Saturday, February 28, 2015

ऋषि दधीचि।

ऋषि दधीचि।
प्राचीन काल में वृत्रासुर नामका एक दैत्य बडा ही उन्मत्त हो गया था। अति बलवान होनेके कारण देवताओं को उसे हराना कठिन हो गया। उसके विनाश हेतु भगवान विष्णु ने सुझाया कि दधीचि ऋषि की अस्थियों से बङ्का बनाए, तो उससे वृत्रासुर का नाश हो सकता है। दधीचि ऋषि अति दयालु एवं सबकी सहायता करने वाले थे। इंद्रदेव दधीचि ऋषि के पास गए, और इंद्रदेव ने कहा, मैं आपके पास याचक बनकर आया हूं। दैत्य वृत्रासुर का नाश करनेके लिए एक बङ्का बनाना है। इसके लिए आपकी अस्थियां चाहिए। क्षणभर भी विचार न करते हुए दधीचि ऋषि ने कहा, ‘‘मैं प्राणत्याग कर अपनी देह ही आपको अर्पित करता हूं। फिर आप देह का जो चाहें कर सकते हैं। दधीचि ऋषि ने योगबल से प्राणत्याग किया। फिर उनकी देह की अस्थियों से षट्कोनी बङ्का बनाकर इंद्रदेव को दिया गया। तदुपरांत बङ्का को अभिमंत्रित कर उसका उपयोग करने पर, वृत्रासुरका नाश संभव हुआ।

Friday, February 27, 2015

जोबनेर ज्‍वाला माता।

जोबनेर ज्‍वाला माता।
ऐतिहासिक परिचयः-
सुन्‍दर शैल शिखर पर राजे, मन्दिर ज्‍वाला माता का।
अनुदिन ही यात्रीगण आते, करने दर्शन माता का।।
इसी भवानी के पद तल में, नगर बसा एक अनुपम सा।
जोबनेर विख्‍यात नाम से, पद्रेश में सुन्‍दरतम् सा।।


उतुंग शिखरों से युक्‍त हरे-भरे त्रिकोणाकार पर्वत की गोद में स्थित ‘जोबनेर’ चन्‍द्रवंश मुकुटमणि महाराज ययाति द्वारा अपने पुत्र पुरू के यौवनदान की स्‍मृति में ‘यौवनेर’ के नाम से बसाया था, जो अपभ्रंश होकर जोबनेर के नाम से पुकारे जाने लगा। महाराज ने अपनी दोनों रानियों- देवयानी व शर्मिष्‍ठा की स्‍मृति में दो तीर्थ सरोवरों का निर्माण कराया था जो सांभर के सन्निकट अब तक विद्यमान हैं।

जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसा जोबनेर ज्‍वाला माता के मन्दिर के कारण प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक प्रसिद्ध रहा है। पहाड़ की हरिताभा के बीच चांदी सा चमकता हुआ यह मन्दिर दूर से ही दर्शक का मन मोह लेती है।

दक्ष-यज्ञ विध्‍वंस होने के बाद सती की मृत देह के गलित अंग-प्रत्‍यंग जिस-जिस स्‍थान पर गिरे, वे स्‍थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। सती का जानु (घुटना) यहां गिरने से यह स्‍थल कामनाप्रद सिद्धपीठ के रूप में पूज्‍य है।

ज्‍वाला माता के विग्रह की यह विशिष्‍टता है कि यह किसी के द्वारा प्रतिष्‍ठापित नहीं बल्कि प्रस्‍तर काल में गुफा से स्‍वत: उद्भूत देवी प्रतिमा का जानु भाग मात्र है। देवी को अपना अंश यहां प्रकट करना अभिष्‍ट था।

देवी प्रतिमा के जानु मात्र ही प्रकट होने के सम्‍बन्‍ध में एक किंवदन्‍ती इस प्रकार से प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ग्‍वाला इस पर्वत पर भेड़-बकरियां चरा रहा था। ज्‍वाला माता ने वृद्धा का रूप धारण कर उससे कहा कि- ‘‘इस पर्वत में से अभी देवी प्रकट होगी। भीष्‍ण गर्जना के साथ पर्वत तक हिलने लगेगा। तुम भयभीत हो जाओगे अत: तुरन्‍त यहां से भाग जाओ।’’ किन्‍तु ग्‍वाला माता के शान्‍त रूप से डरा नहीं और वहीं डटा रहा। इतने में श्‍वेतावस्‍त्रा शान्‍त मातृ रूप अदृश्‍य हो गया और गम्‍भीर गर्जना के से दसों दिशाओं को निनादित करता हुआ, पर्वत वक्ष वीदीर्ण कर सिंहवाहिनी देवी को तेजोमय स्‍वरूप प्रकट हुआ। प्रतिमा के वाम चरण जानु (घुटना) भाग ही बाहर आ पाया था कि उक्‍त ग्‍वाला के प्राण पखेरू उड़ने को उद्यत हो गए। प्रकट होने की शुभ बेला में मृत्‍यु की अशुभ घड़ी के निवारणार्थ देवी ने अपना प्रकट होना रोक लिया एवं प्रकट अंश को स्थिर कर ज्‍योतिर्मय स्‍वरूप विलीन हो गया। पर्वत के गर्भद्वार से सटे जानु भाग को मुखाकृति से सुसज्जित कर भक्‍तगण कृतार्थ हो गए।

Thursday, February 26, 2015

भस्मासुर।


भस्मासुर।
ब्रह्मा, विष्णु और महादेव-ये तीनों शाप और वरदान देनें में समर्थ हैं, परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं, परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं। इस विषय में एक प्राचीन घटना है। शंकरजी एक बार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गए थे। वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है? देवर्षि नारद ने कहा-तुम भगवान शंकर की आराधना करो। नारद ने वृकासुर को जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और न हीं प्रसन्न।

नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा।

भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।

शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एक बार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।

भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी जी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।

कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं।

इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।

भगवान शिव की जान बचाने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धर के भस्मासुर को खुद के ही सिर पर हाथ रखने को मजबूर कर, उसी को मिले वरदान से नेस्तनाबुद कर दिया।
इसी वरदान से वृकासुर का नाम भस्मासुर पढा ।

Wednesday, February 25, 2015

महात्मा बुद्ध।

महात्मा बुद्ध।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसापूर्व में नेपाल की तराई में लुम्बिनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। अपने शुरुआती दिनों में रोगी, बूढा और मृत शरीर को देखकर उन्हें वितृष्णा हुई। राजपरिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने जीवन की सारी सुविधाआँ का त्याग कर सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हेतु बोधगया में कठोर तप किया और बुद्ध कहलाए। उनके समकालीन शक्तिशाली मगध साम्राज्य के शासकबिम्बिसार तथा अजातशत्रु ने बुद्ध के संघ का अनुसरण किया। बाद में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को श्रीलंका, जापान, तिब्बत तथा चीन तक फैलाया। ज्ञान प्राप्ति पश्चात भगवान बुद्ध ने राजगीर, वैशाली, लौरिया तथासारनाथ में अपना जीवन बिताया। उन्होने सारनाथ में अंतिम उपदेश देकर अपना शरीर त्याग दिया। आज बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।

Tuesday, February 24, 2015

भगवान परशुराम।

भगवान परशुराम।
भगवान परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। उन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

Monday, February 23, 2015

श्रीकृष्ण स्‍तुति।



श्रीकृष्ण स्‍तुति।
भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति के अनेक रूपों ने कृष्ण भक्ति की धारा को हर दिल में बहाया। जहां मीरा नृत्य और गायन से कृष्ण भक्ति में समा गईं, वहीं चैतन्य महाप्रभु ने नाच और रुदन से कृष्ण भक्ति का रस बहाया।
इसी कड़ी में श्रीकृष्ण के परम भक्त श्री वल्लभाचार्य, भगवान कृष्ण के आनंदस्वरूप की भक्ति में ऐसे डूबे कि उन्होंने भगवान के सुंदर स्वरूप को बताने के लिए 'मधुराष्टकं' रच दिया। इसमें श्रीकृष्ण के सौंदर्य को ऐसा उतारा कि आज भी जब कोई भक्त या भक्त समूह इसको गाता है, तब मन-मस्तिष्क के साथ पूरा वातावरण आनंद रस में डूब जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म पर 'मधुराष्टकं' का गान उत्सव के आनंद को बढ़ाता है, साथ ही जीवन के सभी तनावों को दूर कर सुख और आनंद देता है। जब दिल और दिमाग सकारात्मक ऊर्जा से भरा हो तो यह तय है कि कोई भी इंसान किस्मत को संवार सकता है।
ऐसी चाहत पूरी करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के सुंदर रूप का स्मरण करें –

मधुराष्टकंअधरम मधुरम वदनम मधुरमनयनम मधुरम हसितम मधुरम।
हरदयम मधुरम गमनम मधुरममधुराधिपतेर अखिलम मधुरम॥1॥

वचनं मधुरं, चरितं मधुरं, वसनं मधुरं, वलितं मधुरम् ।
चलितं मधुरं, भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥2॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः, पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं, सख्यं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥3॥

गीतं मधुरं, पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं, सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं, तिलकं मधुरं, मधुरधिपतेरखिलं मधुरम् ॥4॥

करणं मधुरं, तरणं मधुरं, हरणं मधुरं, रमणं मधुरम् ।
वमितं मधुरं, शमितं मधुरं, मधुरधिपतेरखिलं मधुरम् ॥5॥

गुञ्जा मधुरा, माला मधुरा, यमुना मधुरा, वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं, कमलं मधुरं, मधुरधिपतेरखिलं मधुरम् ॥6॥

गोपी मधुरा, लीला मधुरा, युक्तं मधुरं, मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं, शिष्टं मधुरं, मधुरधिपतेरखिलं मधुरम् ॥7॥

गोपा मधुरा, गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा, सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं, फलितं मधुरं, मधुरधिपतेरखिलं मधुरम् ॥8॥॥

इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितं मधुराष्टकं सम्पूर्णम् ॥

Sunday, February 22, 2015

ऋषभदेव।



ऋषभदेव।
ऋषभदेव प्राचीन भारत के एक सम्राट थे जो कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। इनके पुत्र भरत के नाम पर ही भारत का नाम भारतवर्ष पड़ा।

जीवन चरित्र—
• जन्म -चैत्र कृष्ण ९
• जन्म स्थान - अयोध्या
• माता- महारानी मरूदेवी
• पिता-महाराज नाभिराय
• निर्वाण - माघ कृष्ण १४
• निर्वाण स्थल - श्री कैलाश पर्वत्
• निशान - वृषभ या बैल

ऋषभदेव जी को भगवान आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। भगवान ऋषभदेव जी की विश्व की सबसे बडी प्रतिमा बडवानी (मध्यप्रदेश) (भारत) के पास बावनगजा मे है। यह ८४ फीट की है।

जैन ग्रन्थों में वर्णन—
जैन पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट और जैन धर्म के प्रथम तीथर्कंर हुए। ऋषभदेव के अन्य नाम ऋषभनाथ, आदिनाथ, वृषभनाथ भी है। भगवान ऋषभदेव का विवाह यशस्वती (नन्दा) और सुनन्दा से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत सबसे बड़े एवं प्रथमचक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पडा। दुसरे पुत्र बाहुबली भी एक महान राजा एवं कामदेव पद से बिभूषित थे। इनके आलावा ऋषभदेव के वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि ९९ पुत्र तथा ब्राम्ही और सुन्दरी नामक दो पुत्रियां भी हुई, जिनको ऋषभदेव ने सर्वप्रथम युग के आरम्भ में क्रमश: लिपिविद्या [अक्षरविद्या]और अंकविद्या का ज्ञान दिया।

हिन्दु ग्रन्थों में वर्णन—
वैदिक धर्म में भी ॠषभदेव का संस्तवन किया गया है। भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। इसमें भरत आदि 100 पुत्रों का कथन जैन धर्म की तरह ही किया गया है। अन्त में वे दिगम्बर (नग्न) साधु होकर सारे भारत में विहार करने का भी उल्लेख किया गया है। ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।

हिन्दूपुराण श्रीमद्भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय नाम से उल्लिखित) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवतपुराण अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत सबसे बड़े एवं गुणवान थे। उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ये नौ पुत्र राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे। इनसे छोटे इक्यासी पुत्र पिता की की आज्ञा का पालन करते हुये पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये।

विष्णु पुराण के अनुसार इनके पुत्र भरत के नाम पर ही भारत का नाम भारतवर्ष पड़ा:
ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्, भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्।
— विष्णु पुराण (2, 1, 31)
ऋषभ मरुदेवी को पैदा हुए थे, भरत ऋषभ को पैदा हुए थे, भारतवर्ष भरत से उगा और सुमति भरत से उगी।
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते, भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम।
- विष्णु पुराण (2, 1, 32)
यह भूमि तब से भारतवर्ष के रूप में जानी जाती है, जब से पिता अपने पुत्र भरत को राज्य सौंप कर तपस्या के लिए जंगल में गए।