Thursday, June 18, 2015

यहां काल का नहीं महाकाल का शासन चलता है।

यहां काल का नहीं महाकाल का शासन चलता है।

उज्जैन मध्य प्रदेश में है। यह मध्य प्रदेश के बीचोबीच बसा है। इस नगर को मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी का दर्जा प्राप्त है। यहां हर गली, हर चौराहे पर एक मंदिर नजर आता है। उज्जैन मंदिरो के अलावा सम्राट विक्र मादित्य और महाकवि कालीदास के कारण भी विख्यात है। सम्राट विक्रमादित्य के नाम से ही विक्रम संवत चलाया गया। प्रसिद्घ नाटककार कालिदास ने अपना अधिकांश समय यही बिताया और अनेक रचनाओं की रचना की। उज्जैन शिप्रा नदी के कारण भी प्रसिद्घ है। इस नदी के तट पर हर बारह साल में एक बार सिंहस्थ महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। उज्जैन महाकाल मंदिर के लिए भी जाना जाता है। उज्जैन का इतिहास पांच हजार साल से भी अधिक पुराना है।

ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में सोलह जनपदों या राष्ट्रों में से एक अवंति जनपद का भी उल्लेख है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अंवति, अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, नंदनी, अमरावती, प्रतिकल्पा, चूडामणि, कनकश्रृंगा, आदि नामों से भी जाना जाता था। यह प्रसिद्घ मंदिर शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह दुनिया का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है। श्री महाकाल की स्तुति महाभारत कालीन वेदव्यास से लेकर कालिदास, बाणभट्ट, राजा भोज आदि ने की है। यहां हर वर्ष भारी संख्या में श्रद्घालु आते है।

सिंहस्थ मेला यहां 12 वर्ष में एक बार लगता है। पहले इस मंदिर का शिखर सोने का था जो मीलों दूर से दिख जाता था। ग्यारहवीं शताब्दी में जब यह जीर्ण होने लगा तो राजा भोज ने इसकी मरम्मत करवाई थी। बाद में इस मंदिर पर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हमला किया। सन 1235 में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने इस मंदिर को तुडवा दिया। अनेक स्वर्ण-मूर्तियों को अपने साथ लेकर चला गया। लगभग 500 वर्षो तक महाकाल का पता नहीं चला लेकिन मंदिर पर लोगों का विश्वास सदा बना रहा। इस मंदिर के खंडहर अब भी विद्यमान है। वर्तमान मंदिर मराठा कालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्घार सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।

शिवपुराण में वर्णित कथा के अनुसार दूषण नाम का एक अत्याचारी राक्षस था। उससे जनता बड़ी परेशान थी। दूषण के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए उज्जयिनी के निवासियों ने शिव की आराधना की । इससे शिव प्रसन्न हो गए और शिवजी ज्योति के रूप में प्रकट हुए। शिवजी ने उस दैत्य को मार गिराया और भक्तों के आग्रह पर लिंग के रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए।

महाकाल शिवलिंग दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है जहां भस्म आरती की जाती है। भस्म आरती के समय शिवजी को गाय के गोबर के कंडों से बनी भस्म से सजाया जाता हैं। किंवदंवी है कि पहले-पहल यहां मुर्दे की भस्म से आरती की जाती थी, लेकिन बाद में यहां गोबर के कंडे की राख को उपयोग किया जाने लगा। इस मंदिर में शिवरात्रि और सावन के सोमवार के दिन भक्तों का तांता लगा रहता है।

स्कंधपुराण के अंवतिका खंड में इस मंदिर के जन्म से जुडी कथा के बारें में बताया गया है। इसके अनुसार अंधाकासुर नाम के दैत्य ने शिव की आराधना करके यह वरदान पाया कि उसकी रक्त की बूंदों से प्रतिदिन नए राक्षस जन्म लेते रहेंगे। इन राक्षसों से जनता बड़ी परेशान हो गई। इसके लिए उन्होंने शिव की उपासना की। तब शिव और राक्षस अंधाकासुर के बीच भीषण युद्घ हुआ। इससे शिव के पसीने की बूंदे धरती पर गिरीं,जिससे धरती दो भागों मे फट गई। इससे मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई। शिवजी के प्रहारों से घायल मंगल ग्रह की भूमि लाल हो गई। दैत्य मारा गया। शिवजी ने इस नए ग्रह को पृथ्वी से अलग कर दिया। जिन लोगों की पत्रिका में मंगल भारी होता है वह यहां पूजा -अर्चना करके उसे शान्त कराने के लिए आते रहते है।

महाकाल मंदिर के बाद सबसे ज्यादा श्रद्घालु काल भैरव मंदिर आते है। वाम मार्गी तांत्रिकों का यह प्रमुख मंदिर माना जाता है। इस मंदिर का इतिहास भी हजारों साल पुराना है। यहां आश्चर्य और आस्था का गजब मिश्रण है। यहां भैरव बाबा की मूर्ति मदिरा पान करती है। लेकिन मदिरा कहां जाती है इसका पता नहीं चल सका है। इसको लेकर कई जांच भी हो चुकी है। यहां भक्तगण बड़ी भारी संख्या में आते है और काल भैरव को मदिरा पीते देखकर आश्चर्य प्रकट करते है।

मान्यता है कि भूखीमाता को प्रतिदिन एक जवान लड़के की बलि दी जाती थी। उस लड़के को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था। फिर उसे भूखी माता खा जाती थी। एक बार विक्रमादित्य ने एक दुःखी मां को देखकर वचन दिया कि वह भूखी माता का भोग बनेगा। राजा बनते ही विक्रमादित्य ने पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाने का आदेश दिया। इससे भूखी माता की भूख विक्रमादित्य को भोजन बनाने से पहले ही शांत हो गई और उसने विक्रमादित्य को चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया। तब राजा ने भूखी माता के सम्मान में इस मंदिर को बनवाया।

नागचंद्रेश्वर मंदिर काफी प्राचीन है। इसके बारे में बताया जाता है कि परमार राजा भोज ने 1050 ईस्वी के लगभग इस मंदिर का पुनर्निमाण कराया था। मंदिर में शिवशंभु की अदभुत प्रतिमा विराजमान है। इसमें शिवजी पूरे परिवार के साथ विराजमान है। पूरी दुनिया में यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें विष्णु भगवान की जगह भोलेनाथ सर्प शय्या पर विराजमान है। इसके बारे में कहा जाता है कि दर्शन करने के बाद व्यक्ति किसी भी तरह के सर्पदोष से मुक्त हो जाता है। महाकाल मंदिर के शिखर पर बने इस मंदिर की खास बात यह है कि इसके दरवाजे साल में एक बार नागपंचमी के दिन ही खुलते है। इसलिए नागपंचमी के दिन नागचंद्रेश्वर मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है।

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