भस्मासुर।
ब्रह्मा, विष्णु और महादेव-ये तीनों शाप और वरदान देनें में समर्थ हैं, परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं, परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं। इस विषय में एक प्राचीन घटना है। शंकरजी एक बार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गए थे। वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है? देवर्षि नारद ने कहा-तुम भगवान शंकर की आराधना करो। नारद ने वृकासुर को जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और न हीं प्रसन्न।
नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा।
भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।
शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एक बार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।
भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी जी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।
कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं।
इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।
भगवान शिव की जान बचाने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धर के भस्मासुर को खुद के ही सिर पर हाथ रखने को मजबूर कर, उसी को मिले वरदान से नेस्तनाबुद कर दिया।
इसी वरदान से वृकासुर का नाम भस्मासुर पढा ।
जय श्री महाकाल...
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