सूर्य मंदिर।
भारत के पूर्वी समुद्री तट पर कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा साम्राज्य के राजा नर्सिम्देव प्रथम ने तेरहवीं सदी में तत्कालीन समय के अनुसार लगभग 40 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की लागत से करवाया था। आठ सौ वर्ष पूर्व की भारतीय निर्माण शास्त्र की अदभुद शैली एवं विज्ञान को देख कर अचंभित होना स्वभाविक है। वहां के कुछ उन्नत निर्माण शौली का विवरण ये रहा-
सम्पूर्ण ढाँचे को बड़े बड़े पत्थरों से बनाया गया है। इन पत्थरो के बीच किसी भी तरह का चुना प्रयोग नहीं किया गया था, अपितु पत्थरों को जोड़ने के लिए बड़ी बड़ी कीलों को क्लैम्पिग किया गया था। यहाँ सूर्य देव के सिंघासन और चक्रों के बीच कीलें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। छतों का भार सहने के लिए बड़ी बड़ी लौह बीम का इस्तेमाल हुआ है। यह बीम आज भी जंक रहित हैं। मन्दिर में अनेक चुम्बक लगी हुई थीं, जिनमे दो अत्यधिक शक्तिशाली चुम्बक मन्दिर के उपर और नीचे लगाई गयीं थीं। सम्पूर्ण स्ट्रक्चर जो लोहे की कील और बीम से जकड़ा गया था, वह सब चुम्बकीय शक्ति से दृण और स्थिर था। यहाँ सूर्य सिंघासन पर एक धातु की सूर्य प्रतिमा थी जो दो चुम्बकों की शक्ति के द्वारा हवा में स्थिर थी। हम सब ने प्रायः भूमि पर हॉरिजॉन्टल सोलर क्लॉक देखा/ सुना है, लेकिन सूर्य मंदिर के रथ का प्रत्येक पहिया एक सोलर क्लॉक है जो कुछ मिनट के एरर से एकदम सटीक समय बताता है।
सत्रवीं शताब्दी में जब भारत के पूर्वी तट पर पुर्तगालियों का आगमन हुआ तो मंदिर की शक्तिशाली चुम्बक द्वारा उनके मैग्नेटिक कम्पास डिस्टर्ब होने के कारण वह भटक जाया करते थे। तब पुर्तगालियों ने मंदिर की मैगनेट को नष्ट कर दिया। चूँकि मैगनेट के द्वारा मंदिर का ढांचा स्थिर था, मैगनेट नष्ट होने के बाद ढांचा कमजोर हो गया और धीरे धीरे गिरने लगा। अपने देश में एक झोपडी भी बनाने की औकात न रखने वाले पश्चिमी एशियाई आक्रमणकारी यहाँ बड़े बड़े ताज महल बनाने का दावा कर गए। कभी किसी पुरातत्वविद से बात कीजिये, पता चलेगा की कैसे यहीं की निर्माण शैली को अपना नाम देकर इतिहास गुमराह कर दिया गया है। और यदि सही से शोध किया जाए तो न जाने कितने ही ताज महल यहाँ तेजो महालय निकलेंगे।
भारत के पूर्वी समुद्री तट पर कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा साम्राज्य के राजा नर्सिम्देव प्रथम ने तेरहवीं सदी में तत्कालीन समय के अनुसार लगभग 40 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की लागत से करवाया था। आठ सौ वर्ष पूर्व की भारतीय निर्माण शास्त्र की अदभुद शैली एवं विज्ञान को देख कर अचंभित होना स्वभाविक है। वहां के कुछ उन्नत निर्माण शौली का विवरण ये रहा-
सम्पूर्ण ढाँचे को बड़े बड़े पत्थरों से बनाया गया है। इन पत्थरो के बीच किसी भी तरह का चुना प्रयोग नहीं किया गया था, अपितु पत्थरों को जोड़ने के लिए बड़ी बड़ी कीलों को क्लैम्पिग किया गया था। यहाँ सूर्य देव के सिंघासन और चक्रों के बीच कीलें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। छतों का भार सहने के लिए बड़ी बड़ी लौह बीम का इस्तेमाल हुआ है। यह बीम आज भी जंक रहित हैं। मन्दिर में अनेक चुम्बक लगी हुई थीं, जिनमे दो अत्यधिक शक्तिशाली चुम्बक मन्दिर के उपर और नीचे लगाई गयीं थीं। सम्पूर्ण स्ट्रक्चर जो लोहे की कील और बीम से जकड़ा गया था, वह सब चुम्बकीय शक्ति से दृण और स्थिर था। यहाँ सूर्य सिंघासन पर एक धातु की सूर्य प्रतिमा थी जो दो चुम्बकों की शक्ति के द्वारा हवा में स्थिर थी। हम सब ने प्रायः भूमि पर हॉरिजॉन्टल सोलर क्लॉक देखा/ सुना है, लेकिन सूर्य मंदिर के रथ का प्रत्येक पहिया एक सोलर क्लॉक है जो कुछ मिनट के एरर से एकदम सटीक समय बताता है।
सत्रवीं शताब्दी में जब भारत के पूर्वी तट पर पुर्तगालियों का आगमन हुआ तो मंदिर की शक्तिशाली चुम्बक द्वारा उनके मैग्नेटिक कम्पास डिस्टर्ब होने के कारण वह भटक जाया करते थे। तब पुर्तगालियों ने मंदिर की मैगनेट को नष्ट कर दिया। चूँकि मैगनेट के द्वारा मंदिर का ढांचा स्थिर था, मैगनेट नष्ट होने के बाद ढांचा कमजोर हो गया और धीरे धीरे गिरने लगा। अपने देश में एक झोपडी भी बनाने की औकात न रखने वाले पश्चिमी एशियाई आक्रमणकारी यहाँ बड़े बड़े ताज महल बनाने का दावा कर गए। कभी किसी पुरातत्वविद से बात कीजिये, पता चलेगा की कैसे यहीं की निर्माण शैली को अपना नाम देकर इतिहास गुमराह कर दिया गया है। और यदि सही से शोध किया जाए तो न जाने कितने ही ताज महल यहाँ तेजो महालय निकलेंगे।
जय श्री हरि:
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