श्याम भक्ति।
'थाली भर कर ल्याई रे खीचड़ो ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्हारा श्याम घणी जिमावै छोरी जाट की।।'
उक्त भजन आपने कई बार सुना ही होगा। भक्त शिरोमणि कर्मा बाई का बखान करते हुए राजस्थान के गॉवों व नगरों की चौपलों पर यह भजन गाया जाता है। कर्मा बाई मारवाड की मीरा थी। अपनी श्रध्दा और भक्ति के बल पर श्रीकृष्ण के उन्होने साक्षात दर्शन किये । उनका जीवन अत्यंत प्ररेणादायक है तथा बताता है कि यदि मन में श्रध्दा हो, दृढ़ संकल्प हो, मजबूत इच्छा शक्ति हो तो असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है । नागौर जिले की मकराना तहसील में एक गाँव है कालवा। यह बोरावाड़ कस्बे से पांच कि॰मी॰ दूर नागौर रोड़ पर है। इसी गांव में जीवनराम डूड़ी के घर चार सौ साल पहले विक्रमी 1671 की श्रावण कृष्ण व्दादशी (युगाब्द 4716 सन् 1614) को एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। काफी जप-तप करने के बाद हुई इस कन्या का नाम कर्मा रखा गया। करमा के जन्म पर पूरे गांव में मंगल गीत गाये गये। बाल्यकाल से ही कर्मा के चेहरे पर एक अनूठी आभा दिखाई पड़ती थी। अकेली होने से वह घर की लाड़ली थी, पर खेल-कूद के स्थान पर घर के एकान्त में वह पालथी मार कर बैठ जाती और चारभुजा नाथ को निहारती रहती। जीवनराम का घर कालवा के चारभुजा नाथ मंदिर में ही था और घर के आंगन से मंदिर में स्थित भगवान की मूर्ति साफ दिखाई देती थी। भगवान की सेवा-पूजा का काम जीवनराम डूडी ही करते थे।
कर्मा अब तेरह साल की हो गई। जीवनराम को कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के लिये तीर्थराज पुष्कर जाना था। कर्मा की मां को भी इस बार पुष्कार स्नान करना था। कर्मा बड़ी हो गई थी, इसलिये मंदिर में भगवान की ठीक से सेवा-पूजा का काम उन्होंने उसे ही बताया। जाते समय उन्होंने कहा -बेटी स्नान ध्यान कर भगवान को भोग लगा कर ही कुछ खाना। चार भुजा नाथ की सेवा में कमी मत रखना। बाबा और मां के जाने के बाद दूसरे दिन सुबह करमा ने स्नान कर बाजरे का खीचड़ा बनाया और उसमें खूब घी डाल कर थाली को भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया। हाथ जोड़ कर उसने चारभुजानाथ से कहा-प्रभु भूख लगे तब खा लेना, तब तक मैं और काम निपटा लेती हॅू। कर्मा घर का काम करने लगी। बीच-बीच में देख लेती थी कि प्रभु ने खीचड़ा खाया कि नहीं। थाली वैसी की वैसी देख कर उसे चिंता होने लगी कि आज भगवान भोग क्यों नही लगा रहे? कुछ सोच कर उसने खीचड़े में थोड़ा गुड़ व घी और मिलाया तथा वहीं बैठ गई। भगवान से वह कहने लगी- प्रभु तुम भोग लगा लो, बाबा पुष्कर गये हैं, आज वे नहीं आयेंगे। मुझको भोग लगाने को कह गये हैं, सो खीचड़ो जीम लो, तुम्हारे खाने के बाद मैं भी खाऊंगी। परन्तु, थाली फिर भी भरी की भरी रही। अब कर्मा शिकायत करने लगी -प्रभु बाबा भोग लगाते हैं तो कुछ समय में ही जीम लेते हो और आज इतनी देर कर दी। खुद भी भूखे बैठे हो और मुझको भी भूखा मार रहे हो। कर्मा ने थोड़ा इंतजार और किया पर खीचड़ा वैसा का वैसा ही रहा। अब तो कर्मा को क्रोध आ गया और वह बोली - प्रभु मैंने कहा ना, बाबा आज नही आयेंगे। तुमको मेरे हाथ का ही खीचड़ा खाना है। जीम लो, वरना मैं भी भूखी रहॅूगी, चाहे प्राण ही क्यों न निकल जायें। दोपहर ढल गयी, तीसरा पहर भी ढलने लगा तो कर्मा गुस्से में उठ खड़ी हुई और गर्भ-गृह के खम्भे पर अपना सर मारने लगी। उसी समय एक आवाज आई - ठहर जा कर्मा, तुने परदा तो किया ही नहीं, खुले में मैं भोग कैसे लगाऊँ? यह सुनकर कर्मा ने अपनी ओढ़नी की ओट कर दी और बोली-प्रभु इतनी सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भुखे रहे और मुझको भी भूखा मार दिया। कर्मा ने ऑखें खोली तो पाया कि थाली पूरी खाली हो गई। उसने संतोष की सांस ली और खुद ने भी खीचड़ा खाया। अब तो हर रोज यही क्रम चलने लगा।
कुछ दिनों के बाद बाबा पुष्कर से घर लौट आये। घर आकर उन्होंने देखा की घी और गुड़ खत्म होने वाला ही था। उन्होंने कर्मा से पूछा कि पूरा मटका भरा घी और सारा गुड़ कहॉ गया? कर्मा ने भोलेपन से जवाब दिया- बाबा तेरो चारभुजा नाथ रो थाली भर के खीचड़ा खा जाते हैं। पहले दिन तो मैं बहुत परेशान हुई। प्रभु का परदा नहीं किया तो उन्होंने भोग ही नहीं लगाया। तुमने मुझको बताया क्यों नहीं कि परदा करने पर ही ठाकुर जी जीमते हैं। जब मैंने परदा किया तो प्रभु पूरी थाली साफ कर गये। जीवनराम चिन्ता में पड़ गये कि बेटी कहीं पगला तो नहीं गई है। फिर सोचा कि शायद सारा घी-गुड़ कर्मा खुद ही खा गई। पर कर्मा अड़ी रही कि घी-गुड़ ठाकुर जी ने ही खाया है। इस पर बाबा ने कहा-ठीक हैं बेटी कल भी तू ही भोग लगाना, प्रभु जीमेंगे तो मैं भी दर्शन कर लूंगा। कर्मा समझ गई कि बाबा उस पर शक कर रहे हैं। दूसरे दिन उसने फिर खीचड़ा बनाया और थाली भर कर ठाकुर जी के सामने रख दिया। चारभुजा नाथ के सामने परदा कर वह कहने लगी- प्रभु, बाबा मुझको झूठी समझ रहे हैं। रोज की तरह भोग लगाओ। बाबा का शक दूर करो, वरना मैं यहीं प्राण त्याग दॅूगी। कहते है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जीवनराम को दिव्य दृष्टि दी और दोनों पिता-पुञी के सामने खीचड़े का भोग लगाया। प्रभु के दर्शन कर जीवनराम का जीवन धन्य हो गया। भक्ति विभोर हो जीवनराम नाचने लगे और चारभुजानाथ तथा कर्मा के जयकारे लगाने लगे। जयकारे सुन कर गांव के लोग भी मंदिर में आ गये और कर्मा बाई का जय-कारा करने लगे। उसी दिन से भक्त शिरोमणि के रूप में उनकी प्रसिध्दि हो गई। अपने अंतिम समय में कर्मा जगन्नाथपुरी में रहीं। वहॉ भी वे प्रतिदिन श्रीकृष्ण के प्रतिरूप भगवान जगन्नाथ को खीचड़े का भोग लगाती थीं। आज भी पुरी के जगत्प्रसिध्द मंदिर में प्रतिदिन ठाकुर जी को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है।
जय श्री श्याम…
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