नवरात्र पूजन विधि।
घट स्थापना-प्रथम नवरात्र को सुबह ईसान कोण में मिट्टी या ताम्रपात्र का कलश लेकर उसमें पानी भरकर, पाँच पत्ते अशोक, आम या पीपल के रखकर, उसपर सीधा नारियल रखों। यथा स्थान पर गेहूँ रखकर कलश रखें व उसपर स्वास्तिक का चिन्ह अंकित करें। व उसके साथ अखण्ड़ ज्योत प्रज्जवलित करनी चाहिए। तिल के तेल या घी का दीपक जलाना चाहिए व नेवैघ (मिठाईयों) का भोग लगाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार पूजा के दौरान स्थापित किये जानें वाले कलश में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का वास होता हैं। और इन सभी कि शक्तियाँ इस कलश में विराजमान रहती हैं। इसलिए देवी कि पूजा में कलश स्थापना का खास महत्व होता हैं। कलश के ऊपर रखा जाने वाला श्रीफल (नारियल) शिव-शक्ति का प्रतीक होता हैं। कलश में लगाई जाने वाली पाँच पतियाँ पीपल, अशोक, गूलर, वट और आम की हो तो सर्वोतम फलदायी मानी जाती हैं। कहते हैं कलश स्थापना से सौभाग्य, विजय के साथ-साथ पूर्वजों का आर्शीवाद मिलता हैं व सभी विध्न दूर होते हैं। पूजन विधि-कृष्ण अगरू, कपूर, चंदन, लोभान, घी व गुगल से घूप देनी चाहिए व देवी माँ कि प्रतिमा को पुष्प चढ़ाकर माला पहनानी चाहिए। देवी माँ को लाल वस्त्रों से सुशोभित करना चाहिए। अनुष्ठान करते समय दुर्गा यंत्र या दुर्गा जी का चित्रपट अवश्यन रखें। जैसा कि हम जानते ही हैं कि नवरात्रि के हर दिन देवी के एक-एक रूप का पूजन-आराधना किया जाता हैं। मंत्रो को भी उसी आधार पर अपने पूजन में प्रयुक्त करें।
व्रत कैसे करें-हमेशा स्नान के बाद शुद्व वस्त्र पहने, ऊनी आसन पर सुखासन में सीधे बैठकर साधना आरम्भ करें। इसके बाद अपने माता-पिता, गुरू, इष्ट व कुल देवता को नमन कर आसन ग्रहण करें। घी का दीपक प्रज्जवलित करें, मंत्र जाप शुरू करने से पहले या मंत्र जाप करते समय दुर्गा जी कि प्रसन्न मुद्रा का ध्यान करें। मंत्र साधना में माला को ढ़क कर या गौमुखी में रखकर मानसिक जाप करना चाहिए। दरअसल इसके पिछे गोपनियता कि भावना निहित हैं। पूजा के दौरान 108 मनकों वाली माला फेरकर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए, जहाँ तक संभव हो रूद्राक्ष या कमल गटे कि माला का प्रयोग करना चाहिए। माला के सभी मनके समान होने चाहिए। और सभी के बीच गांठ होनी चाहिए। अनामिका को सूर्य कि अंगुली माना गया हैं। और सूर्य पाँच देवों में से एक व ग्रहों में प्रधान माने गये हैं। अतः अनामिका के सहारे माला का जाप करना उतम माना गया हैं। माला के मनकों से तर्जनी स्पर्श नहीं होनी चाहिए। माला के सुमेरू को कभी नहीं लांघे इससे जाप निश्फणल हो जाता हैं। सात्विक भोजन दिन में एक हि बार करना चाहिए। भूमि पर सोना चाहिए व पूर्ण ब्रह्मचर्य रहना चाहिए। अन्तिम दिन साधना कि पूर्णाहुति हवन के साथ करना चाहिए।
देवी स्नान-श्री माता को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। वेद का पाठ पढ़कर जगदम्बा को आम या गन्ने के रस से स्नान कराया जाय तो ऐसे भक्त का लक्ष्मी व सरस्वती माँ घर छोड़कर कभी नहीं जाती हैं। द्राक्षा रस से जगदम्बा को स्नान कराने पर देवी कि कृपा हमेशा बनी रहती हैं। माँ को रत्नाभूषणों का दान करने पर भक्त निश्चरय ही धन संपदा प्राप्त करता हैं, वह निधिपति होता है। वेद का पाठ यदि कपूर, अगरू, केसर, कस्तूरी व कमल के जल से स्नान कराने पर समस्त पापों का नाश हो जाता हैं। यदि देवी को दूध भरे कलश से स्नान कराया जाए तो व्यक्ति जल की तरह समृधि पाता हैं। शँख कि ध्वनि अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं। पूजा के प्रारम्भ में व समाप्ति पर शंख ध्वनि का विद्यान वैदिक काल से ही रहा हैं। शंख ध्वनि के प्रभाव से वातावरण पवित्र हो जाता हैं व नकारात्मक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। शंख पूजन से सुख-शांति व लक्ष्मी का घर में प्रवेश होता हैं। शंख ध्वनि सुनकर देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। और शुभ आशीष देते हैं। देवी के आयुधों (अस्त्रों) में से एक आयुध शंख हैं। कुछ लोग पूजा स्थल पर हल्दी व कुंकुम से देवी माँ के चरणों कि आकृति बनाते हैं। यह प्रतीक अत्यंत शुभदायी होता हैं। चरण गतिशीलता का प्रतीक माने जाते हैं। मान्यता है कि माँ के चरणों में आध्यात्मिक उर्जा होती हैं। जो हमारे मस्तिष्क को प्रखर बनाती हैं। पूजा स्थल के अलावा आप घर के मुख्य द्वार पर भी आप चरण बना सकते हैं ताकि माँ कि कृपा आपके कुटुम्ब पर बनी रहें। ध्यान रहें चरणों को आमने-सामने अंकित करने के बजाए दांया चरण आगे व बांया चरण थोड़ा पीछे कि और बनाए।
नवरात्र के नौ दिन माता के सामने अखण्ड ज्योत इसलिए जलाई जाती हैं। इस कामना के साथ कि माता कि साधना में कोई विध्न नहीं आवें। महोदधि (मंत्रो कि शास्त्र पुस्तिका) के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष कियें गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त होता हैं। घृत (घी) युक्त ज्योति को देवी कि दाहिनी और व तेल (तिल) युक्त ज्योति देवी कि बाईं और रखनी चाहिए। इसके लिए एक छोटे दीपक का प्रयोग करना चाहिए। जब अखण्ड ज्योत में घी डालना हो, बत्ती को ठीक करना हो या गुल ठीक करना हो, तो छोटा दीपक कि लौ से जलाकर अलग रख लें। यदि अखण्ड दीपक को ठीक करते हुए आग बुझ जाती हैं। तो छोटे दीपक कि लौ से अखण्ड ज्योत पुनः जलाई जा सकती हैं। छोटे दीपक कि लौ को घी में डुबोकर ही बुझाए। शक्ति की पूजा के प्रथम दिन ज्वारे बोये जाते हैं। जो हमारी साधना की सफलता का प्रतीक होते हैं। बोए जाने के बाद यह जौ जल को अवशोषित करके फूलता हैं। और जौ का अंकुरण नवीन जीवन की उत्पति दर्शाता हैं। पूर्ण स्वस्थ हरे पीलापन लिए हुये जवारे साधना में पूर्ण सफलता व दैवीय कृपा को व्यक्त करते हैं। नौ दिन के बाद माता के विसर्जन के साथ ही ज्वारे विर्सजित कर दिये जाते हैं। एक बार जौ बौ दिए, तो कम से कम नौ साल तक बौना चाहिए। शयन व उपवास अपनी-अपनी श्रद्वा पर निर्भर करता हैं।
पूजा के दौरान देवी को गुलाब या कनेर का लाल फूल अर्पित करना चाहिए। माँ को लाल फूल चढ़ाने से इच्छा शक्ति दृढ़ होती हैं। व सभी इच्छायें पूर्ण होती हैं। शस्त्रों के अनुसार शत्रुओं का मर्दन करते समय रक्त के कारण माता का शरीर लाल हो गया था। और विजय पाकर वो बहुत खुश थी। माँ काली ने अपना यह रूप शुम्भ व निशुम्भ को मारने के लिए रखा था। यह देवी का विकराल रूप हैं। जिनकें एक हाथ में कटा मस्तक व दूसरे हाथ में तलवार होती हैं। माँ काली के द्वारा दानवों के बाद उनके इस भयंकर रूप को शांत करने के लिए देवी के सामने भगवान शिव को धरती पर लेटना पड़ा था। उसी समय माता का क्रोध शांत हुआ था व उनके मुख से जिहवा बाहर आ गई थी। इसी रूप को काली का प्रमुख रूप माना गया हैं। देवी की आराधना अर्द्धरात्रि के समय कि जाती हैं। तब से लाल रंग माता कि प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता हैं। और उन्हें लाल रंग कि वस्तुएं चढ़ाने कि परम्परा बन गई हैं। इसमें वस्त्र, सिंदूर, पुष्प आदि शामिल हैं। ध्यान रहें पूजा के दौरान माता को दूर्वा न चढ़ाये ये माता को अप्रिय हैं।
जय माँ जगदम्बा...
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