Saturday, August 08, 2015

सृष्टि की उत्पत्ति।




सृष्टि की उत्पत्ति।
सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था, न सूर्य दिखाई देते थे न चन्द्रमा, अन्य ग्रह नक्षत्रों का भी कहीं पता नही था। न दिन होता था न रात। अग्नि, पृथ्वी, जल और वायु की भी सत्ता नही थी। उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म अर्थात् सदाशिव ही की ही सत्ता और विद्यमान थी, जो अनादि और चिन्मय कही जाती है। उन्हीं भगवान सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत महात्मा आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। एक बार भगवान शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा किमैं एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये। जिसके कंधे पर सृष्टि-संचालन का महान भार रखकर हम आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भाग पर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सत्त्वगुण की प्रधानता थी। वह परम शान्त तथा अथाह सागर की तरह गम्भीर था।  रेशमी पीताम्बर से उसके अंग की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उसके चार हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे थे।
उस दिव्य पुरुष ने भगवान शिव को प्रणाम करके कहा कि 'भगवन! मेरा नाम निश्चित किजिये और कामबताइये' उसकी बात सुनकर भगवान शंकर ने मुसकुराकर कहा - 'वत्स! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्यहोगा. इस समय तुम उत्तम तप करो'। भगवान शिव का आदेश प्राप्तकर श्रीविष्णुकठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम उनके अंगों से जल - धारायेंनिकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जल में शयनकिया। जल अर्थात् 'नार' में शयन करने के कारण ही श्रीविष्णु का एक नाम 'नारायण' हुआ।

तदन्तर सोये हुये नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर ड़ाल दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्माजी उस कमल के नाल में भ्रमण करते रहें किंतु उन्हें अपने उत्पत्तिकर्ता का पता नही लगा। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने परब्रह्माजी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात् उनके सन्मुख भगवान विष्णु प्रकट हुये। पर्मेश्वर शिव की लीला सेउस समय वहाँ श्रीविष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। सहसा उन दोनों के मध्य एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ और बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्निस्तम्भ के आदि - अन्त का पता नहीं लगा सके। अंततः थककर भगवान विष्णु ने प्रार्थना किया कि 'महाप्रभो ! हम आपके स्वरुपों को नही जानते। आप जो कोई भी हों, हमें दर्शन दीजिये'।
भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गये और बोले- 'सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभांति संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन्! तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु! तुम इस चराचर जगत का पालन करो। तदन्तर शिव ने अपने हृदयभाग से रुद्र को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर वहीं अंतर्धान हो गये।

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