कच देवयानी।
देव और दानवों में सदा युद्ध छिड़ा रहता था। दैत्य देवों से सहजोर पड़ते थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी, एक और भी कारण था। दैत्यों के पूज्य गुरुशुक्राचार्य मुर्दे को जीवित कर देने वाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे। यद्यपि देवता अमर थे और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख घबरा गये थे।
शुक्राचार्य की सेवा- देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा। श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने रूपवान, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा। कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये। आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी और उसे हृदय से प्यार करने लगी। जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये। उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया। पर आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया। और एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला।
कच और संजीवनी विद्या- जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया। असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह प्रति बार बचता रहा। अन्त में कच को मार कर उसको भोजन रूप में शुक्राचार्य को खिला दिया। अब कच को जीवित करने का एक ही उपाय था कि शुक्राचार्य की मृत्यु। शुक्राचार्य समझ गये कि कच का प्रयोजन संजीवनी विद्या सीखना ही है। शुक्राचार्य ने मन मार कर कच को जीवित किया और विद्या सिखाई फिर उनका पेट फाड़ कर कच निकला और कच ने शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य ने कच को श्राप दिया कि इस विद्या का प्रयोग वह नहीं कर पायेगा। कच ने कहा कि वह दूसरों को सिखा देगा।
विद्या दान- अध्ययन समाप्त हो चुका था। गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर विदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया। देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, और उस समय लाज के परदे में ढका हुआ, कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया। परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया। इससे देवयानी को क्रोध हुआ। कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी, पर कच अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था, पुनश्चः देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना। देवयानी ने कच के दिल की सच्चाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया, उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये। कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे। अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया।
देव और दानवों में सदा युद्ध छिड़ा रहता था। दैत्य देवों से सहजोर पड़ते थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी, एक और भी कारण था। दैत्यों के पूज्य गुरुशुक्राचार्य मुर्दे को जीवित कर देने वाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे। यद्यपि देवता अमर थे और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख घबरा गये थे।
शुक्राचार्य की सेवा- देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा। श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने रूपवान, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा। कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये। आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी और उसे हृदय से प्यार करने लगी। जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये। उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया। पर आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया। और एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला।
कच और संजीवनी विद्या- जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया। असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह प्रति बार बचता रहा। अन्त में कच को मार कर उसको भोजन रूप में शुक्राचार्य को खिला दिया। अब कच को जीवित करने का एक ही उपाय था कि शुक्राचार्य की मृत्यु। शुक्राचार्य समझ गये कि कच का प्रयोजन संजीवनी विद्या सीखना ही है। शुक्राचार्य ने मन मार कर कच को जीवित किया और विद्या सिखाई फिर उनका पेट फाड़ कर कच निकला और कच ने शुक्राचार्य को जीवित किया। शुक्राचार्य ने कच को श्राप दिया कि इस विद्या का प्रयोग वह नहीं कर पायेगा। कच ने कहा कि वह दूसरों को सिखा देगा।
विद्या दान- अध्ययन समाप्त हो चुका था। गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर विदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया। देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, और उस समय लाज के परदे में ढका हुआ, कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया। परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया। इससे देवयानी को क्रोध हुआ। कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी, पर कच अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था, पुनश्चः देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना। देवयानी ने कच के दिल की सच्चाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया, उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये। कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे। अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया।
जय श्री हरि:
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