ध्यान साधना क्या है?
हमारे समक्ष प्रश्न है: ध्यान साधना क्या है? ध्यान साधना और अधिक हितकारी मनोदशा या रवैया विकसित करने के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाने की विधि है। यह उद्देश्य बारंबार एक निश्चित प्रकार की मनोदशा विकसित करके स्वयं को उसमें ढाल कर उसे अपना स्वभाव बनाने का यत्न करके हासिल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि ऐसी बहुत सी मनोदशाएं और रवैये हो सकते हैं जो हितकारी है। एक मनोदशा ऐसी हो सकती है जिसमें व्यक्ति अधिक निश्चिंत, तनाव रहित, अपेक्षाकृत कम चिन्तित हो सकता है; एक अन्य मनोदशा में व्यक्ति अधिक ध्यान केन्द्रित, या किसी अन्य मनोदशा में अधिक शांत, अनवरत अनर्गल विचारों तथा मानसिक चिन्ता से मुक्त हो सकता है। इनसे भी अलग एक ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति को अधिक आत्मज्ञान, जीवन का बोध आदि हो सकते हैं; या कोई ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति और अधिक प्रेम और करुणा का भाव हो। इस प्रकार हम ध्यान साधना के माध्यम से अनेक प्रकार की हितकारी मनोदशाएं विकसित कर सकते हैं।
चित्त को स्थिर करना-
ध्यान साधना की एक विधि यह है कि चित्त को स्थिर किया जाए ताकि चित्त की और अधिक सहज अवस्था में पहुँच सकें। अपने चित्त को स्थिर करके हमारा उद्देश्य एक ऐसी चित्तवृत्ति विकसित करना होता है जहाँ हमारा चित्त निर्मल और सचेत हो, एक ऐसी चित्तवृत्ति जिसमें हम प्रेम और उदारता का भाव विकसित कर सकें, या अपने अन्दर के उस मानवीय मित्रभाव को प्रकट कर सकें जो हमारे अन्दर सहज रूप से विद्यमान है। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को पूर्णतः तनावमुक्त होना चाहिए ─ यह केवल शरीर के स्नायुओं की तनाव मुक्ति की बात नहीं है, यद्यपि वह भी आवश्यक है, बल्कि उस मानसिक और भावनात्मक तनाव तथा खिंचाव से मुक्ति का प्रश्न है जो हमें किसी भी प्रकार की संवेदना को ग्रहण करने से रोकता है ─ विशेषतः जो हमें सहज मित्रभाव और चित्त की निर्मलता का अनुभव करने से रोकता है।
किन्तु यदि हमारा चित्त अधिक स्थिर, शांत, निर्मल और उदार हो तो हम उसका उपयोग रचनात्मक ढंग से कर सकते हैं। ऐसा चित्त हमारे दैनिक जीवन में तो सहायक हो ही सकता है, साथ ही हम इसका उपयोग ध्यान की मुद्रा में बैठ कर अपने जीवन की परिस्थितियों को और बेहतर ढंग से समझने के लिए कर सकते हैं। व्यवधान उत्पन्न करने वाले मनोभावों और विषयेतर विचारों से मुक्त चित्त की सहायता से हम महत्वपूर्ण विषयों पर अधिक स्पष्टता से चिन्तन कर सकते हैं। हमारा चित्त शांत और स्थिर होना चाहिए। ध्यान साधना वह साधन है जो हमें इस अवस्था तक पहुँचाने की क्षमता रखता है।
सहायक स्थितियाँ-
ध्यान साधना के लिए स्थितियों का सहायक होना भी निश्चित रूप से आवश्यक होता है। कुछ लोग समझते हैं कि सहायक स्थिति, यदि कहा जाए तो, किसी “हॉलीवुड मंच-सज्जा” के जैसी होनी चाहिए। लोग सोचते हैं कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए मोमबत्तियों, विशेष प्रकार के संगीत और लोबान की आवश्यकता होगी; उन्हें लगता है कि उनके लिए पूरा हॉलीवुड का फिल्म-सेट तैयार किया जाना चाहिए। यदि आप इस प्रकार का वातावरण चाहते हैं तो ठीक है; लेकिन ऐसा करना निश्चित तौर पर आवश्यक नहीं है। सामान्यतया जहाँ आप ध्यान साधना करने वाले हों उस कमरे को साफ किया जाता है। कमरे को व्यवस्थित कर लें; कपड़े फर्श पर न बिखरे हों, आदि। यदि हमारे आस-पास का वातावरण व्यवस्थित हो तो वह चित्त को व्यवस्थित रखने में सहायक होता है। यदि वातावरण अव्यवस्थित हो तो वह हमारे चित्त पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
विशेष तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में यदि हमारे आस-पास का वातावरण शांतिपूर्ण हो तो यह बहुत सहायक सिद्ध होता है। बौद्ध परम्परा में ध्यान लगाने के लिए संगीत का प्रयोग निश्चित तौर पर नहीं किया जाता है। संगीत एक बाह्य स्रोत है जिसका प्रयोग हम स्वयं को शांत रखने की दृष्टि से करते हैं। किन्तु शांतचित्तता के किसी बाहरी स्रोत पर निर्भर होने के बजाए हम आन्तरिक शांति को विकसित करने में सक्षम होना चाहते हैं। इसके अलावा, संगीत का प्रभाव सम्मोहक हो सकता है, और हम स्तम्भित नहीं होना चाहते हैं। हमें अपने आप को किसी शामक प्रभाव से शांत करने की आवश्यकता नहीं है, जैसे हम किसी दंत चिकित्सक के प्रतीक्षालय में हों और हमें शांत बनाए रखने के लिए वहाँ धीमा संगीत बजाया जा रहा हो। ध्यान साधना के लिए यह कोई अच्छा वातावरण नहीं है।
जहाँ तक ध्यान साधना की मुद्रा का प्रश्न है, यदि हम विभिन्न एशियाई परम्पराओं को देखें, तो ध्यान साधना के लिए बैठने की विभिन्न विधियाँ प्रचलित हैं। तिब्बती और भारतीय लोग पालथी मार कर बैठते हैं; जापानी लोग पैरों को पीछे की ओर अपने नीचे दबाकर घुटनों के बल बैठते हैं; थाइलैंड के लोग अपने दोनों पैर एक और मोड़ कर बैठते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बैठने की मुद्रा आरामदेह होनी चाहिए। यदि आपको लगता है कि आपको कुर्सी पर बैठना चाहिए, तो वह भी ठीक है। ध्यान साधना के बहुत उन्नत स्तर के अभ्यासों में जब हम शरीर के ऊर्जा तंत्रों का अभ्यास करते हैं तब मुद्रा महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन सामान्यतया हमें किसी भी स्थिति में ध्यान साधना कर पाने योग्य होना चाहिए। हो सकता है कि आपको किसी गद्दी पर पालथी मार कर बैठने की आदत हो, लेकिन यदि आप किसी विमान में हों या रेल में सफ़र कर रहे हों और पालथी मार कर बैठ पाना सम्भव न हो, तो आप अपनी सीट पर सामान्य स्थिति में बैठे हुए ही ध्यान साधना कर सकते हैं।
कम अनुभव वाले ध्यान साधकों के लिए यह विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है कि उनके आस-पास का वातावरण शांत हो। हममें से बहुत से लोगों के लिए, विशेष तौर पर शहरों में रहने वाले लोगों के लिए, शांतिपूर्ण स्थानों की तलाश आसान नहीं होती है। इसलिए बहुत से लोग तड़के सुबह या देर रात के समय ध्यान साधना करते हैं जब शोर अपेक्षाकृत कम होता है। धीरे-धीरे जब हम इस दिशा में काफ़ी आगे बढ़ जाते हैं तो शोर हमें विचलित नहीं करता है; लेकिन शुरुआत में बाहर का कोलाहल बहुत जल्दी हमारा ध्यान भंग कर सकता है।
श्वास पर ध्यान केन्द्रित करना-
बहुत से लोग जानना चाहते हैं: मैं ध्यान साधना का अभ्यास कैसे शुरू करूँ? बहुत सी परम्पराओं में अधिकांश साधक ध्यान साधना की शुरुआत श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके करते हैं। श्वास पर ध्यान साधते समय आप सामान्य ढंग से श्वास लीजिए: न बहुत तेज़, न बहुत धीरे; न बहुत गहरा, और न ही बहुत हल्का। सिर्फ़ नाक से सामान्य ढंग से श्वास लीजिए। बहुत तेज़, गहरा श्वास बिल्कुल नहीं लेना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से आपको ज़ोर से चक्कर आ सकते हैं और उससे आपका कोई हित नहीं होगा।
श्वास को साधते समय आप दो स्थानों पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं: या तो नासिका के अन्दर जाते और बाहर निकलते श्वास की अनुभूति पर; या फिर श्वास-प्रश्वास के कारण पेट के फूलने और पिचकने की अनुभूति पर। यदि आपका चित्त बहुत अधिक भटक रहा हो जिसे हम अंग्रेज़ी भाषा में ‘स्पेस्ड आउट’ होना कहते हैं या कल्पना की उड़ान भर रहा हो, तो ऐसी स्थिति में पेट के नाभि के आस-पास के अन्दर की ओर दबने और फिर बाहर की ओर फूलने वाले भाग पर ध्यान केन्द्रित करना स्वयं को ध्यान साधना में पुनःस्थापित करने में सहायक होता है। वहीं दूसरी ओर यदि आपको बहुत नींद या थकान अनुभव हो, तो नासिका के भीतर जाते और उससे बाहर आते श्वास पर ध्यान केन्द्रित करने से ऊर्जा का स्तर बढ़ाने में सहायता मिलती है।
दूसरों के प्रति प्रेम भाव जाग्रत करना-
एक बार जब हम श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके अपने चित्त को शांत कर लेते हैं, तो फिर हम चित्त की शांत और सचेतन अवस्था का आगे की साधना के लिए उपयोग कर सकते हैं। हम इसका उपयोग हम अपनी भावनात्मक अवस्था के प्रति और अधिक जागरूक होने के लिए कर सकते हैं। प्रेम भाव जाग्रत करने के लिए स्वयं को प्रेम की अवस्था तक ले जाना पड़ता है। शुरुआत के तौर पर आप इस प्रकार विचार करें: “मैं सभी से प्रेम करता हूँ”, और फिर वास्तविकता में ऐसा अनुभव करें। इस प्रकार के विचार के पीछे कोई शक्ति नहीं लगाई गई है। इस प्रकार से आप अपने आप में एक प्रकार का प्रेम भाव जाग्रत करते हैं,यथा: “सभी जीव आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं; यहाँ हम सभी एक साथ हैं। सभी समान हैं: हम सभी आनन्दित रहना चाहते हैं, कोई भी दुखी नहीं रहना चाहता है; सभी चाहते हैं कि उन्हें पसन्द किया जाए, कोई नहीं चाहता कि उसे पसन्द न किया जाए या उसकी उपेक्षा की जाए। सभी जीव मुझ जैसे ही हैं।“
और चूँकि हम सभी यहाँ एकत्र हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, तो प्रेम का भाव कुछ इस प्रकार का होगा: “सभी सुखी हों और सभी को आनन्दित होने के लिए कारण मिलें। सभी सुखी हों, किसी को भी कोई समस्या न हो तो कितना अच्छा हो।“ स्वयं को चित्त की इस अवस्था में ला कर और हृदय में इस प्रकार का प्रेम जागृत करके हम कल्पना करते हैं कि हमारे भीतर से एक स्नेहपूर्ण, सूर्य के समान पीला प्रकाश उत्पन्न हो रहा है जो सभी के लिए प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हमारा ध्यान भटकता है, तो हम उसे इस भावना पर पुनः केन्द्रित कर सकते हैं: “सर्वे भवन्तु सुखिनः।“
जय श्री महाकाल...
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