Wednesday, April 29, 2015

ध्यान साधना क्या है?


ध्यान साधना क्या है?
हमारे समक्ष प्रश्न है: ध्यान साधना क्या है? ध्यान साधना और अधिक हितकारी मनोदशा या रवैया विकसित करने के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाने की विधि है। यह उद्देश्य बारंबार एक निश्चित प्रकार की मनोदशा विकसित करके स्वयं को उसमें ढाल कर उसे अपना स्वभाव बनाने का यत्न करके हासिल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि ऐसी बहुत सी मनोदशाएं और रवैये हो सकते हैं जो हितकारी है। एक मनोदशा ऐसी हो सकती है जिसमें व्यक्ति अधिक निश्चिंत, तनाव रहित, अपेक्षाकृत कम चिन्तित हो सकता है; एक अन्य मनोदशा में व्यक्ति अधिक ध्यान केन्द्रित, या किसी अन्य मनोदशा में अधिक शांत, अनवरत अनर्गल विचारों तथा मानसिक चिन्ता से मुक्त हो सकता है। इनसे भी अलग एक ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति को अधिक आत्मज्ञान, जीवन का बोध आदि हो सकते हैं; या कोई ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति और अधिक प्रेम और करुणा का भाव हो। इस प्रकार हम ध्यान साधना के माध्यम से अनेक प्रकार की हितकारी मनोदशाएं विकसित कर सकते हैं।

चित्त को स्थिर करना-
ध्यान साधना की एक विधि यह है कि चित्त को स्थिर किया जाए ताकि चित्त की और अधिक सहज अवस्था में पहुँच सकें। अपने चित्त को स्थिर करके हमारा उद्देश्य एक ऐसी चित्तवृत्ति विकसित करना होता है जहाँ हमारा चित्त निर्मल और सचेत हो, एक ऐसी चित्तवृत्ति जिसमें हम प्रेम और उदारता का भाव विकसित कर सकें, या अपने अन्दर के उस मानवीय मित्रभाव को प्रकट कर सकें जो हमारे अन्दर सहज रूप से विद्यमान है। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को पूर्णतः तनावमुक्त होना चाहिए ─ यह केवल शरीर के स्नायुओं की तनाव मुक्ति की बात नहीं है, यद्यपि वह भी आवश्यक है, बल्कि उस मानसिक और भावनात्मक तनाव तथा खिंचाव से मुक्ति का प्रश्न है जो हमें किसी भी प्रकार की संवेदना को ग्रहण करने से रोकता है ─ विशेषतः जो हमें सहज मित्रभाव और चित्त की निर्मलता का अनुभव करने से रोकता है।
किन्तु यदि हमारा चित्त अधिक स्थिर, शांत, निर्मल और उदार हो तो हम उसका उपयोग रचनात्मक ढंग से कर सकते हैं। ऐसा चित्त हमारे दैनिक जीवन में तो सहायक हो ही सकता है, साथ ही हम इसका उपयोग ध्यान की मुद्रा में बैठ कर अपने जीवन की परिस्थितियों को और बेहतर ढंग से समझने के लिए कर सकते हैं। व्यवधान उत्पन्न करने वाले मनोभावों और विषयेतर विचारों से मुक्त चित्त की सहायता से हम महत्वपूर्ण विषयों पर अधिक स्पष्टता से चिन्तन कर सकते हैं। हमारा चित्त शांत और स्थिर होना चाहिए। ध्यान साधना वह साधन है जो हमें इस अवस्था तक पहुँचाने की क्षमता रखता है।

सहायक स्थितियाँ-
ध्यान साधना के लिए स्थितियों का सहायक होना भी निश्चित रूप से आवश्यक होता है। कुछ लोग समझते हैं कि सहायक स्थिति, यदि कहा जाए तो, किसी “हॉलीवुड मंच-सज्जा” के जैसी होनी चाहिए। लोग सोचते हैं कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए मोमबत्तियों, विशेष प्रकार के संगीत और लोबान की आवश्यकता होगी; उन्हें लगता है कि उनके लिए पूरा हॉलीवुड का फिल्म-सेट तैयार किया जाना चाहिए। यदि आप इस प्रकार का वातावरण चाहते हैं तो ठीक है; लेकिन ऐसा करना निश्चित तौर पर आवश्यक नहीं है। सामान्यतया जहाँ आप ध्यान साधना करने वाले हों उस कमरे को साफ किया जाता है। कमरे को व्यवस्थित कर लें; कपड़े फर्श पर न बिखरे हों, आदि। यदि हमारे आस-पास का वातावरण व्यवस्थित हो तो वह चित्त को व्यवस्थित रखने में सहायक होता है। यदि वातावरण अव्यवस्थित हो तो वह हमारे चित्त पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
विशेष तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में यदि हमारे आस-पास का वातावरण शांतिपूर्ण हो तो यह बहुत सहायक सिद्ध होता है। बौद्ध परम्परा में ध्यान लगाने के लिए संगीत का प्रयोग निश्चित तौर पर नहीं किया जाता है। संगीत एक बाह्य स्रोत है जिसका प्रयोग हम स्वयं को शांत रखने की दृष्टि से करते हैं। किन्तु शांतचित्तता के किसी बाहरी स्रोत पर निर्भर होने के बजाए हम आन्तरिक शांति को विकसित करने में सक्षम होना चाहते हैं। इसके अलावा, संगीत का प्रभाव सम्मोहक हो सकता है, और हम स्तम्भित नहीं होना चाहते हैं। हमें अपने आप को किसी शामक प्रभाव से शांत करने की आवश्यकता नहीं है, जैसे हम किसी दंत चिकित्सक के प्रतीक्षालय में हों और हमें शांत बनाए रखने के लिए वहाँ धीमा संगीत बजाया जा रहा हो। ध्यान साधना के लिए यह कोई अच्छा वातावरण नहीं है।
जहाँ तक ध्यान साधना की मुद्रा का प्रश्न है, यदि हम विभिन्न एशियाई परम्पराओं को देखें, तो ध्यान साधना के लिए बैठने की विभिन्न विधियाँ प्रचलित हैं। तिब्बती और भारतीय लोग पालथी मार कर बैठते हैं; जापानी लोग पैरों को पीछे की ओर अपने नीचे दबाकर घुटनों के बल बैठते हैं; थाइलैंड के लोग अपने दोनों पैर एक और मोड़ कर बैठते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बैठने की मुद्रा आरामदेह होनी चाहिए। यदि आपको लगता है कि आपको कुर्सी पर बैठना चाहिए, तो वह भी ठीक है। ध्यान साधना के बहुत उन्नत स्तर के अभ्यासों में जब हम शरीर के ऊर्जा तंत्रों का अभ्यास करते हैं तब मुद्रा महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन सामान्यतया हमें किसी भी स्थिति में ध्यान साधना कर पाने योग्य होना चाहिए। हो सकता है कि आपको किसी गद्दी पर पालथी मार कर बैठने की आदत हो, लेकिन यदि आप किसी विमान में हों या रेल में सफ़र कर रहे हों और पालथी मार कर बैठ पाना सम्भव न हो, तो आप अपनी सीट पर सामान्य स्थिति में बैठे हुए ही ध्यान साधना कर सकते हैं।

कम अनुभव वाले ध्यान साधकों के लिए यह विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है कि उनके आस-पास का वातावरण शांत हो। हममें से बहुत से लोगों के लिए, विशेष तौर पर शहरों में रहने वाले लोगों के लिए, शांतिपूर्ण स्थानों की तलाश आसान नहीं होती है। इसलिए बहुत से लोग तड़के सुबह या देर रात के समय ध्यान साधना करते हैं जब शोर अपेक्षाकृत कम होता है। धीरे-धीरे जब हम इस दिशा में काफ़ी आगे बढ़ जाते हैं तो शोर हमें विचलित नहीं करता है; लेकिन शुरुआत में बाहर का कोलाहल बहुत जल्दी हमारा ध्यान भंग कर सकता है।

श्वास पर ध्यान केन्द्रित करना-
बहुत से लोग जानना चाहते हैं: मैं ध्यान साधना का अभ्यास कैसे शुरू करूँ? बहुत सी परम्पराओं में अधिकांश साधक ध्यान साधना की शुरुआत श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके करते हैं। श्वास पर ध्यान साधते समय आप सामान्य ढंग से श्वास लीजिए: न बहुत तेज़, न बहुत धीरे; न बहुत गहरा, और न ही बहुत हल्का। सिर्फ़ नाक से सामान्य ढंग से श्वास लीजिए। बहुत तेज़, गहरा श्वास बिल्कुल नहीं लेना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से आपको ज़ोर से चक्कर आ सकते हैं और उससे आपका कोई हित नहीं होगा।
श्वास को साधते समय आप दो स्थानों पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं: या तो नासिका के अन्दर जाते और बाहर निकलते श्वास की अनुभूति पर; या फिर श्वास-प्रश्वास के कारण पेट के फूलने और पिचकने की अनुभूति पर। यदि आपका चित्त बहुत अधिक भटक रहा हो जिसे हम अंग्रेज़ी भाषा में ‘स्पेस्ड आउट’ होना कहते हैं या कल्पना की उड़ान भर रहा हो, तो ऐसी स्थिति में पेट के नाभि के आस-पास के अन्दर की ओर दबने और फिर बाहर की ओर फूलने वाले भाग पर ध्यान केन्द्रित करना स्वयं को ध्यान साधना में पुनःस्थापित करने में सहायक होता है। वहीं दूसरी ओर यदि आपको बहुत नींद या थकान अनुभव हो, तो नासिका के भीतर जाते और उससे बाहर आते श्वास पर ध्यान केन्द्रित करने से ऊर्जा का स्तर बढ़ाने में सहायता मिलती है।

दूसरों के प्रति प्रेम भाव जाग्रत करना-
एक बार जब हम श्वास पर ध्यान केन्द्रित करके अपने चित्त को शांत कर लेते हैं, तो फिर हम चित्त की शांत और सचेतन अवस्था का आगे की साधना के लिए उपयोग कर सकते हैं। हम इसका उपयोग हम अपनी भावनात्मक अवस्था के प्रति और अधिक जागरूक होने के लिए कर सकते हैं। प्रेम भाव जाग्रत करने के लिए स्वयं को प्रेम की अवस्था तक ले जाना पड़ता है। शुरुआत के तौर पर आप इस प्रकार विचार करें: “मैं सभी से प्रेम करता हूँ”, और फिर वास्तविकता में ऐसा अनुभव करें। इस प्रकार के विचार के पीछे कोई शक्ति नहीं लगाई गई है। इस प्रकार से आप अपने आप में एक प्रकार का प्रेम भाव जाग्रत करते हैं,यथा: “सभी जीव आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं; यहाँ हम सभी एक साथ हैं। सभी समान हैं: हम सभी आनन्दित रहना चाहते हैं, कोई भी दुखी नहीं रहना चाहता है; सभी चाहते हैं कि उन्हें पसन्द किया जाए, कोई नहीं चाहता कि उसे पसन्द न किया जाए या उसकी उपेक्षा की जाए। सभी जीव मुझ जैसे ही हैं।“
और चूँकि हम सभी यहाँ एकत्र हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, तो प्रेम का भाव कुछ इस प्रकार का होगा: “सभी सुखी हों और सभी को आनन्दित होने के लिए कारण मिलें। सभी सुखी हों, किसी को भी कोई समस्या न हो तो कितना अच्छा हो।“ स्वयं को चित्त की इस अवस्था में ला कर और हृदय में इस प्रकार का प्रेम जागृत करके हम कल्पना करते हैं कि हमारे भीतर से एक स्नेहपूर्ण, सूर्य के समान पीला प्रकाश उत्पन्न हो रहा है जो सभी के लिए प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हमारा ध्यान भटकता है, तो हम उसे इस भावना पर पुनः केन्द्रित कर सकते हैं: “सर्वे भवन्तु सुखिनः।“

Monday, April 27, 2015

जानकी नवमी।

जानकी नवमी।
सीता नवमी वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन सीता का प्राकट्य हुआ था। इस पर्व को "जानकी नवमी" भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन पुष्य नक्षत्र में जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय पृथ्वी से एक बालिका का प्राकट्य हुआ। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को भी 'सीता' कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम 'सीता' रखा गया। इस दिन वैष्णव संप्रदाय के भक्त माता सीता के निमित्त व्रत रखते हैं और पूजन करते हैं। मान्यता है कि जो भी इस दिन व्रत रखता व श्रीराम सहित सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे पृथ्वी दान का फल, सोलह महान दानों का फल तथा सभी तीर्थों के दर्शन का फल अपने आप मिल जाता है। अत: इस दिन व्रत करने का विशेष महत्त्व है।

सीता जन्म कथा-
सीता के विषय में रामायण और अन्य ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है, उसके अनुसार मिथिला के राजा जनक के राज में कई वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। इससे चिंतित होकर जनक ने जब ऋषियों से विचार किया, तब ऋषियों ने सलाह दी कि महाराज स्वयं खेत में हल चलाएँ तो इन्द्र की कृपा हो सकती है। मान्यता है कि बिहार स्थित सीममढ़ी का पुनौरा नामक गाँव ही वह स्थान है, जहाँ राजा जनक ने हल चलाया था। हल चलाते समय हल एक धातु से टकराकर अटक गया। जनक ने उस स्थान की खुदाई करने का आदेश दिया। इस स्थान से एक कलश निकला, जिसमें एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक निःसंतान थे। इन्होंने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर पुत्री बना लिया। हल का फल जिसे 'सीत' कहते हैं, उससे टकराने के कारण कालश से कन्या बाहर आयी थी, इसलिए कन्या का नाम 'सीता' रखा गया था। 'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार श्रीराम के जन्म के सात वर्ष, एक माह बाद वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को जनक द्वारा खेत में हल की नोक (सीत) के स्पर्श से एक कन्या मिली, जिसे उन्होंने सीता नाम दिया। जनक दुलारी होने से 'जानकी', मिथिलावासी होने से 'मिथिलेश' कुमारी नाम भी उन्हें मिले। उपनिषदों, वैदिक वाङ्मय में उनकी अलौकिकता व महिमा का उल्लेख है, जहाँ उन्हें शक्तिस्वरूपा कहा गया है। ऋग्वेद में वह असुर संहारिणी, कल्याणकारी, सीतोपनिषद में मूल प्रकृति, विष्णु सान्निध्या, रामतापनीयोपनिषद में आनन्द दायिनी, आदिशक्ति, स्थिति, उत्पत्ति, संहारकारिणी, आर्ष ग्रंथों में सर्ववेदमयी, देवमयी, लोकमयी तथा इच्छा, क्रिया, ज्ञान की संगमन हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें सर्वक्लेशहारिणी, उद्भव, स्थिति, संहारकारिणी, राम वल्लभा कहा है। 'पद्मपुराण' उन्हें जगतमाता, अध्यात्म रामायण एकमात्र सत्य, योगमाया का साक्षात् स्वरूप और महारामायण समस्त शक्तियों की स्रोत तथा मुक्तिदायिनी कह उनकी आराधना करता है।

'रामतापनीयोपनिषद' का वर्णन
'रामतापनीयोपनिषद' में सीता को जगद की आनन्द दायिनी, सृष्टि, के उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार की अधिष्ठात्री कहा गया है-
श्रीराम सांनिध्यवशां-ज्जगदानन्ददायिनी।
उत्पत्ति स्थिति संहारकारिणीं सर्वदेहिनम्॥
'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार सीता राम से सात वर्ष छोटी थीं।
ममभत्र्ता महातेजा वयसापंचविंशक:।
अष्टादशा हि वर्षाणि मम जन्मति गण्यते॥
'रामायण' तथा 'रामचरितमानस' के बालकाण्ड में सीता के उद्भवकारिणी रूप का दर्शन होता है एवं उनके विवाह तक सम्पूर्ण आकर्षण सीता में समाहित हैं, जहाँ सम्पूर्ण क्रिया उनके ऐश्वर्य को रूपायित करती है।अयोध्याकाण्ड से अरण्यकाण्ड तक वह स्थितिकारिणी हैं, जिसमें वह करुणा-क्षमा की मूर्ति हैं। वह कालरात्रि बन निशाचर कुल में प्रविष्ट हो उनके विनाश का मूल बनती हैं। यद्यपि तुलसीदास ने सीताजी के मात्र कन्या तथा पत्नी रूपों को दर्शाया है, तथापि वाल्मीकि ने उनके मातृस्वरूप को भी प्रदर्शित कर उनमें वात्सल्य एवं स्नेह को भी दिखलाया है।

सीता जयंती-
सीताजी की जयंती वैशाख शुक्ल नवमी को मनायी जाती है, किंतु भारत के कुछ भाग में इसे फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को मनाते हैं। रामायण के अनुसार वह वैशाख में अवतरित हुईं थीं, किन्तु 'निर्णयसिन्धु' के 'कल्पतरु' ग्रंथानुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को। अत: दोनों ही तिथियाँ उनकी जयंती हेतु मान्य हैं। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम तथा माता जानकी के अनन्य भक्त तुलसीदास न 'रामचरितमानस' के बालकांड के प्रारंभिकश्लोक में सीता जी ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार, की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है-
उद्भव स्थिति संहारकारिणीं हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामबल्लभाम्॥
अद्भुत रामायण का उल्लेख

श्रीराम तथा सीता-
इस घटना से ज्ञात होता है कि सीता राजा जनक की अपनी पुत्री नहीं थीं। धरती के अंदर छुपे कलश से प्राप्त होने के कारण सीता खुद को पृथ्वी की पुत्री मानती थीं। लेकिन वास्तव में सीता के पिता कौन थे और कलश में सीता कैसे आयीं, इसका उल्लेख अलग-अलग भाषाओं में लिखे गये रामायण और कथाओं से प्राप्त होता है। 'अद्भुत रामायण' में उल्लेख है कि रावण कहता है कि- "जब मैं भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूँ, तब वही मेरी मृत्यु का कारण बने।" रावण के इस कथन से ज्ञात होता है कि सीता रावण की पुत्री थीं। 'अद्भुत रामायण' में उल्लेख है कि गृत्स्मद नामक ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था। एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया था, तब रावण इनकी कुटिया में आया और यहाँ मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया। रावण ने कहा कि यह तेज विष है। इसे छुपाकर रख दो। मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दुःखी थी। एक दिन जब रावण बाहर गया था, तब मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया। इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गयी।

Sunday, April 26, 2015

पुराण संख्या।

पुराण संख्या।
अट्ठारह पुराण-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते॥
म-2, भ-2, ब्र-3, व-4।
अ-1,ना-1, प-1, लिं-1, ग-1, कू-1, स्क-1॥
विष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं—विष्णु, पद्म, ब्रह्म, वायु(शिव), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड और भविष्य।

ब्रह्म पुराण
पद्म पुराण
विष्णु पुराण
वायु पुराण -- (शिव पुराण)
भागवत पुराण -- (देवीभागवत पुराण)
नारद पुराण
मार्कण्डेय पुराण
अग्नि पुराण
भविष्य पुराण
ब्रह्म वैवर्त पुराण
लिङ्ग पुराण
वाराह पुराण
स्कन्द पुराण
वामन पुराण
कूर्म पुराण
मत्स्य पुराण
गरुड़ पुराण
ब्रह्माण्ड पुराण

पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रत्येक पुराण में अठारहो पुराणों के नाम और उनकी श्लोकसंख्या है। नाम और श्लोकसंख्या प्रायः सबकी मिलती है, कहीं कहीं भेद है। जैसे कूर्म पुराण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण; मार्कंडेय पुराण में लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण; देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण और मत्स्य में वायुपुराण है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक श्रीमद्भागवत, दूसरा देवीभागवत। कौन वास्तव में पुराण है इसपर झगड़ा रहा है। रामाश्रम स्वामी ने 'दुर्जनमुखचपेटिका' में सिद्ध किया है कि श्रीमद्भागवत ही पुराण है। इसपर काशीनाथ भट्ट ने 'दुर्जनमुखमहाचपेटिका' तथा एक और पंडित ने 'दुर्जनमुखपद्यपादुका' देवीभागवत के पक्ष में लिखी थी।

उपपुराण
गणेश पुराण
श्री नरसिंह पुराण
कल्कि पुराण
एकाम्र पुराण
कपिल पुराण
दत्त पुराण
श्रीविष्णुधर्मौत्तर पुराण
मुद्गगल पुराण
सनत्कुमार पुराण
शिवधर्म पुराण
आचार्य पुराण
मानव पुराण
उश्ना पुराण
वरुण पुराण
कालिका पुराण
महेश्वर पुराण
साम्ब पुराण
सौर पुराण
पराशर पुराण
मरीच पुराण
भार्गव पुराण

अन्यपुराण तथा ग्रन्थ-
हरिवंश पुराण
सौरपुराण
महाभारत
श्रीरामचरितमानस
रामायण
श्रीमद्भगवद्गीता
गर्ग संहिता
योगवासिष्ठ
प्रज्ञा पुराण

श्लोक संख्या-
सुखसागर के अनुसारः-
ब्रह्मपुराण में श्लोकों की संख्या १४००० और २४६ अद्धयाय है|
पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या ५५००० हैं।
विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं।
शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं।
मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं।
अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं।
भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं।
वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं।
वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं।
कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं।
मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं।
गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं।
ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।

Friday, April 24, 2015

काली माता।


काली माता।
हिन्दू धर्म में सबसे जागृत देवी है मां कालिका। मां कालिका को खासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। काली शब्द का अर्थ काल और काले रंग से है। काल का अर्थ समय। मां काली को देवी दुर्गा की दस महाविद्याओं में से एक माना जाता है। मां काली के चार रूप है- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली। कालिका के दरबार में जो एक बार चला जाता है उसका नाम-पता दर्ज हो जाता है। यहां यदि दान मिलता है तो दंड भी। माता के नाम से एक अलग ही पुराण है, जिसमें उनकी महिमा का वर्णन है।

कोलकाता का काली मंदिर : रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्व प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की चार अंगुलियां गिरी थी। इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है। यह स्थान प्राचीन समय से ही शक्तिपीठ माना जाता था, लेकिन इस स्थान पर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने मंदिर का निर्माण करवाया था। 25 एकड़ क्षेत्र में फैले इस मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1855 पूरा हुआ।

मां गढ़ कालिका : उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का प्राचीन मंदिर हैं, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे। यहां प्रत्येक वर्ष कालिदास समारोह के आयोजन के पूर्व मां कालिका की आराधना की जाती है। गढ़ कालिका के मंदिर में मां कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारत काल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया। वैसे तो गढ़ कालिका का मंदिर शक्तिपीठ में शामिल नहीं है, किंतु उज्जैन क्षेत्र में मां हरसिद्धि ‍शक्तिपीठ होने के कारण इस क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उज्जैन में ‍शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर मां भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे।

पावागढ़ शक्तिपीठ : गुजरात की ऊंची पहाड़ी पर बसा पावागढ़ मंदिर। यहां स्थित काली मां को महाकाली कहा जाता है। काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर मां के शक्तिपीठों में से एक है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहा जाता है, जहां सती मां के अंग गिरे थे। पावागढ़ में मां के वक्षस्थल गिरे थे। कहते हैं कि यहां माता का जागृत दरबार लगता है और उनकी कई सेविकाएं उनके लिए कार्य करती हैं। यहीं लोगों को दंड या दान मिलता है। इस पहाड़ी को गुरु विश्वामित्र से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि गुरु विश्वामित्र ने यहां काली मां की तपस्या की थी। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण्य के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पावागढ़ मंदिर ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। रोप-वे से उतरने के बाद आपको लगभग 250 सीढ़ियां चढ़ना होंगी, तब जाकर आप मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुंचेंगे।

Thursday, April 23, 2015

जयंती विशेष।


जयंती विशेष।
आज जम्बूिदीप के प्रसिद्ध तीन संतो की जयंती है।
श्री रामानुजाचार्य। श्री आदि शंकराचार्य। श्री सूरदास।

श्री रामानुजाचार्य।
रामानुजाचार्य (जन्म: १०१७ - मृत्यु: ११३७) विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था।
रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया।
१०१७ ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था - ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यदिराज नामक सन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।

श्री आदि शंकराचार्य।
आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य,ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। भारतीय संस्कृति के विकास में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ईसवी 788 को तथा मोक्ष 820ई. को स्वीकार किया जाता है। शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरलराज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा)जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरीको शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त की।

श्री सूरदास जी।
सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।

Tuesday, April 21, 2015

अक्षय तृतीया।



अक्षय तृतीया।
अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाखमाह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था।इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। जी.एम. हिंगे के अनुसार तृतीया ४१ घटी २१ पल होती है तथा धर्म सिंधु एवं निर्णय सिंधु ग्रंथ के अनुसार अक्षय तृतीया ६ घटी से अधिक होना चाहिए। पद्म पुराण के अनुसा इस तृतीया को अपराह्न व्यापिनी मानना चाहिए। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। मदनरत्न के अनुसार:

“ अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥ „

अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। पुराणों में लिखा है कि इस दिन [पितृ पक्ष|[पितरों]] को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है।

क्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये।

“ सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।
दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥ „

अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है।
ऐसी भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा विशेष फलदायी मानी गई है। इस दिन किया गया आचरण और सत्कर्म अक्षय रहता है।

Monday, April 20, 2015

भगवान परशुराम।


भगवान परशुराम।
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया का पर्व मनाया जाता है। कुछ स्थानों पर इसे आखा तीज भी कहते हैं।

हिंदू पंचांग के मुताबिक वर्ष के दूसरे महीने वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इस तिथि पर किए गए दान-धर्म का अक्षय यानी कभी नाश न होने वाला फल व पुण्य मिलता है। इसलिए यह सनातन धर्म में दान-धर्म का अचूक काल माना गया है। इसे चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं, क्योंकि यह तिथि 8 चिरंजीवियों में एक भगवान परशुराम की जन्म तिथि भी है। हिन्दू धर्म मान्यताओं में किसी भी शुभ काम के लिए साल के स्वयं सिद्ध मुहूर्तों में आखा तीज भी एक है।

शास्त्रों के मुताबिक- स्नात्वा हुत्वा य दत्वा य जप्त्वानन्तफलं लभेत्।
यानी इस दिन किए जाने वाले स्नान, हवन, जप सहित सभी काम और दिया हुआ दान अक्षय होता है। यानी इनका क्षय नहीं होता है और ये अनन्त फल देते हैं। इसीलिए यह शुभ तिथि अक्षय तृतीया के नाम से जानी जाती है।

शास्त्रों के मुताबिक वैशाख माह विष्णु भक्ति का शुभ काल है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इस माह की अक्षय तृतीया को ही भगवान विष्णु के नर-नरायण, हयग्रीव और परशुराम अवतार हुए थे। इसलिए इस दिन परशुराम जयंती, नर-नारायण जयंती भी मनाई जाती है। त्रेतायुग की शुरुआत भी इसी शुभ तिथि से मानी जाती है। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा भी पुण्यदायी व महामंगलकारी मानी जाती है।