछी।

ध्रुव भाव-विभोर होकर बोला-भगवन जब मेरी माता सुरुचि ने अपमानजनक शब्द कहकर मुझे पिता की गोद से उतार दिया था, तब माता सुनीति के कहने पर मैंने मन-ही-मन यह निश्चय किया था कि जो परब्रह्म भगवान श्रीविष्णु इस सम्पूर्ण जगत के पिता हैं, जिनके लिए सभी जीव एक समान हैं, अब मैं केवल उनकी गोद में बैठूंगा। इसलिए यदि आप खुश होकर मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे अपनी गोद में स्थान दें।जिससे कि मुझे उस स्थान से कोई भी उतार न सके। मेरी केवल इतनी सी अभिलाषा है। भगवान श्रीविष्णु बोले- तुमने केवल मेरा स्नेह पाने के लिए इतना कठोर तप किया है। इसलिए तुम्हारी निःस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें ऐसा स्थान प्रदान करूंगा, जिसे आज तक कोई प्राप्त नहीं कर सका। यह ब्रह्मांड मेरा अंश और आकाश मेरी गोद है। मैं तुम्हें अपनी गोद में स्थान प्रदान करता हूं। आज से तुम ध्रुव नामक तारे के रूप में स्थापित होकर ब्रह्मांड में हमेशा प्रकाशमान रहोगे।

Saturday, April 04, 2015

हनुमान जयंती।

हनुमान जयंती।
हनुमान परमेश्वर की भक्ति (हिंदू धर्म में भगवान की भक्ति) की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान हैं। वह कुछ विचारों के अनुसार भगवान शिवजी के ११वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि थी, जैसा कि रामायण में वर्णित है, बंदरों की सेना के अग्रणी के रूप में राक्षस राजा रावण से लड़ाई। ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे हुआ था।

इन्हें बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि इनका शरीर एक वज्र की तरह था। हनुमान पवन-पुत्र के रूप में जाने जाते हैं| वायु अथवा पवन (हवा के देवता) ने हनुमान को पालने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

मारुत (संस्कृत: मरुत्) का अर्थ हवा है। नंदन का अर्थ बेटा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार हनुमान "मारुति" अर्थात "मरुत-नंदन" (हवा का बेटा) हैं।

रामायण के अनुसार वे जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमानजी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमानजी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।

Friday, April 03, 2015

अंकोरवाट मंदिर।


अंकोरवाट मंदिर।
कम्बोडिया का अंकोरवाट मंदिर का इतिहास व रहस्य-
यह विश्व के विशालतम् मन्दिरों मे से एक अनुठा मंदिर है। कम्बोडिया मै भगवान विष्णु जी का यह
मंदिर सन् 702 ई० मै राजा सुमेर वरमन व यशोवरमन ने 36 साल 204 दिन मै बनवाया था।
मिनाग नदी के तट पर बना यह मंदिर चोल शासको की देन है जो भगवान विष्णु की पूजा
करते थे। इस मंदिर को यमलोक का दरवाजा भी कहते है। इस मंदिर के चारो तरफ 82 फुट
चौड़ी व 702 फीट गहरी खाई है जो गिरा वह काल के मूह मै समा गया। मंदिर पर जाने के लिये
फाटक का इस्तेमाल होता है। गहरी खाई पानी से लबालब पानी से भरा होता है। इस खाई मै
अनगिनत मगरमच्छ व जहरीले नाग अजगर रहते है। चोल शैली बना यह मंदिर की उचाँई 76 मीटर
है। जो विश्व का इतनी उचाँई वाला एकमात्र मंदिर है। अकोरवाट का पुराना नाम यशोधरपुर था बाद
मै यहाँ के शासक अकंरवट ने इसका नाम सन् 1102 ई० मै अकोरवाट रख दिया। अकोरवाट का
मंदिर देखने लायक है पर जाना पड़ता है सभलकर।

Thursday, April 02, 2015

महावीर स्वामी।

महावीर स्वामी।
महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था| महावीर को 'वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है।

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया, पूरी दुनिया को उपदेश दिए।

उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है| महावीर ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया।

Wednesday, April 01, 2015

श्री हनुमान जयंती महोत्सव।


प्रिय धर्म प्रेमी बन्धुओं,
आपको जानकर परम हर्ष होगा की हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी श्री वीर हनुमान मन्दिर में श्री हनुमान जयंती महोत्सव का आयोजन शनिवार, 4 अप्रेल 2015 को होने जा रहा है। अतः सभी भक्त जनों से निवेदन है कि अधिक से अधिक संख्या में पधारकर श्री वीर हनुमान के दर्शन कर लाभ उठावें। इस मांगलिक अवसर पर आपसे सपरिवार इष्टन मित्रों सहित पधारने का हार्दिक आग्रह हैं। आपकी उपस्थिती हमारे उत्साह को द्विगुणित करेगी।

हनुमान गायत्री मंत्र।


हनुमान गायत्री मंत्र।
हिन्दू धर्म में भरपूर ज्ञान, ऊर्जा, बल व पुरुषार्थ के जरिए सेहत और सफल जीवन पाने के लिए जगतजननी गायत्री की उपासना का महत्व बताया गया है। ज्ञान शक्ति स्वरूप वेदों की माता, गायत्री 24 देवशक्तियों के रूप में जीवन से जुड़े अलग-अलग लक्ष्यों को पाने की राह आसान बनाती है।

इन गायत्री शक्तियों में श्री हनुमान भी एक हैं। श्री हनुमान शक्ति, संयम और पुरुषार्थ के प्रतीक हैं जिनकी उपासना हर तरह से सबल और सफल बनाने वाली मानी गई है। मंगलवार, शनिवार या पूर्णिमा श्री हनुमान भक्ति का विशेष दिन है।

यही कारण है कि मंगलवार को हनुमान की विशेष गायत्री मंत्र से उपासना यश, धन व सफलता की हर कामना सिद्ध करने वाली मानी गई है। जानिए, यह आसान व अचूक हनुमान गायत्री मंत्र –

सुबह व शाम स्नान के बाद पवित्र भावों के साथ श्री हनुमान की सिंदूर प्रतिमा पर सिंदूर व चमेली के तेल से चोला चढ़ाएं।
श्री हनुमान को लाल चंदन, लाल फूल, जनेऊ व श्रीफल यानी नारियल चढ़ाएं। गुड़-चने या गुड़ के पकवानों का भोग लगाएं।
धूप व दीप जलाकर लाल आसन पर श्री हनुमान की प्रतिमा की ओर मुख कर बैठें व चंदन या रुद्राक्ष की माला से नीचे लिखे हनुमान गायत्री मंत्र का स्मरण, सुख-ऐश्वर्य व अनिष्ट शांति की कामना से कम से कम 108 बार करें –
ॐ अंजनीसुताय विद्महे,
वायुपुत्राय धीमहि,
तन्नो मारुति: प्रचोदयात्।।