जोबनेर ज्वाला माता।
ऐतिहासिक परिचयः-
सुन्दर शैल शिखर पर राजे, मन्दिर ज्वाला माता का।
अनुदिन ही यात्रीगण आते, करने दर्शन माता का।।
इसी भवानी के पद तल में, नगर बसा एक अनुपम सा।
जोबनेर विख्यात नाम से, पद्रेश में सुन्दरतम् सा।।
उतुंग शिखरों से युक्त हरे-भरे त्रिकोणाकार पर्वत की गोद में स्थित ‘जोबनेर’ चन्द्रवंश मुकुटमणि महाराज ययाति द्वारा अपने पुत्र पुरू के यौवनदान की स्मृति में ‘यौवनेर’ के नाम से बसाया था, जो अपभ्रंश होकर जोबनेर के नाम से पुकारे जाने लगा। महाराज ने अपनी दोनों रानियों- देवयानी व शर्मिष्ठा की स्मृति में दो तीर्थ सरोवरों का निर्माण कराया था जो सांभर के सन्निकट अब तक विद्यमान हैं।
जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा जोबनेर ज्वाला माता के मन्दिर के कारण प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक प्रसिद्ध रहा है। पहाड़ की हरिताभा के बीच चांदी सा चमकता हुआ यह मन्दिर दूर से ही दर्शक का मन मोह लेती है।
दक्ष-यज्ञ विध्वंस होने के बाद सती की मृत देह के गलित अंग-प्रत्यंग जिस-जिस स्थान पर गिरे, वे स्थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। सती का जानु (घुटना) यहां गिरने से यह स्थल कामनाप्रद सिद्धपीठ के रूप में पूज्य है।
ज्वाला माता के विग्रह की यह विशिष्टता है कि यह किसी के द्वारा प्रतिष्ठापित नहीं बल्कि प्रस्तर काल में गुफा से स्वत: उद्भूत देवी प्रतिमा का जानु भाग मात्र है। देवी को अपना अंश यहां प्रकट करना अभिष्ट था।
देवी प्रतिमा के जानु मात्र ही प्रकट होने के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती इस प्रकार से प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ग्वाला इस पर्वत पर भेड़-बकरियां चरा रहा था। ज्वाला माता ने वृद्धा का रूप धारण कर उससे कहा कि- ‘‘इस पर्वत में से अभी देवी प्रकट होगी। भीष्ण गर्जना के साथ पर्वत तक हिलने लगेगा। तुम भयभीत हो जाओगे अत: तुरन्त यहां से भाग जाओ।’’ किन्तु ग्वाला माता के शान्त रूप से डरा नहीं और वहीं डटा रहा। इतने में श्वेतावस्त्रा शान्त मातृ रूप अदृश्य हो गया और गम्भीर गर्जना के से दसों दिशाओं को निनादित करता हुआ, पर्वत वक्ष वीदीर्ण कर सिंहवाहिनी देवी को तेजोमय स्वरूप प्रकट हुआ। प्रतिमा के वाम चरण जानु (घुटना) भाग ही बाहर आ पाया था कि उक्त ग्वाला के प्राण पखेरू उड़ने को उद्यत हो गए। प्रकट होने की शुभ बेला में मृत्यु की अशुभ घड़ी के निवारणार्थ देवी ने अपना प्रकट होना रोक लिया एवं प्रकट अंश को स्थिर कर ज्योतिर्मय स्वरूप विलीन हो गया। पर्वत के गर्भद्वार से सटे जानु भाग को मुखाकृति से सुसज्जित कर भक्तगण कृतार्थ हो गए।
ऐतिहासिक परिचयः-
सुन्दर शैल शिखर पर राजे, मन्दिर ज्वाला माता का।
अनुदिन ही यात्रीगण आते, करने दर्शन माता का।।
इसी भवानी के पद तल में, नगर बसा एक अनुपम सा।
जोबनेर विख्यात नाम से, पद्रेश में सुन्दरतम् सा।।
उतुंग शिखरों से युक्त हरे-भरे त्रिकोणाकार पर्वत की गोद में स्थित ‘जोबनेर’ चन्द्रवंश मुकुटमणि महाराज ययाति द्वारा अपने पुत्र पुरू के यौवनदान की स्मृति में ‘यौवनेर’ के नाम से बसाया था, जो अपभ्रंश होकर जोबनेर के नाम से पुकारे जाने लगा। महाराज ने अपनी दोनों रानियों- देवयानी व शर्मिष्ठा की स्मृति में दो तीर्थ सरोवरों का निर्माण कराया था जो सांभर के सन्निकट अब तक विद्यमान हैं।
जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा जोबनेर ज्वाला माता के मन्दिर के कारण प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक प्रसिद्ध रहा है। पहाड़ की हरिताभा के बीच चांदी सा चमकता हुआ यह मन्दिर दूर से ही दर्शक का मन मोह लेती है।
दक्ष-यज्ञ विध्वंस होने के बाद सती की मृत देह के गलित अंग-प्रत्यंग जिस-जिस स्थान पर गिरे, वे स्थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। सती का जानु (घुटना) यहां गिरने से यह स्थल कामनाप्रद सिद्धपीठ के रूप में पूज्य है।
ज्वाला माता के विग्रह की यह विशिष्टता है कि यह किसी के द्वारा प्रतिष्ठापित नहीं बल्कि प्रस्तर काल में गुफा से स्वत: उद्भूत देवी प्रतिमा का जानु भाग मात्र है। देवी को अपना अंश यहां प्रकट करना अभिष्ट था।
देवी प्रतिमा के जानु मात्र ही प्रकट होने के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती इस प्रकार से प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ग्वाला इस पर्वत पर भेड़-बकरियां चरा रहा था। ज्वाला माता ने वृद्धा का रूप धारण कर उससे कहा कि- ‘‘इस पर्वत में से अभी देवी प्रकट होगी। भीष्ण गर्जना के साथ पर्वत तक हिलने लगेगा। तुम भयभीत हो जाओगे अत: तुरन्त यहां से भाग जाओ।’’ किन्तु ग्वाला माता के शान्त रूप से डरा नहीं और वहीं डटा रहा। इतने में श्वेतावस्त्रा शान्त मातृ रूप अदृश्य हो गया और गम्भीर गर्जना के से दसों दिशाओं को निनादित करता हुआ, पर्वत वक्ष वीदीर्ण कर सिंहवाहिनी देवी को तेजोमय स्वरूप प्रकट हुआ। प्रतिमा के वाम चरण जानु (घुटना) भाग ही बाहर आ पाया था कि उक्त ग्वाला के प्राण पखेरू उड़ने को उद्यत हो गए। प्रकट होने की शुभ बेला में मृत्यु की अशुभ घड़ी के निवारणार्थ देवी ने अपना प्रकट होना रोक लिया एवं प्रकट अंश को स्थिर कर ज्योतिर्मय स्वरूप विलीन हो गया। पर्वत के गर्भद्वार से सटे जानु भाग को मुखाकृति से सुसज्जित कर भक्तगण कृतार्थ हो गए।
जय ज्वाला माँ…
ReplyDeleteJain Mata Di
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