Sunday, September 13, 2015

उपासना का फल।


उपासना का फल।
न घ्रं स्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानुः।
आपश्चिदस्मै घृतमित् क्षरन्ति यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम्।।
अथर्व0 ७\१८/२

शब्दार्थ - भगवद्भक्त को, उपासक को ग्रीष्मकाल का प्रचंड सूर्य नहीं तपाता हिम, पाला, सर्दी उसे पीड़ित नहीं करती। यह पृथ्वी जीवन देनेवाली बनकर उसके ऊपर सुखों की वृष्टि करती है जलधाराएं भी इसके लिए घृत की धाराएं बनकर सुख की वृष्टि करती हैं। जहाँ प्रभु का प्रेमरस होता हैं वहाँ सदा ही कल्याण होता हैं।

भावार्थ – वेद मे ईश्वर को 'वृष' कहा गया है। वह मेघ बनकर सुखों की वृष्टि करता है। जब भक्त पर प्रभु-कृपाओं की वृष्टि होने लगती है- ग्रर्मी और सर्दी उसे नहीं सताती। पृथ्वी उसके लिए सुखों की वृष्टि करने लग जाती है। उसे संसार में किसी वस्तुओं का अभाव नहीं रहता। उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती है। जलधाराएं भी उसके उपर सुखों की वृष्टि करती है। जहां प्रभू का मधुर-प्रेमरस बहता है, वहां तो सदा कल्याण-ही-कल्याण है, अपकल्याण तो वहां हो ही नहीं सकता। संसार के लोगों! यदि संसार के ताप से, संसार के थपेड़ों से बचना चाहते हो, यदि सुख और आनन्द की अभिलाषा है, यदि कल्याण की कामना है तो अपने-आपको प्रभू के प्रेमरस में लीन कर लो, आप भवसागर से पार उतर जाओगे।

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