Friday, October 30, 2015

करवा चौथ।

करवा चौथ।
करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान का पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है। ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं। यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें। भारत देश में वैसे तो चौथ माता जी के कही मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गाँव में स्थित है । चौथ माता के नाम पर इस गाँव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया । चौथ माता मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने की थी ।

Tuesday, October 27, 2015

महर्षि वाल्मीकि।



महर्षि वाल्मीकि।
वाल्मीकि प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रुप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत मे रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है।

दस्यु से महर्षि का परिवर्तन- महर्षि वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था। महर्षि बनने के पहले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे। वे परिवार के पालन-पोषण हेतु दस्युकर्म करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले। जब रत्नाकर ने उन्हें लूटना चाहा, तो उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि यह कार्य किसलिए करते हो, रत्नाकर ने जवाब दिया परिवार को पालने के लिये। नारद ने प्रश्न किया कि क्या इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे। रत्नाकर ने जवाब दिया पता नहीं, नारदमुनि ने कहा कि जाओ उनसे पूछ आओ। तब रत्नाकर ने नारद ऋषि को पेड़ से बाँध दिया तथा घर जाकर पत्नी तथा अन्य परिवार वालों से पूछा कि क्या दस्युकर्म के फलस्वरुप होने वाले पाप के दण्ड में तुम मेरा साथ दोगे तो सबने मना कर दिया। तब रत्नाकर नारदमुनि के पास लौटे तथा उन्हें यह बात बतायी। इस पर नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे घरवाले इसके पाप में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो। यह सुनकर रत्नाकर को दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई तथा उन्होंने नारदमुनि से उद्धार का उपाय पूछा। नारदमुनि ने उन्हें राम-राम जपने का निर्देश दिया। रत्नाकर वन में एकान्त स्थान पर बैठकर राम-राम जपने लगे लेकिन अज्ञानतावश राम-राम की जगह मरा-मरा जपने लगे। कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी की कृपा से इन्हें समय से पूर्व ही रामायण की सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया तथा उन्होंने रामायण की रचना की। कालान्तर में वे महान ऋषि बने। आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।

आदि कवि वाल्मीकि- एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
(निषाद)अरे बहेलिये, (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी) ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे।

देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीक आश्रम प्रभु आए॥ तथा जब "राम" ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया था। उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि "राम" के समकालीन थे तथा उनके जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था। उन्हें "राम" का चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की।

जीवन परिचय- हिंदुओं के प्रसिद्ध महाकाव्य वाल्मीकि रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता है और जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन है, के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित है जिसके अनुसार उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता है जबकि वास्तविकता इसके विरुद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं के द्वारा हिंदू संस्कृति को भुला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या ७/९३/१६, ७/९६/१८ और ७/१११/११ में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम 'अग्निशर्मा' एवं 'रत्नाकर' थे। किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिये जीवन यापन का मुख्य साधन था। हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिये सामान्य बात थी। उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े और दस्युकर्म में लिप्त हो गये। युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेक संतानों के पिता बन गये। परिवार में वृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिये वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे। एक दिन नारद ऋषि उस वन प्रदेश से गुजर रहे थे। रत्नाकर ने उनसे धन की मांग की और धन न देने की स्थिति में हत्या कर देने की धमकी भी दी। नारद मुनि के यह पूछने पर कि वह ये पापकर्म किसलिये करते हो रत्नाकर ने बताया कि परिवार के लिये। इस पर नारद जी ने पूछा कि जिस तरह तुम्हारे पापकर्म से प्राप्त धन का उपभोग तुम्हारे समस्त परिजन करते हैं क्या उसी तरह तुम्हारे पापकर्मों के दण्ड में भी वे भागीदार होंगे? रत्नाकर ने कहा कि न तो मुझे पता है और न ही कभी मैने इस विषय में सोचा है। नारद जी ने कहा कि जाकर अपने परिवार के लोगों से पूछ कर आओ और यदि वे तुम्हारे पापकर्म के दण्ड के भागीदार होने के लिये तैयार हैं तो अवश्य लूटमार करते रहना वरना इस कार्य को छोड़ देना, यदि तुम्हें संदेह है कि हम भाग जायेंगे तो हमें वृक्षों से बांधकर चले जाओ। नारद जी को पेड़ से बांधकर रत्नाकर अपने परिजनों के पास पहुँचे। पत्नी, संतान, माता-पिता आदि में से कोई भी उनके पापकर्म में के फल में भागीदार होने के लिये तैयार न था, सभी का कहना था कि भला किसी एक के कर्म का फल कोई दूसरा कैसे भोग सकता है! रत्नाकर को अपने परिजनों की बातें सुनकर बहुत दुख हुआ और नारद जी से क्षमा मांग कर उन्हें छोड़ दिया। नारद जी से रत्नाकर ने अपने पापों से उद्धार का उपाय भी पूछा। नारद जी ने उन्हें तमसा नदी के तट पर जाकर 'राम-राम' का जाप करने का परामर्श दिया। रत्नाकर ने वैसा ही किया परंतु वे राम शब्द को भूल जाने के कारण 'मरा-मरा' का जाप करते हुये अखण्ड तपस्या में लीन हो गये। तपस्या के फलस्वरूप उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुये।

यदुवंश का नाश।



यदुवंश का नाश।
अठारह दिन चले महाभारत के युद्ध में रक्तपात के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ। इस युद्ध में कौरवों के समस्त कुल का नाश हुआ, साथ ही पाँचों पांडवों को छोड़कर पांडव कुल के अधिकाँश लोग मारे गए। लेकिन इस युद्ध के कारण, युद्ध के पश्चात एक और वंश का खात्मा हो गया वो था 'श्री कृष्ण जी का यदुवंश'।

गांधारी ने दिया था यदुवंश के नाश का श्राप :महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। गांधारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रयास क्षेत्र में आ गये थे। यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था। कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवंशी मारे गये थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गये थे। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।

महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी। मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। जब यह बात राजा उग्रसेन को पता चली तो उन्होंने उस मूसल को चुरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद राजा उग्रसेन व श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करवा दी कि आज से कोई भी वृष्णि व अंधकवंशी अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो भी व्यक्ति छिपकर मदिरा तैयार करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। घोषणा सुनकर द्वारकावासियों ने मदिरा नहीं बनाने का निश्चय किया।

इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। वे रात में सोए हुए मनुष्यों के बाल और नाखून कुतरकर खा जाया करते थे। सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की आवाज निकालने लगे। गायों के पेट से गधे, कुत्तियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उस समय यदुवंशियों को पाप करते शर्म नहीं आती थी। बहेलिये का तीर लगने से हुई श्रीकृष्ण की मृत्यु बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन श्रीकृष्ण जी पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान श्रीकृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा।

बहेलिए के जाने के बाद वहां श्रीकृष्ण का सारथी दारुक पहुंच गया। दारुक को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दो, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहां से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए। श्रीमद भागवत के अनुसार जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलरामजी की पत्नियां, श्रीकृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए। इन संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद श्रीकृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में डूब गई। श्रीकृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे।

वानर राज बाली ही था ज़रा बहेलिया संत लोग यह भी कहते हैं कि प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी

Sunday, October 25, 2015

कालचक्र।


कालचक्र।
पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन ब्रम्हा की आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है। पितामह ब्रम्हा के प्रथम ५० वर्षों को पूर्वार्ध एवं अगले ५० वर्षों को उत्तरार्ध कहते हैं। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलकर एक महायुग कहते हैं। ऐसे १००० महायुगों का ब्रम्हा का एक दिन होता है। इसी प्रकार १००० महायुगों का ब्रम्हा की एक रात्रि होती है। अर्थात परमपिता ब्रम्हा का एक पूरा दिन २००० महायुगों का होता है। ब्रम्हा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है। भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की आधी कला होती है। महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रम्हाक्ष होता है। अभी ब्रम्हा के उत्तरार्ध का पहला वर्ष चल रहा है (ब्रम्हा का ५१ वा वर्ष)।

ब्रम्हा के एक दिन में १४ मनु शाषण करते हैं:
1. स्वयंभू
2. स्वरोचिष
3. उत्तम
4. तामस
5. रैवत
6. चाक्षुष
7. वैवस्वत
8. सावर्णि
9. दक्ष सावर्णि
10. ब्रम्हा सावर्णि
11. धर्म सावर्णि
12. रूद्र सावर्णि
13. देव सावर्णि
14. इन्द्र सावर्णि

इस प्रकार ब्रम्हा के द्वितीय परार्ध (५१ वे) वर्ष के प्रथम दिन के छः मनु व्यतीत हो गए है और सातवे वैवस्वत मनु का अठाईसवा (२८) युग चल रहा है। इकहत्तर (७१) महायुगों का एक मनु होता है। १४ मनुओं का १ कल्प कहा जाता है जो की ब्रम्हा का एक दिन होता है। आदि में ब्रम्हा कल्प और अंत में पद्मा कल्प होता है। इस प्रकार कुल ३२ कल्प होते हैं। ब्रम्हा के परार्ध में रथन्तर तथा उत्तरार्ध में श्वेतवराह कल्प होता है। इस समय श्वेतवराह कल्प चल रहा है। इस प्रकार ब्रम्हा के १ दिन (कल्प) ४०००३२००००००० (चार लाख बतीस "करोड़") मानव वर्ष के बराबर है जिसमे १४ मवंतर होते है. चार युगों का एक महायुग होता है।

1. सतयुग: सतयुग का काल १७२८००० (सत्रह लाख अठाईस हजार) वर्षों का होता है। इस युग में चार अमानवीय अवतार हुए. मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराहावतार एवं नरिसिंघवातर। सतयुग में पाप ० भाग तथा पुण्य २० भाग था। मनुष्यों की आयु १००००० वर्ष, उचाई २१ हाथ, पात्र स्वर्णमय, द्रव्य रत्नमय तथा ब्रम्हांडगत प्राण था। पुष्कर तीर्थ, स्त्रियाँ पद्मिनी तथा पतिव्रता थी। सूर्यग्रहण ३२००० तथा चंद्रग्रहण ५००० बार होते थे। सारे वर्ण अपने धर्म में लीन रहते थे। ब्राम्हण ४ वेद पढने वाले थे।

2. त्रेतायुग: त्रेतायुग का काल १२९६००० (बारह लाख छियान्व्वे हजार) वर्षों का होता है। इस युग में तीन मानवीय अवतार हुए। वामन, परशुराम एवं राम। त्रेता में पाप ५ भाग एवं पुण्य १५ भाग होता था। मनुष्यों की आयु १०००० वर्ष, उचाई १४ हाथ, पात्र चांदी के, द्रव्य स्वर्ण तथा अस्थिगत प्राण था। नैमिषारण्य तीर्थ, स्त्रियाँ पतिव्रता होती थी। सूर्यग्रहण ३२०० तथा चंद्रग्रहण ५०० बार होते थे। सारे वर्ण अपने अपने कार्य में रत थे। ब्राम्हण ३ वेद पढने वाले थे.

3. द्वापर युग: द्वापर युग का काल ८६४००० (आठ लाख चौसठ हजार) वर्षों का होता है। इस युग में २ मानवीय अवतार हुए। कृष्ण एवं बुद्ध। इस युग में पाप १० भाग एवं पुण्य १० भाग का होता था। मनुष्यों की आयु १००० वर्ष, उचाई ७ हाथ, पात्र ताम्र, द्रव्य चांदी तथा त्वचागत प्राण था। स्त्रियाँ शंखिनी होती थी। सूर्यग्रहण ३२० तथा चंद्रग्रहण ५० हुए। वर्ण व्यवस्था दूषित थी तथा ब्राम्हण २ वेद पढने वाले थे।

4. कलियुग: कलियुग का काल ४३२००० (चार लाख ३२ हजार) वर्षों का होता है। इस युग में एक अवतार संभल देश, गोड़ ब्राम्हण विष्णु यश के घर कल्कि नाम से होगा। इस युग में पाप १५ भाग एवं पुण्य ५ भाग होगा। मनुष्यों की आयु १०० वर्ष, उचाई ३.५ हाथ, पात्र मिटटी, द्रव्य ताम्र, मुद्रा लौह, गंगा तीर्थ तथा अन्नमय प्राण होगा। कलियुग के अंत में गंगा पृथ्वी से लीन हो जाएगी तथा भगवान विष्णु धरती का त्याग कर देंगे। सभी वर्ण अपने कर्म से रहित होंगे तथा ब्राम्हण केवल एक वेद पढने वाले होंगे अर्थात ज्ञान का लोप हो जाएगा।

Thursday, October 22, 2015

विजयदशमी।


विजयदशमी।
दशहरा (विजयदशमी या आयुध-पूजा) हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

Tuesday, October 20, 2015

माँ दुर्गा।



माँ दुर्गा।
पुरातन काल में दुर्गम नामक दैत्य हुआ। उसने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर सभी वेदों को अपने वश में कर लिया जिससे देवताओं का बल क्षीण हो गया। तब दुर्गम ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं को देवी भगवती का स्मरण हुआ। देवताओं ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ तथा चण्ड-मुण्ड का वध करने वाली शक्ति का आह्वान किया।

देवताओं के आह्वान पर देवी प्रकट हुईं। उन्होंने देवताओं से उन्हें बुलाने का कारण पूछा। सभी देवताओं ने एक स्वर में बताया कि दुर्गम नामक दैत्य ने सभी वेद तथा स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया है तथा हमें अनेक यातनाएं दी हैं। आप उसका वध कर दीजिए। देवताओं की बात सुनकर देवी ने उन्हें दुर्गम का वध करने का आश्वासन दिया। यह बात जब दैत्यों का राज दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण कर दिया। तब माता भगवती ने देवताओं की रक्षा की तथा दुर्गम की सेना का संहार कर दिया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया।

तब माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उन्हें भी युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। भयंकर युद्ध में भगवती ने दुर्गम का वध कर दिया। दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण भी भगवती का नाम दुर्गा के नाम से भी विख्यात हुआ।

Friday, October 16, 2015

नंदी उत्पत्ती कथा।



नंदी उत्पत्ती कथा।

पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे। अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान मांगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की मांग की। भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भयमुक्त, अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।" भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणोंके अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहा पर नंदी का निवास होगा वहा उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।

Thursday, October 15, 2015

मॉं दुर्गा के 108 नाम।



मॉं दुर्गा के 108 नाम।
नवदुर्गा में भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर आप व्यस्तताओं के चलते ‍विधिवत आराधना ना कर सकें तो मात्र 108 नाम के जाप करें इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है।

सती, साध्वी, भवप्रीता, भवानी, भवमोचनी, आर्या, दुर्गा, जया, आद्या, त्रिनेत्रा, शूलधारिणी, पिनाकधारिणी, चित्रा, चंद्रघंटा, महातपा, बुद्धि, अहंकारा, चित्तरूपा, चिता, चिति, सर्वमंत्रमयी, सत्ता, सत्यानंदस्वरुपिणी, अनंता, भाविनी, भव्या, अभव्या, सदागति, शाम्भवी, देवमाता, चिंता, रत्नप्रिया, सर्वविद्या, दक्षकन्या, दक्षयज्ञविनाशिनी, अपर्णा, अनेकवर्णा, पाटला, पाटलावती, पट्टाम्बरपरिधाना, कलमंजरीरंजिनी, अमेयविक्रमा, क्रूरा, सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातंगी, मतंगमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, एंद्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुंडा, वाराही, लक्ष्मी, पुरुषाकृति, विमला, उत्कर्षिनी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रिया, सर्ववाहनवाहना, निशुंभशुंभहननी, महिषासुरमर्दिनी, मधुकैटभहंत्री, चंडमुंडविनाशिनी, सर्वसुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिनी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिनी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति, अप्रौढ़ा, प्रौढ़ा, वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदुती, कराली, अनंता, परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मावादिनी।
इति श्रीदुर्गा अष्‍टोतरशतनामस्तोत्रम् संपूर्णम्।

Tuesday, October 13, 2015

नवदुर्गा।



नवदुर्गा।
कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी मां सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है। इसके अलावा भी मां के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेरांवाली आदि। इनके दो पुत्र हैं गणेश और कार्तिकेय। इन नवों दुर्गा को पापों के विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के अलग अलग वाहन हैं, अस्त्र शस्त्र हैं परंतु यह सब एक हैं।

निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

1. शैलपुत्री : शैल पुत्री का अर्थ पर्वत राज हिमालय की पुत्री। यह माता का प्रथम अवतार था जो सती के रूप में हुआ था।

2. ब्रह्मचारिणी : ब्रह्मचारिणी अर्थात् जब उन्होंने तपश्चर्या द्वारा शिव को पाया था।

3. चंद्रघंटा : चंद्र घंटा अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।

4. कूष्मांडा : ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कूष्मांड कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वह अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है, इसीलिए कूष्‍मांडा कहलाती है।

5. स्कंदमाता : उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वह स्कंद की माता कहलाती है।

6. कात्यायिनी : महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उनके यहां पुत्री रूप में जन्म लिया था, इसीलिए वे कात्यायिनी कहलाती है।

7. कालरात्रि : मां पार्वती काल अर्थात् हर तरह के संकट का नाश करने वाली है इसीलिए कालरात्रि कहलाती है।

8. महागौरी : माता का रंग पूर्णत: गौर अर्थात् गौरा है इसीलिए वे महागौरी कहलाती है।

9. सिद्धिदात्री : जो भक्त पूर्णत: उन्हीं के प्रति समर्पित रहता है, उसे वह हर प्रकार की सिद्धि दे देती है। इसीलिए उन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।

Monday, October 12, 2015

नवरात्र पूजन विधि।




नवरात्र पूजन विधि।
घट स्थापना-प्रथम नवरात्र को सुबह ईसान कोण में मिट्टी या ताम्रपात्र का कलश लेकर उसमें पानी भरकर, पाँच पत्ते अशोक, आम या पीपल के रखकर, उसपर सीधा नारियल रखों। यथा स्थान पर गेहूँ रखकर कलश रखें व उसपर स्वास्तिक का चिन्ह अंकित करें। व उसके साथ अखण्ड़ ज्योत प्रज्जवलित करनी चाहिए। तिल के तेल या घी का दीपक जलाना चाहिए व नेवैघ (मिठाईयों) का भोग लगाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार पूजा के दौरान स्थापित किये जानें वाले कलश में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का वास होता हैं। और इन सभी कि शक्तियाँ इस कलश में विराजमान रहती हैं। इसलिए देवी कि पूजा में कलश स्थापना का खास महत्व होता हैं। कलश के ऊपर रखा जाने वाला श्रीफल (नारियल) शिव-शक्ति का प्रतीक होता हैं। कलश में लगाई जाने वाली पाँच पतियाँ पीपल, अशोक, गूलर, वट और आम की हो तो सर्वोतम फलदायी मानी जाती हैं। कहते हैं कलश स्थापना से सौभाग्य, विजय के साथ-साथ पूर्वजों का आर्शीवाद मिलता हैं व सभी विध्न दूर होते हैं। पूजन विधि-कृष्ण अगरू, कपूर, चंदन, लोभान, घी व गुगल से घूप देनी चाहिए व देवी माँ कि प्रतिमा को पुष्प चढ़ाकर माला पहनानी चाहिए। देवी माँ को लाल वस्त्रों से सुशोभित करना चाहिए। अनुष्ठान करते समय दुर्गा यंत्र या दुर्गा जी का चित्रपट अवश्यन रखें। जैसा कि हम जानते ही हैं कि नवरात्रि के हर दिन देवी के एक-एक रूप का पूजन-आराधना किया जाता हैं। मंत्रो को भी उसी आधार पर अपने पूजन में प्रयुक्त करें।

व्रत कैसे करें-हमेशा स्नान के बाद शुद्व वस्त्र पहने, ऊनी आसन पर सुखासन में सीधे बैठकर साधना आरम्भ करें। इसके बाद अपने माता-पिता, गुरू, इष्ट व कुल देवता को नमन कर आसन ग्रहण करें। घी का दीपक प्रज्जवलित करें, मंत्र जाप शुरू करने से पहले या मंत्र जाप करते समय दुर्गा जी कि प्रसन्न मुद्रा का ध्यान करें। मंत्र साधना में माला को ढ़क कर या गौमुखी में रखकर मानसिक जाप करना चाहिए। दरअसल इसके पिछे गोपनियता कि भावना निहित हैं। पूजा के दौरान 108 मनकों वाली माला फेरकर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए, जहाँ तक संभव हो रूद्राक्ष या कमल गटे कि माला का प्रयोग करना चाहिए। माला के सभी मनके समान होने चाहिए। और सभी के बीच गांठ होनी चाहिए। अनामिका को सूर्य कि अंगुली माना गया हैं। और सूर्य पाँच देवों में से एक व ग्रहों में प्रधान माने गये हैं। अतः अनामिका के सहारे माला का जाप करना उतम माना गया हैं। माला के मनकों से तर्जनी स्पर्श नहीं होनी चाहिए। माला के सुमेरू को कभी नहीं लांघे इससे जाप निश्फणल हो जाता हैं। सात्विक भोजन दिन में एक हि बार करना चाहिए। भूमि पर सोना चाहिए व पूर्ण ब्रह्मचर्य रहना चाहिए। अन्तिम दिन साधना कि पूर्णाहुति हवन के साथ करना चाहिए।

देवी स्नान-श्री माता को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। वेद का पाठ पढ़कर जगदम्बा को आम या गन्ने के रस से स्नान कराया जाय तो ऐसे भक्त का लक्ष्मी व सरस्वती माँ घर छोड़कर कभी नहीं जाती हैं। द्राक्षा रस से जगदम्बा को स्नान कराने पर देवी कि कृपा हमेशा बनी रहती हैं। माँ को रत्नाभूषणों का दान करने पर भक्त निश्चरय ही धन संपदा प्राप्त करता हैं, वह निधिपति होता है। वेद का पाठ यदि कपूर, अगरू, केसर, कस्तूरी व कमल के जल से स्नान कराने पर समस्त पापों का नाश हो जाता हैं। यदि देवी को दूध भरे कलश से स्नान कराया जाए तो व्यक्ति जल की तरह समृधि पाता हैं। शँख कि ध्वनि अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं। पूजा के प्रारम्भ में व समाप्ति पर शंख ध्वनि का विद्यान वैदिक काल से ही रहा हैं। शंख ध्वनि के प्रभाव से वातावरण पवित्र हो जाता हैं व नकारात्मक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। शंख पूजन से सुख-शांति व लक्ष्मी का घर में प्रवेश होता हैं। शंख ध्वनि सुनकर देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। और शुभ आशीष देते हैं। देवी के आयुधों (अस्त्रों) में से एक आयुध शंख हैं। कुछ लोग पूजा स्थल पर हल्दी व कुंकुम से देवी माँ के चरणों कि आकृति बनाते हैं। यह प्रतीक अत्यंत शुभदायी होता हैं। चरण गतिशीलता का प्रतीक माने जाते हैं। मान्यता है कि माँ के चरणों में आध्यात्मिक उर्जा होती हैं। जो हमारे मस्तिष्क को प्रखर बनाती हैं। पूजा स्थल के अलावा आप घर के मुख्य द्वार पर भी आप चरण बना सकते हैं ताकि माँ कि कृपा आपके कुटुम्ब पर बनी रहें। ध्यान रहें चरणों को आमने-सामने अंकित करने के बजाए दांया चरण आगे व बांया चरण थोड़ा पीछे कि और बनाए।

नवरात्र के नौ दिन माता के सामने अखण्ड ज्योत इसलिए जलाई जाती हैं। इस कामना के साथ कि माता कि साधना में कोई विध्न नहीं आवें। महोदधि (मंत्रो कि शास्त्र पुस्तिका) के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष कियें गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त होता हैं। घृत (घी) युक्त ज्योति को देवी कि दाहिनी और व तेल (तिल) युक्त ज्योति देवी कि बाईं और रखनी चाहिए। इसके लिए एक छोटे दीपक का प्रयोग करना चाहिए। जब अखण्ड ज्योत में घी डालना हो, बत्ती को ठीक करना हो या गुल ठीक करना हो, तो छोटा दीपक कि लौ से जलाकर अलग रख लें। यदि अखण्ड दीपक को ठीक करते हुए आग बुझ जाती हैं। तो छोटे दीपक कि लौ से अखण्ड ज्योत पुनः जलाई जा सकती हैं। छोटे दीपक कि लौ को घी में डुबोकर ही बुझाए। शक्ति की पूजा के प्रथम दिन ज्वारे बोये जाते हैं। जो हमारी साधना की सफलता का प्रतीक होते हैं। बोए जाने के बाद यह जौ जल को अवशोषित करके फूलता हैं। और जौ का अंकुरण नवीन जीवन की उत्पति दर्शाता हैं। पूर्ण स्वस्थ हरे पीलापन लिए हुये जवारे साधना में पूर्ण सफलता व दैवीय कृपा को व्यक्त करते हैं। नौ दिन के बाद माता के विसर्जन के साथ ही ज्वारे विर्सजित कर दिये जाते हैं। एक बार जौ बौ दिए, तो कम से कम नौ साल तक बौना चाहिए। शयन व उपवास अपनी-अपनी श्रद्वा पर निर्भर करता हैं।

पूजा के दौरान देवी को गुलाब या कनेर का लाल फूल अर्पित करना चाहिए। माँ को लाल फूल चढ़ाने से इच्छा शक्ति दृढ़ होती हैं। व सभी इच्छायें पूर्ण होती हैं। शस्त्रों के अनुसार शत्रुओं का मर्दन करते समय रक्त के कारण माता का शरीर लाल हो गया था। और विजय पाकर वो बहुत खुश थी। माँ काली ने अपना यह रूप शुम्भ व निशुम्भ को मारने के लिए रखा था। यह देवी का विकराल रूप हैं। जिनकें एक हाथ में कटा मस्तक व दूसरे हाथ में तलवार होती हैं। माँ काली के द्वारा दानवों के बाद उनके इस भयंकर रूप को शांत करने के लिए देवी के सामने भगवान शिव को धरती पर लेटना पड़ा था। उसी समय माता का क्रोध शांत हुआ था व उनके मुख से जिहवा बाहर आ गई थी। इसी रूप को काली का प्रमुख रूप माना गया हैं। देवी की आराधना अर्द्धरात्रि के समय कि जाती हैं। तब से लाल रंग माता कि प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता हैं। और उन्हें लाल रंग कि वस्तुएं चढ़ाने कि परम्परा बन गई हैं। इसमें वस्त्र, सिंदूर, पुष्प आदि शामिल हैं। ध्यान रहें पूजा के दौरान माता को दूर्वा न चढ़ाये ये माता को अप्रिय हैं।

Tuesday, October 06, 2015

आवश्यक बातें।



आवश्यक बातें।
शयन - सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चहिये। उत्तर या पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से आयु क्षीण होती है तथा शरीर में रोग उत्पन्न होते है। पूर्व की तरफ सिर रख कर सोने से विधा प्राप्त होती है।दक्षिण की तरफ सिर रख कर सोने से धन और आयु की वृद्धि होती है। पश्चिम की तरफ सिर रख कर सोने से प्रबल चिंता होती है। उत्तर की तरफ सिर रख कर सोने से हानि तथा मृत्यु होती है, अथार्त आयु क्षीण होती है। विश्वकर्मप्रकाश में ऐसी बात आती है कि अपने घर में पूर्व की तरफ सिर रख करके , ससुराल में दक्षिण की तरफ सिर रख करके और परदेश ( विदेश ) में पश्चिम की तरफ सिर रख करके सोयें, पर उत्तर की तरफ सिर रख करके कभी न सोयें। मरणासन्न व्यक्ति का सिर उत्तर की तरफ रखना चाहिये और मृत्यु के बाद अंत्येष्ठी - संष्कार के समय उसका सिर दक्षिण की तरफ रखना चहिये।

धन - सम्पति चाहने वाले मनुष्य को अन्न ,गौ , गुरु , अग्नि और देवता के स्थान के ऊपर नहीं सोना चाहिये। तात्पर्य है , कि अन्न - भण्डार , गौशाला , गुरूस्थान , रसोई और मन्दिर के ऊपर शयनकक्ष नहीं होना चाहिये।
शौच - दिन में उत्तर की ओर तथा रात में दक्षिण की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। ऐसा करने से आयु क्षीण (कम) नहीं होती। प्रातः पूर्व की ओर तथा रात्रि पश्चिम की ओर मुख करके मल - मूत्र का त्याग करने से रोग होता है।

भोजन - भोजन सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके करना चाहिये।
दक्षिण अथवा पश्चिम की ओर मुख करके भोजन नहीं करना चाहिये।
दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से उस भोजन में राक्षसी प्रभाव आ जाता है।
पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य की आयु बढ़ती है,
दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य में प्रेतत्व की प्राप्ति होती है,
पश्चिम की ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य रोगी होता है और उत्तर की
ओर मुख करके भोजन करने से मनुष्य की आयु तथा धन की प्राप्ति होती है।