Sunday, May 31, 2015

सूर्य मंत्र।


सूर्य मंत्र।
आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने ।
जन्मान्तरसहस्रेषु दारिद्र्यं नोपजायते ।।
अर्थ : जो लोग सूर्य को प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, उन्हें सहस्रों जन्म दरिद्रता प्राप्त नहीं होती ।

रविवार का दिन सूर्य उपासना के लिए सबसे उत्तम माना गया है। इस दिन सूर्य को जल चढ़ाने, मंत्र का जाप करने और सूर्य नमस्कार करने से बल, बुद्धि, विद्या, वैभव, तेज, ओज, पराक्रम व दिव्यता आती है। प्रस्तुत है ‘राष्ट्रवर्द्धन’ सूक्त से लिया गया सूर्य का दुर्लभ मं‍त्र -
‘उदसौ सूर्यो अगादुदिदं मामकं वच:।
यथाहं शत्रुहोऽसान्यसपत्न: सपत्नहा।।
सपत्नक्षयणो वृषाभिराष्ट्रो विष सहि:।
यथाहभेषां वीराणां विराजानि जनस्य च।।’

सूर्य की पहली किरण ही दिन की शुरुआत में ही सफलता की ऐसी प्रेरणा देती है। दरअसल, सूर्य की रोशनी, गति, पथ और निश्चित दिशा में उदय ही नहीं अस्त होने पर गौर करें तो व्यावहारिक रूप से सूर्य की चमक से ज्ञान प्राप्ति, गति से कर्म, पथ व दिशा से अनुशासन व मनोयोग की सीख मिलती है। इससे कोई भी लक्ष्य भेदना संभव है। इसलिए धार्मिक दृष्टि से सूर्य उपासना भी निरोगी जीवन के साथ यश, सम्मान व प्रतिष्ठा देने वाली मानी गई है। यही वजह है कि हर सुबह खासतौर पर रविवार को सूर्य उपासना के लिए शास्त्रों में सुबह सूरज के सामने कुछ विशेष मंत्र का स्मरण मात्र भी बेजोड़ सफलता से पद, प्रतिष्ठा देने वाला माना गया है।

Thursday, May 28, 2015

गंगा दशहरा।


गंगा दशहरा।
गंगा दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को दशहरा कहते हैं। इसमें स्नान, दान, रूपात्मक व्रत होता है। स्कन्दपुराण में लिखा हुआ है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत्सरमुखी मानी गई है इसमें स्नान और दान तो विशेष करके करें। किसी भी नदी पर जाकर अर्घ्य (पू‍जादिक) एवं तिलोदक (तीर्थ प्राप्ति निमित्तक तर्पण) अवश्य करें। ऐसा करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है।

यदि ज्येष्ठ शुक्ला दशमी के दिन मंगलवार रहता हो व हस्त नक्षत्र युता तिथि हो यह सब पापों के हरने वाली होती है। वराह पुराण में लिखा हुआ है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी बुधवारी में हस्त नक्षत्र में श्रेष्ठ नदी स्वर्ग से अवतीर्ण हुई थी वह दस पापों को नष्ट करती है। इस कारण उस तिथि को दशहरा कहते हैं। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर, आनंद, व्यतिपात, कन्या का चंद्र, वृषभ के सूर्य इन दस योगों में मनुष्य स्नान करके सब पापों से छूट जाता है।

भविष्य पुराण में लिखा हुआ है कि, जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार इस स्तोत्र को पढ़ता है चाहे वो दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है। यह दशहरा के दिन स्नान करने की विधि पूरी हुई। स्कंद पुराण का कहा हुआ दशहरा नाम का गंगा स्तोत्र और उसके पढ़ने की विधि - सब अवयवों से सुंदर तीन नेत्रों वाली चतुर्भुजी जिसके कि, चारों भुज, रत्नकुंभ, श्वेतकमल, वरद और अभय से सुशोभित हैं, सफेद वस्त्र पहने हुई है।
मुक्ता मणियों से विभूषित है, सौम्य है, अयुत चंद्रमाओं की प्रभा के सम सुख वाली है जिस पर चामर डुलाए जा रहे हैं, वाल श्वेत छत्र से भलीभाँति शोभित है, अच्छी तरह प्रसन्न है, वर के देने वाली है, निरंतर करुणार्द्रचित्त है, भूपृष्ठ को अमृत से प्लावित कर रही है, दिव्य गंध लगाए हुए है, त्रिलोकी से पूजित है, सब देवों से अधिष्ठित है, दिव्य रत्नों से विभूषित है, दिव्य ही माल्य और अनुलेपन है, ऐसी गंगा के पानी में ध्यान करके भक्तिपूर्व मंत्र से अर्चना करें। 'ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे माँ पावय पावय स्वाहा' यह गंगाजी का मंत्र है।

इसका अर्थ है कि, हे भगवति गंगे! मुझे बार-बार मिल, पवित्र कर, पवित्र कर, इससे गंगाजी के लिए पंचोपचार और पुष्पांजलि समर्पण करें। इस प्रकार गंगा का ध्यान और पूजन करके गंगा के पानी में खड़े होकर ॐ अद्य इत्यादि से संकल्प करें कि, ऐसे-ऐसे समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लेकर दशमी तक रोज-रोज एक बढ़ाते हुए सब पापों को नष्ट करने के लिए गंगा स्तोत्र का जप करूँगा। पीछे स्तोत्र पढ़ना चाहिए। ईश्वर बोले कि, आनंदरूपिणी आनंद के देने वाली गंगा के लिए बारंबार नमस्कार है।

विष्णुरूपिणी के लिए और तुझ ब्रह्म मूर्ति के लिए बारंबार नमस्कार है।। 1।। तुझ रुद्ररूपिणी के लिए और शांकरी के लिए बारंबार नमस्कार है, भेषज मूर्ति सब देव स्वरूपिणी तेरे लिए नमस्कार है।। 2।।  सब व्याधियों की सब श्रेष्ठ वैद्या तेरे लिए नमस्कार, स्थावर जंगमों के विषयों को हरण करने वाली आपको नमस्कार।। 3।।

Tuesday, May 26, 2015

मार्कंडेय पुराण।


मार्कंडेय पुराण।
महर्षि ब्यास जी ने मानव कल्याण के लिये नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं भौतिक विषयों से परिपूर्ण इस पुराण की रचना की है। इस पुराण को जैमिनी ऋषि मार्कण्डेय जी से प्रश्न पूछते हैं जिसका समाधान मार्कण्डेय जी करते हैं। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा कथन किये जाने से इसका नाम मार्कण्डेय पुराण पड़ा। इस पुराण में चण्डी देवी का महात्मय विस्तार पूर्वक वर्णन है। दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का ही एक अंश है। दूर्गा सप्तसती का भारत वर्ष के वैष्णव, शाक्त, शैव आदि जितने भी सम्प्रदाय के लोग हैं, बड़ी श्रद्धा से पाठ करते हैं। वर्तमान में मार्कण्डेय पुराण में 137 अध्याय एवं 9 हजार श्लोक विद्यमान हैं।

विभिन्न उपाख्यान एवं महात्मय से भरे हुये इस पुराण में राजा हरीशचन्द्र का उपाख्यान बहुत करूण एवं मार्गिक प्रसंग है। सत्य की रक्षा के लिये राजा हरीशचन्द्र ने न केवल अपना राज्य धन, ऐश्वर्य अपितु पुत्र एवं पत्नी को भी बेच दिया एवं स्वयं ऋषि विश्वामित्र की दक्षिणा पूरी करने के लिये श्मशान में चाण्डाल बनकर सेवा करने लगे। मदालसा का चरित्र इस पुराण में विशेष रूप से उल्लिखित है।

मार्कण्डेय पुराण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग दुर्गा सप्तशती है। जिसमें माँ भगवती के तीन चरित्रों का वर्णन है। जिसमें प्रथम चरित्र में सुरथ नामक राजा शत्रुओं तथा दुष्ट मंत्रियों के कारण राज्य एवं धन हाथ से निकल जाने पर वन में आ गया और मेघा ऋषि के आश्रम पर रहने लगा। वहाँ उसकी भेंट समाधि नामक वैश्य से हुई। इस चरित्र में सुरथ एवं समाधि वैश्य का संवाद है। मध्यमचरित्र में महिषासुर वध की अद्भुत कथा का वर्णन है। उत्तम चरित्र में शुम्भ-निशुम्भ दो पराक्रमी दानव, जिन्होंनें इन्द्रादि देवताओं को युद्ध में हराकर उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया और स्वयं त्रिलोकी के अधिपति बन गये। इस चरित्र में माँ भगवती ने धूम्रलोचन वध, चण्ड-मुण्ड वध, रक्तबीज एवं शुम्भ-निशुम्भ दोनों को मारकर त्रिलोकी को इन असुरों के आक्रान्त से बचाकर देवताओं को त्रिलोकी का साम्राज्य वापिस दिलवाया।

मार्कण्डेय पुराण सुनने का फल:-
मार्कण्डेय पुराण सुनने से जीव के सारे पाप क्षय हो जाते हैं, धर्म की वष्द्धि होती है। माँ दुर्गा के इन चरित्रों को सुनने से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य दीर्घजीवी होता है तथा संसार के समस्त सुखों को भोगकर माँ भगवती के लोक को प्राप्त करता है। सत्वगुणी ब्राह्मी शक्ति एवं महासरस्वती वाक् शक्ति में विराजमान रहती है जबकि रजोगुणी वैष्णवी देवी महालक्ष्मी मन की शक्ति है और तमोगुण रूद्र शक्ति महाकाली प्राण शक्ति है। ऐं हृी क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः। इस मंत्र में ऐं महाकाली, हृीं महालक्ष्मी एवं क्लीं महासरस्वती का बीजमंत्र है। जिसका निरन्तर जाप करने से परम् सिद्धि की प्राप्ति होती है।

मार्कण्डेय पुराण करवाने का मुहुर्त:-
मार्कण्डेय पुराण कथा करवाने के लिये सर्वप्रथम विद्वान ब्राह्मणों से उत्तम मुहुर्त निकलवाना चाहिये। मार्कण्डेय पुराण के लिये श्रावण-भाद्रपद, आश्विन, अगहन, माघ, फाल्गुन, बैशाख और ज्येष्ठ मास विशेष शुभ हैं। लेकिन विद्वानों के अनुसार जिस दिन मार्कण्डेय पुराण कथा प्रारम्भ कर दें, वही शुभ मुहुर्त है।
मार्कण्डेय पुराण का आयोजन कहाँ करें?:-

मार्कण्डेय पुराण करवाने के लिये स्थान अत्यधिक पवित्र होना चाहिये। जन्म भूमि में मार्कण्डेय पुराण करवाने का विशेष महत्व बताया गया है - जननी जन्मभूमिश्चः स्वर्गादपि गरियशी - इसके अतिरिक्त हम तीर्थों में भी मार्कण्डेय पुराण का आयोजन कर विशेष फल प्राप्त कर सकते हैं। फिर भी जहाँ मन को सन्तोष पहुँचे, उसी स्थान पर कथा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।

मार्कण्डेय पुराण करने के नियम:-
मार्कण्डेय पुराण का वक्ता विद्वान ब्राह्मण होना चाहिये। उसे शास्त्रों एवं वेदों का सम्यक् ज्ञान होना चाहिये। मार्कण्डेय पुराण में सभी ब्राह्मण सदाचारी हों और सुन्दर आचरण वाले हों। वो सन्ध्या बन्धन एवं प्रतिदिन गायत्री जाप करते हों। ब्राह्मण एवं यजमान दोनों ही सात दिनों तक उपवास रखें। केवल एक समय ही भोजन करें। भोजन शुद्ध शाकाहारी होना चाहिये। स्वास्थ्य ठीक न हो तो भोजन कर सकते हैं।

मार्कण्डेय पुराण में कितना धन लगता है?:-
इस भौतिक युग में बिना धन के कुछ भी सम्भव नहीं एवं बिना धन के धर्म भी नहीं होता। पुराणों में वर्णन है कि पुत्री के विवाह में जितना धन लगे उतना ही धन मार्कण्डेय पुराण में लगाना चाहिये और पुत्री के विवाह में जितनी खुशी हो उतनी ही खुशी मन से मार्कण्डेय पुराण को करना चाहिये।
‘‘विवाहे यादष्शं वित्तं तादष्श्यं परिकल्पयेत’’

इस प्रकार मार्कण्डेय पुराण सुनने से मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है।

Sunday, May 24, 2015

सूर्य भगवान।

सूर्य भगवान।
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

Friday, May 22, 2015

नर्क का वर्णन।



नर्क का वर्णन।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास में पुराणों का बहुत गहरा प्रभाव रहा है। कहते हैं कि पुराणों की रचना स्वयं ब्रह्मा जी ने सृष्टि के प्रथम और प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में की थी। ऐसी मान्यता है कि पुराण उचित और अनुचित का ज्ञान करवाकर मनुष्य को धर्म और नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं। ये मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें सत्कर्म करने को प्रेरित करते हैं और दुष्कर्म करने से रोकते हैं।

यद्यपि पुराणों की विषय-वस्तु में समय-समय पर कतिपय स्वार्थी व लालची व्यक्तियों (पुरोहितों) द्वारा कर्मकाण्डों व रूढ़ियों की मिलावट भी की गयी है, फिर भी इनमें लिखित अनेक प्रकरण वस्तुतः उच्च मानवीय मूल्यों के पोषक व नैतिक जीवन के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करने वाले हैं। कुछ अंश तो इतने अद्भुत, रोचक व भावपूर्ण हैं कि इनको पढ़ने से मन में अपने आस-पास के मानव समाज का चित्र सहज ही खिंचता चला जाता है।

मैं यहाँ ऐसा ही एक रोचक विवरण ‘गरुड़ पुराण’ से प्रस्तुत कर रहा हूँ। गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु द्वारा अपने वाहन गरुड़ की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए दिए गये उपदेशों का उल्लेख किया गया है। महर्षि कश्यप के पुत्र पक्षीराज गरुड़ ने भगवान विष्णु से प्राणियों की मृत्यु के बाद की स्थिति, जीव की यमलोक यात्रा, विभिन्न कर्मों से प्राप्त होने वाले नरकों, योनियों तथा पापियों की दुर्गति से सम्बन्धित अनेक गूढ़ प्रश्न पूछे थे। इन्ही रहस्यों से संबन्धित प्रश्नों का समाधान करते हुए इस पुराण में एक जगह बताया गया है कि यमलोक में ‘चौरासी लाख’ नरक होते हैं। मृत्यु लोक में मनुष्य द्वारा जिस-जिस प्रकार के “पापकर्म” किये गये होते हैं, उसी के अनुसार अलग-अलग प्रकार के नरकों का निर्धारण/आबन्टन यमपुरी के अधिकारी (धर्मध्वज, चित्रगुप्त और धर्मराज) उसकी मृत्यु के बाद करते हैं। यहाँ कुछ चुने हुए विशेष प्रकार के “नरकों” और जिन कर्मों के फलस्वरूप ये भोगे जाते हैं उन विशिष्ट प्रकार के “पापकर्मों” का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है:-

तामिस्र: जो व्यक्ति दूसरों के धन ,स्त्री और पुत्र का अपहरण करता है, उस दुरात्मा को तामिस्र नामक नरक में यातना भोगनी पड़ती है। इसमें यमदूत उसे अनेक प्रकार का दण्ड देते हैं ।

अंधतामिस्र: जो पुरूष किसी के साथ विश्वासघात कर उसकी स्त्री से समागम करता है, उसे अंधतामिस्र नरक में घोर यातना भोगनी पड़ती है।इस नरक में वह नेत्रहीन हो जाता है।

महारौरव: इस नरक में माँस खाने वाले रूरू जीव दूसरे जीवों के प्रति हिंसा करने वाले प्राणियों को पीड़ा देते हैं ।

कुम्भीपाक: पशु-पक्षी आदि जीवों को मार कर पकाने वाला मनुष्य कुम्भीपाक नरक में गिरता है। यहाँ यमदूत उसे गरम तेल में उबालते हैं।

असिपत्र: वेदों के बताए मार्ग से हट कर पाखण्ड का आश्रय लेने वाले मनुष्य को असिपत्र नामक नरक में कोड़ों से मारकर दुधारी तलवार से उसके शरीर को छेदा जाता है।

शूकरमुख: अधर्मपूर्ण जीवनयापन करने वाले या किसी को शारीरिक कष्ट देने वाले मनुष्य को शूकरमुख नरक मे गिराकर ईख के समान कोल्हू में पीसा जाता है।

अंधकूप: दूसरे के दुःख को जानते हुए भी कष्ट पहुचाने वाले व्यक्ति को अंधकूप नरक में गिरना पड़ता है। यहाँ सर्प आदि विषैले और भयंकर जीव उसका खून पीते हैं।

संदंश: धन चुराने या जबरदस्ती छीनने वाले प्राणी को संदंश नामक नरक में गिरना पड़ता है। जहाँ उसे अग्नि के समान संतप्त लोहे के पिण्डों से दागा जाता है।

तप्तसूर्मि: जो व्यक्ति जबरन किसी स्त्री से समागम करता है, उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में कोड़े से पीटकर लोहे की तप्त खंभों से आलिंगन करवाया जाता है।

शाल्मली: जो पापी व्यक्ति पशु आदि प्राणियों से व्यभिचार करता है, उसे शाल्मली नामक नरक में गिरकर लोहे के काँटों के बीच पिसकर अपने कर्मों का फ़ल भोगना पड़ता है।

वैतरणी: धर्म का पालन न करने वाले प्राणी को वैतरणी नामक नरक में रक्त, हड्डी, नख, चर्बी, माँस आदि अपवित्र वस्तुओं से भरी नदी में फेंक दिया जाता है।

प्राणरोध: मूक प्राणियों का शिकार करने वाले लोगों को प्राणरोध नामक नरक में तीखे बाणों से छेदा जाता है।

विशसन: जो मनुष्य यज्ञ में पशु की बलि देतें हैं, उन्हें विशसन नामक नरक में कोड़ों से पीटा जाता है।

लालाभक्ष: कामावेग के वशीभूत होकर सगोत्र स्त्री के साथ समागम करने वाले पापी व्यक्ति को लालाभक्ष नरक में रहकर वीर्यपान करना पड़ता है।

सारमेयादन: धन लूटने वाले अथवा दूसरे की सम्पत्ति को नष्ट करने वाले को व्यक्ति को सारमेयादन नरक में गिरना पड़ता है। जहाँ सारमेय नामक विचित्र प्राणी उसे काट-काट कर खाते हैं।

अवीचि: दान एवं धन के लेन-देन में साक्षी बनकर झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति को अवीचि नरक में, पर्वत से पथरीली भूमि पर गिराया जाता है; और पत्थरों से छेदा जाता है।

अयःपान: मदिरापान करने वाले मनुष्य को अयःपान नामक नरक में गिराकर गर्म लोहे की सलाखों से उसके मुँह को छेदा जाता है।

क्षारकर्दम: अपने से श्रेष्ठ पुरूषों का सम्मान न करने वाला व्यक्ति क्षारकर्दम नामक नरक में असंख्य पीड़ाएँ भोगता है।

शूलप्रोत: पशु-पक्षियों को मारकर अथवा शूल चुभोकर मनोरंजन करने वाले मनुष्य को शूलप्रोत नाम नरक में शूल चुभाए जाते हैं। कौए और बटेर उसके शरीर को अपनें चोंचों से छेदते हैं।

अवटनिरोधन: किसी को बंदी बनाकर, उसे अंधेरे स्थान पर रखने वाले व्यक्ति को अवटनिरोधन नामक नरक में रखकर विषैली अग्नि के धुएँ से कष्ट पहुँचाया जाता है।

पर्यावर्तन: घर आए अतिथियों को पापी दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति को पर्यावर्तन नामक नरक में रखा जाता है।जहाँ कौए, गिद्ध, चील, आदि क्रूर पक्षी अपनी तीखी चोंचों से उसके नेत्र निकाल लेते हैं।

सूचीमुख: सदा धन संग्रह में लगे रहने वाले और दूसरों की उन्नति देखकर ईर्ष्या करने वाले मनुष्य को सूचीमुख नरक में यमदूत सूई से वस्त्र की भाँति सिल देते हैं।

कालसूत्र: पिता और ब्राह्मण से वैर करने वाले मनुष्य को इस नरक में कोड़ों से मारा जाता है; और दुधारी तलवार से छेदा जाता है।

पूर्ण सूची देना कठिन है क्यों कि इनकी कुल संख्या ८४ लाख बतायी जाती है। लेकिन इतने से ही यह तो स्पष्ट होता ही है कि इस संसार में मनुष्य योनि में पैदा होने वाले जीवों के भीतर जो पापकर्म दिखायी देते हैं उनकी पहचान भारतीय सभ्यता के आदिकाल में ही बहुत सूक्ष्मता से कर ली गयी थी।



Wednesday, May 20, 2015

ज्‍वाला देवी।


ज्‍वाला देवी।
ज्वालामुखी मंदिर, कांगडा घाटी से 30 कि.मी. दक्षिण में हिमाचल प्रदेश में स्थित है। यह मंदिर 51 शक्ति पीठों में शामिल है। ज्वालामुखी मंदिर को जोता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवो को जाता है। उन्हीं के द्वारा इस पवित्र धार्मिक स्थल की खोज हुई थी। इस स्थाल पर माता सती की जीभ गिरी थी। इस मंदिर में माता के दर्शन ज्योति रूप में होते है। ज्वालामुखी मंदिर के समीप में ही बाबा गोरा नाथ का मंदिर है। जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद के करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया। मंदिर के अंदर माता की नौ ज्योतियां है जिन्हें, महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी,सरस्वती, अम्बिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है।

दूर्गा सप्तशती और देवी महात्यमय के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच में सौ वर्षों तक युद्ध चला था। इस युद्ध में असुरो की सेना विजयी हुई। असुरो का राजा महिषासुर स्वर्ग का राजा बन गया और देवता सामान्य मनुष्यों कि भांति धरती पर विचलण करने लगे। तब पराजित देवता ब्रहमा जी को आगे कर के उस स्थान पर गये जहां शिवजी, भगवान विष्णु के पास गए। सारी कथा कह सुनाई। यह सुनकर भगवान विष्णु, शिवजी ने बड़ा क्रोध किया उस क्रोध से विष्णु, शिवजी के शरीर से एक एक तेज उत्पन्न हुआ। भगवान शंकर के तेज से उस देवी का मुख, विष्णु के तेज से उस देवी की वायें, ब्रहमा के तेज से चरण तथा यमराज के तेज से बाल, इन्द्र के तेज से कटि प्रदेश तथा अन्य देवता के तेज से उस देवी का शरीर बना। फिर हिमालय ने सिंह, भगवान विष्णु ने कमल, इंद्र ने घंटा तथा समुद्र ने कभी न मैली होने वाली माला प्रदान की। तभी सभी देवताओं ने देवी की आराधना की ताकि देवी प्रसन्न हो और उनके कष्टो का निवारण हो सके। और हुआ भी ऐसा ही। देवी ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान दे दिया और कहा मै तुम्हारी रक्षा अवश्य करूंगी। इसी के फलस्वरूप देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। जिसमें देवी कि विजय हुई और तभी से देवी का नाम महिषासुर मर्दनी पड़ गया।

ज्वालामुखी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों मे से एक है। पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। जिन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधो के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नही किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नही समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। यज्ञ स्‍थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गयीं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी मे माता सती की जीभ गिरी थी। ज्वालामुखी मंदिर को जोता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है।

Sunday, May 17, 2015

श्री शनिदेव।

श्री शनिदेव।
श्री शनिदेव दुखदायक नहीं, सुखदायक हैं। वे न्यायप्रिय ग्रह हैं, जीवों को उनके कर्मो के आधार पर फल देते हैं। यदि उनकी अनुकंपा पानी हो तो अपना कर्म सुधारें। आपका जीवन अपने आप सुधर जाएगा।

शनि जयंती पर सुख और समृद्धि चाहते हों तो श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें। श्री शनिदेव को इस दिन किया गया तैलाभिषेक बहुत ही फलदायी होता है। इससे शनिदेव शीघ्र प्रसन्न होकर शनिभक्तों को ग्रह जनित बाधाओं से छुटकारा दिलाते हैं। इस दिन जो भी शनिदेव की पवित्र मन से पूजा-पाठ करता है, उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। इस दिन गरीब, असहाय व जरूरतमंद लोगों की सेवा व सहायता करने वाले लोगों पर भी श्रीशनिदेव की विशेष अनुकंपा होती है। श्री शनिदेव अपने भक्तों में किसी प्रकार का खोट देखना पसंद नहीं करते। यदि भक्त से कोई खोट होता है तो उसे तुरंत दंड देकर उसकी भूल सुधारने का संकेत देते हैं।

धर्मग्रंथो के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि देव छाया के गर्भ में थे तब छाया भगवन शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी की उसने अपने खाने पिने तक शुध नहीं थी जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण श्याम हो गया !शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं ! तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखता हैं ! शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भाँति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही हैं, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व् प्रताड़ित किया गया हैं ! अतः माता की इक्छा हैं कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने ! तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा ! मानव तो क्या देवता भी तुम्हरे नाम से भयभीत रहेंगे!

शनि के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं।माता के छल के कारण पिता ने उसे शाप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा,"आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाये"। यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया। पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ। एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है"। एक आख्यान और मिलता है, कि किस प्रकार से ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया, अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,शमशान की रखवाली तक करनी पडी, या राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं, फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे भुगतना तो पडेगा ही।

मत्स्य पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिद्ध पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है,शनि देव का विकराल रूप भयावना भी है।शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं।

Friday, May 15, 2015

गरूड़ पुराण।



गरूड़ पुराण।
पुराण साहित्य में गरूड़ पुराण का प्रमुख स्थान है। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि मष्त्यु के पश्चात् गरूड़ पुराण कराने से जीव को वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हो जाती है। गरूड़ पुराण में 19 हजार श्लोक हैं किन्तु वर्तमान में कुल 7 हजार श्लोक ही प्राप्त होते हैं। प्रेत योनि को भोग रहे व्यक्ति के निमित्त गरूड़ पुराण करवाने से उसे आत्मशान्ति प्राप्त होती है और वह प्रेत योनि से मुक्त हो जाता है। गरूड़ पुराण में प्रेत योनि एवं नर्क से बचने के उपाय बताये गये हैं। इनमें प्रमुख उपाय दान-दक्षिणा, पिण्ड दान, श्राद्ध कर्म आदि बताये गये हैं। मष्त आत्मा की सद्गति हेतु पिण्ड दानादि एवं श्राद्ध कर्म अत्यन्त आवश्यक हैं और यह उपाय पुत्र के द्वारा अपने मष्तक पिता के लिये है क्योंकि पुत्र ही तर्पण या पिण्ड दान करके पुननामक नर्क से पिता को बचाता है। पुत्र का मुख देखकर पिता पैतष्क ऋण से मुक्त हो जाता है।

मृत्‍यु के बाद क्या होता है:-
यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर जानने की इच्छा सभी को होती है और सभी अपने-अपने तरीके से इसका उत्तर भी देते हैं। गरूड़ पुराण भी इसी प्रश्न का उत्तर देता है। मनुष्य अपने जीवन में शुभ, अशुभ, पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक जो भी कर्म करता है गरूड़ पुराण ने उसे तीन भागों में विभक्त किया है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे कर्मों को इसी लोक में भोग लेता है। दूसरी अवस्था में मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चैरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्म के अनुसार जन्म लेता है। तीसरी अवस्था में वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग और नर्क को प्राप्त करता है। गरूड़ पुराण के अनुसार जो दूसरे की सम्पत्ति को हड़पता है, मित्र से विश्वासघात करता है, ब्राह्मणों की सम्पत्ति से अपना पालन करता है, मन्दिर से धन चुराता है, परायी-स्त्री या पर-पुरूष से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, जो अपनी निर्दोष माता, बहन, पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु, पुत्र, इन्हें बिना किसी कारण के त्यागता है उसे भयंकर नरक योनि में जाना पड़ता है एवं उसकी कभी मुक्ति नहीं होती है। इस संसार में भी ऐसे पापी व्यक्ति को अनेक रोग एवं कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, घर में कलह, कष्षि हानि, ज्वर, सन्तान मष्त्यु आदि दुःख से वह जीवन भर दुःखी रहता है। अन्त समय उसका बड़ा कष्टमय होता है तथा मरने के पश्चात वह भयंकर प्रेत योनि में चला जाता है।

शीघ्रंप्रचलदुष्टात्मन् गतोऽसित्वं यमायलं
कुम्भीपाकादिनरकात्वं नेष्यामश्च माचिम् (गरूड़ पुराण)
दुष्ट एवं पापी व्यक्ति को यमदूत पकड़ कर कुम्भीपाक आदि नरकों में कोड़े मारते हुये, घसीटते हुये लिये चलते हैं। वहाँ यमदूत उसे पाश में बाँध देते हैं। वह भूख-प्यास से अत्यधिक व्याकुल और विकल होकर दुःख सहन करते हुये रोता है। उस समय मष्त्यु काल में दिये दान अथवा स्वजनों द्वारा मष्त्यु के समय दिये पिण्डों को वह खाता है, तब भी उसकी तष्प्ति नहीं होती। पिण्ड दान देने पर भी वह भूख एवं प्यास से व्याकुल लगता है। माँस भक्षण करने वाले व्यक्ति को नरक में वे सभी जीव मिलते हैं, जिनका उसने माँस-भक्षण किया था, और वे वहाँ उसके माँस को नोचते रहते हैं तथा वह कई कल्पों तक प्रेत योनि में भटकता रहता है। जब ऋषि के श्राप से प्रेरित तक्षक नाग राजा परीक्षित को डसने जा रहा था, तब मार्ग में महर्षि कश्यप से उनकी भेंट हुयी। तक्षक ने ब्राह्मण का वेश बनाया और पूछा, ‘‘महाराज, आप इतनी उतावली में कहाँ जा रहे हो।’’ तब ऋषि कश्यप ने कहा कि ‘‘तक्षक नाग राजा परीक्षित को डसने जा रहा है और मेरे पास ऐसी विद्या है कि मैं राजा परीक्षित को पुनः जीवन दान दे दूँगा।’’ तक्षक ने सुना तो अपना परिचय दिया, कहा ‘‘ऋषिवर, मैं ही तक्षक हूँ और मेरे विष का प्रभाव है कि कोई आज तक मेरे विष से बच नहीं सका।’’ तब ऋषि कश्यप ने कहा कि मैं अपनी मंत्र शक्ति से राजा परीक्षित को फिर से जीवित कर दूँगा। इस पर तक्षक ने कहा, ‘‘यदि ऐसी बात है तो आप इस वृक्ष को हरा-भरा करके दिखाइये, मैं इसे डस कर भष्म कर देता हूँ।’’ ज्यों तक्षक नाग ने हरे-भरे वृक्ष को डंस मारा, त्योंहि वह हरा-भरा वृक्ष विष के दुष्प्रभाव से जल कर राख हो गया। तब ऋषि कश्यप ने अपने कमण्डल से अपने हाथ में जल लेकर वृक्ष की राख मे छींटा मारा तो वह वृक्ष अपने स्थान पर फिर से हरा-भरा होकर अपने स्थान पर खड़ा हो गया। तक्षक को बड़ा आश्चर्य हुआ और पूछा, ऋषिवर आप वहाँ किस कारण से जा रहे हैं। इस पर ऋषि कश्यप ने बताया कि मैं राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करूँगा तो मुझे बहुत-सा धन मिलेगा। तक्षक ने ऋषि कश्यप को संभावना से ज्यादा धन देकर विदा करना चाहा लेकिन ऋषि कश्यप ने यह उचित नहीं समझा और नहीं माने। वहाँ पर तक्षक ने ऋषि कश्यप को गरूड़ पुराण की कथा सुनायी, जिससे ऋषि कश्यप को ज्ञान हुआ कि जिसने जो कर्म किया वह अवश्य ही भोगना पड़ेगा और किसी के बचाने से कोई बच नहीं सकता। इस प्रकार से ऋषि कश्यप बहुत-सा धन लेकर वहीं से विदा हो गये। वास्तव मे गरूड़ पुराण सुनने से मनुष्य को सच्चे ज्ञान एवं वैराग्य की प्राप्ति होती है और वह बुरे कर्म करने से बचता है तथा जीवन का यथार्थ ज्ञान उसे मिलता है। इस पुराण में महर्षि कश्यप और तक्षक नाग को लेकर एक कथा है।

Thursday, May 14, 2015

ब्रह्माण्ड पुराण।

ब्रह्माण्ड पुराण।
ब्रह्माण्ड पुराण में ब्रह्माण्ड का विस्तार एवं भौगोलिक वर्णन है। गणना की दृष्टि से यह पुराण 18वाँ महापुराण है। यह पुराण तीन भागों में विभक्त है। पूर्व, मध्यम तथा उत्तर। इस पुराण में 156 अध्याय एवं 12 हजार श्लोक हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इस पुराण का विशेष महत्व है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से भी यह पुराण उच्च कोटि का पुराण है।

ब्रह्माण्डचरितोक्त्वाद् ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम्।।
गुरू अपना श्रेष्ठ ज्ञान सर्वप्रथम अपने योग्य शिष्य को देता है। जैसे ब्रह्मा ने यह ज्ञान वशिष्ठ को, वशिष्ठ ने अपने पौत्र पाराशर को, पाराशर ने जातुकर्ण ऋषि को, जातुकर्ण ने द्वैपायन को, द्वैपायन ने इस पुराण का ज्ञान अपने पाँच शिष्यों जैमिनी, सुमन्तु, वैश्यमपायन, पेलव और लोमहर्षण सूत को दिया। लोमहर्षण सूतजी ने इसे भगवान वेद व्यास जी से सुना। फिर नैमिषारण्य तीर्थ में हजारों ऋषि-मुनियों को इस पुराण की कथा सुनायी।

ब्रह्माण्ड पुराण में चोरी करना महापाप बताया गया है। देवताओं एवं ब्राह्मणों की सम्पत्ति की चोरी करने वाला व्यक्ति दण्ड का अधिकारी होता है। इस पावन पुराण में चारों युगों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। राजाओं के गुण-दोष, ध्रुव-चरित्र, गंगावतरण की कथा, त्रिपुर सुन्दरी भाण्डासुर कथा, विश्वामित्र आख्यान, वर्णाश्रम धर्म, हयग्रीव अवतार इत्यादि कथायें इस पुराण की महिमा को और भी बढ़ाते हैं।

ब्रह्माण्ड पुराण कथा सुनने का फल:-
ब्रह्माण्ड पुराण के उपदेष्टा प्रजापति ब्रह्मा को माना जाता है। इस पुराण को पाप नाशक, पुण्य प्रदान करने वाला, और सर्वाधिक पवित्र माना गया है। यह यश, आयु, कीर्ति और श्री की वृद्धि करने वाला पुराण है।

Tuesday, May 12, 2015

मत्स्य पुराण।

मत्स्य पुराण।
मत्स्य पुराण अष्टादश पुराणों में से एक मुख्य पुराण है। इसमें 14 हजार श्लोक एवं 291 अध्याय है। भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार से सम्बद्ध होने के कारण यह पुराण मत्स्य पुराण कहलाता है। भगवान ने मत्स्यावतारी महात्म्य के द्वारा राजा वैवश्वत मनु तथा सप्त ऋषियों को जो कल्याणकारी उपदेश दिये, वही मत्स्य पुराण है।

प्रलय काल से पूर्व मनु महाराज कृत माला नदी में स्नान करने गये। सन्घ्या वन्दन करते हुये मनु सूर्य को अर्ग दे रहे थे तो उनके हाथ में एक छोटी सी मछली आ गयी। मनु महाराज ने उस मछली को छोड़ना चाहा तो वह मछली मानवीय भाषा में करूणा के साथ बोली, महाराज मुझे यहाँ मत छोड़ना। यहाँ बड़े-बड़े जीव-जन्तु रहते हैं मुझे खा जायेंगे। तब महाराज मनु ने उस मछली को कमण्डल में रख लिया और अपने महल में आ गये।

लेकिन एक रात में वह मछली इतनी बड़ी हो गयी कि कमण्डलु में रहने के लिये उसके लिये कोई स्थान नहीं रह गया। तब वह महाराज मनु से बोली, राजन्, मुझे यहाँ कष्ट होता है, मुझे किसी बड़े स्थान पर रहना है। तब राजा ने उस मछली को वहाँ से हटा कर एक बड़े घड़े में रख दिया। लेकिन दूसरे दिन वह मछली घड़े से भी बड़े आकार की हो गयी सो मनु महाराज ने उसे तालाब में छोड़ दिया लेकिन रात बढ़ते-बढ़ते वह दो-योजन और बड़ी हो गयी। राजा ने अब उस मछली को गंगा जी में छोड़ दिया, अन्त में वह गंगा जी से समुद्र में चली गयी। लेकिन समुद्र में भी वह निरन्तर बढ़ने लगी। वह रक्षा के लिये प्रार्थना करने लगी।

राजा ने देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ एवं प्रार्थना करने लगे, प्रभु मत्स्य रूप में हमें मोहित करने वाले आप कोई साधारण शक्ति नहीं हैं। आप सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी भगवान हरि हैं। क्यों आपने यह स्वरूप धारण किया है? यह बताने की कृपा करें। प्रार्थना करने पर मत्स्य रूपी भगवान ने कहा कि हे राजन प्रलय का समय आने वाला है और शीध्र ही यह पृथ्वी जलमग्न होने वाली है। इसलिये आप एक सुदृढ़ नौका (नाँव) बनाकर उसमें सुदृढ़ रस्सी बनाकर सवार हो जाइये। उस पर सप्तऋषियों के साथ में बीज, भूत, औषधियों को लेकर मेरी प्रतीक्षा कीजिये। उस महाप्रलय के समय मैं ही तुम्हारे प्राणों की रक्षा करूँगा। राजा को इतना कहकर वह मत्स्यधारी भगवान वहीं अन्र्तध्यान हो गये।

इधर राजा सत्यव्रत ने एक बहुत बड़ी नौका तैयार की। इसमें सभी बीजों तथा औषधियों को स्थापित किया। सप्तऋषियों की सहायता से उसे महासागर में ले गये। सृष्टि में प्रलय प्रारम्भ हो चुका था। धीरे-धीरे चारों ओर जल ही जल हो गया। राजा भगवान के मत्स्य रूप का चिन्तन करने लगे। कुछ समय बाद भगवान हरि मत्स्य रूप धारण कर प्रकट हुये। उनका शरीर बड़ा देदीप्यमान था। मस्तक पर दो सींग धारण किये हुये थे। राजा ने उस सींग में रस्सी के द्वारा नाँव को बाँध दिया। फिर तो महाप्रलय में महासमुद्र के बीच तरंगों के मध्य में हिडोले खाता हुआ वह नौका विचित्र रूप से झूलने लगी। कहीं भी दूर-दूर तक पृथ्वी का नामो-निशान भी न था। सर्वत्र जल ही जल था। मत्स्यधारी भगवान श्री हरि ने प्रलय के समय नौका को ढोते हुये उनकी रक्षा की और उसी समय राजा सत्यव्रत एवं सप्तऋषियों को धर्मकथा सुनायी। वही यह मत्स्य पुराण है।

जब प्रलय का अन्त समय आया भगवान ने हयग्रीव असुर को मार करन उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजी को दे दिये। धीरे-धीरे जब जल घटने लगा, पृथ्वी दिखने लगी, राजा सत्यव्रत ने जो बीज, औषधि संग्रहीत की थी, उसी से पूरा संसार भर गया और पुनः सृष्टि की रचना प्रारम्भ हुयी। यही राजा सत्यव्रत सातवें वैवश्वत मनु हुये। जिनका समय आज भी चल रहा है और हम सब मनु की सन्तान हैं।

मत्स्य पुराण वैष्णव, शाक्त, सौर, शैव, सभी सम्प्रदाय के मध्य पूज्य है। इसकी कथाओं में विविध दानों की महिमा, राजधर्म वर्णन, प्रयाग महिमा, नवग्रहों का स्वरूप वर्णन, स्वप्न शास्त्र, अंगस्फुरन, ज्योतिष रत्न विज्ञान का वर्णन, देवताओं की प्रतिमाओं का स्वरूप वर्णन, वास्तु विद्या, तारकासुर आख्यान, नरसिंह चरित्र, ऋषियों के वंश का वर्णन, देव-प्रतिष्ठा आदि चरित्रों का सम्यक् वर्णन है। इन कथाओं के श्रवण करने से मनुष्य के जीवन से समस्त भय का नाश हो जाता है।

मत्स्य पुराण करने का फल:-
इस पुराण को स्वयं श्रीहरि मत्स्य भगवान ने कहा है। यह पुराण परम् पवित्र, आयु की वृद्धि करने वाला, कीर्ति वर्धक, महापापों का नाश करने एवं यश को बढ़ाने वाला है। इस पुराण की एक दिन की भी यदि व्यक्ति कथा सुनने वह भी पापों से मुक्त होकर श्रीमद्नारायण के परम धाम को चला जाता है।

Sunday, May 10, 2015

मातृ दिवस विशेष।


मातृ दिवस विशेष।
'माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं,
जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है।
जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है।
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है।
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़ समझता हूँ,
जो मेरा आदर्श है।
जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे,
दुनिया से सामना करने की ‍शक्ति देता है।
जो साया बनकर हर कदम पर मेरा साथ देती है।
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है।
मेरी हर परीक्षा जैसे,
उसकी अपनी परीक्षा होती है।
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे,
कहीं कोई अधूरापन सा लगता है।
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है।
वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं,
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं।

Saturday, May 09, 2015

महाराणा प्रताप।


महाराणा प्रताप।
महाराणा प्रताप का जीवन परिचय:-
पूरा नाम- ‌‌‌‌‌‌‌महाराणा प्रताप
जन्म- 9 मई, 1540 ई.
जन्म स्थान- कुंभलगढ़ (राजस्थान)
मृत्यु 29 जनवरी, 1597 ई.
पिता- माता- पिता महाराणा उदयसिंह, माता- राणी जीवत कंवर
शासन काल- 1568-1597 ई.
शा. अवधि- 29 वर्ष
राज्य सीमा- मेवाड़
धर्म- हिंदू धर्म
युद्ध- हल्दीघाटी का युद्ध
राजघराना- राजपूताना
राजधानी- उदयपुर

महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत् कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। राजस्थान के कुंभलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म महाराजा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कंवर के घर ई.स. 1540 में हुआ था। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ था। मेवाड़ की शौर्य-भूमि धन्य है जहां वीरता और दृढ प्रण वाले प्रताप का जन्म हुआ। जिन्होंने इतिहास में अपना नाम अजर-अमर कर दिया। उन्होंने धर्म एवं स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान दिया। सन् 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में करीब बीस हजार राजपूतों को साथ लेकर महाराणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के अस्सी हजार की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को शक्ति सिंह ने बचाया। यह युद्ध केवल एक दिन चला परंतु इसमें सत्रह हजार लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने भी सभी प्रयास किए। इस योद्धा ने साधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सिर नहीं झुकाया और जंगल के कंद-मूल खाकर लड़ते रहे। प्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके दुश्मन भी उनके युद्ध-कौशल के कायल थे। माना जाता है कि इस योद्धा की मृत्यु पर अकबर की आंखें भी नम हो गई थीं। उदारता ऐसी कि दूसरों की पकड़ी गई बेगमों को सम्मानपूर्वक उनके पास वापस भेज दिया था। 

कहते हैं कि जब कोई अच्छाई के लिए लड़ता है तो पूरी कायनात उसे जीत दिलाने में लग जाती है। ये बात हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि उनका घोड़ा चेतक भी उन्हें जीत दिलाने के लिए अंतिम समय तक लड़ता रहा। चेतक की ताकत का पता इस बात से लगाया जा सकता था कि उसके मुंह के आगे हाथी कि सूंड लगाई जाती थी। जब मुगल सेना महाराणा प्रताप के पीछे लगे थी, तब चेतक प्रताप को अपनी पीठ पर लिए 26 फीट के उस नाले को लांघ गया, जिसे मुगल पार न कर सके।

महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था। महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो… और लम्बाई 7 फीट 5 इंच थी। यह बात अचंभित करने वाली है कि इतना वजन लेकर प्रताप रणभूमि में लड़ते थे।

Friday, May 08, 2015

प्राण रक्षा मंत्र।

प्राण रक्षा मंत्र।
प्राणस्‍त्‍वं सर्वभूतानां योनिश्‍च सरितां पते।
तीर्थराज नमस्‍तेऽस्‍तु त्राहि मामच्‍युतप्रिय।।
(ना0 उतर0 57।2)

'सरिताओं के स्‍वामी तीर्थराज! आप सम्‍पूर्ण भूतों के प्राण और योनि है। आपको नमस्‍कार है। अच्‍युतप्रिय! मेरी रक्षा कीजिये।'

Thursday, May 07, 2015

भारतीय त्‍यौहार और संस्‍कृति





This Video About By - Indian Festival & Cultures
Created By - Mukesh Kumar Kumawat 
Mandha Bhimsingh, Jaipur, Rajasthan. 

Tuesday, May 05, 2015

नारद मुनि।


नारद मुनि।
नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है।

देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।

वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।

महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारदजी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

Monday, May 04, 2015

बुद्ध जयन्ती।

बुद्ध जयन्ती।
बुद्ध जयन्ती (बुद्ध पूर्णिमा, वेसाक या हनमतसूरी) बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। इस दिन ५६३ ई.पू. में बुद्ध स्वर्ग से संकिसा मे अवतरित हुए थे। इस पूर्णिमा के दिन ही ४८३ ई. पू. में ८० वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। ऐसा किसी अन्य महापुरुष के साथ आज तक नही हुआ है। इस प्रकार भगवान बुद्ध दुनिया के सबसे महान महापुरुष है। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में ५० करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, नेपाल, सिंगापुर,वियतनाम, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया तथा पाकिस्तान में मनाया जाता है।

बुद्ध के ही बिहार स्थित बोधगया नामक स्थान हिन्दू व बौद्ध धर्मावलंबियों के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ सात वर्षों तक वन में भटकते रहे। यहाँ उन्होंने कठोर तप किया और अंततः वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से यह दिन बुद्ध पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है। बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर में स्थित महापरिनिर्वाण मंदिर पर एक माह का मेला लगता है। यद्यपि यह तीर्थ महात्मा बुद्ध से संबंधित है, लेकिन आस-पास के क्षेत्र में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा है और यहां के मंदिरों में पूजा-अर्चना करने वे बड़ी श्रद्धा के साथ आते हैं। इस मंदिर का महत्व बुद्ध के महापरिनिर्वाण से है। इस मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफाओं से प्रेरित है। इस मंदिर में भगवान बुद्ध की लेटी हुई (भू-स्पर्श मुद्रा) ६.१ मीटर लंबी मूर्ति है। जो लाल बलुई मिट्टी की बनी है। यह मंदिर उसी स्थान पर बनाया गया है, जहां से यह मूर्ति निकाली गयी थी। मंदिर के पूर्व हिस्से में एक स्तूप है। यहां पर भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था। यह मूर्ति भी अजंता में बनी भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण मूर्ति की प्रतिकृति है।

श्रीलंका व अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को 'वेसाक' उत्सव के रूप में मनाते हैं जो 'वैशाख' शब्द का अपभ्रंश है। इस दिन बौद्ध अनुयायी घरों में दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाते हैं। विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया जाता है। मंदिरों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाते हैं और दीपक जलाकर पूजा करते हैं। बोधिवृक्ष की भी पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं को हार व रंगीन पताकाओं से सजाते हैं।

Sunday, May 03, 2015

कुर्म अवतार।


कुर्म अवतार।
अग्निदेव कहते हैं - वशिष्ठ! अब मैं कुर्मावतार का वर्णन करूँगा। यह सुनने पर सब पापों का नाश हो जाता है। पूर्वकाल की बात है, देवासुर - संग्राम में दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया। वे दुर्वासा ऋषि के शाप से भी लक्ष्मी रहित हो गए थे। तब सम्पूर्ण देवता क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान विष्णु के पास जाकर बोले - 'भगवन! आप देवताओं की रक्षा कीजिये।' सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्मा आदि देवताओं से कहा - देवगण! तुम लोग क्षीरसमुद्र को मथने, अमृत प्राप्त करने और लक्ष्मी को पाने के लिए असुरों से संधि कर लो। कोई बड़ा काम या भारी प्रलोभन आ पड़ने पर शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिए। मैं तुम लोगों को अमृत का भागी बनाऊंगा और दैत्यों को उससे वंचित रखूँगा। मंदराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेति बनाकर आलस्यरहित हो मेरी सहायता से तुम लोग क्षीरसागर का मंथन करो। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर देवता दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसमुद्र पर आये। फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र-मंथन आरम्भ किया। जिस ओर वासुकि नाग की पूंछ थी, उसी ओर देवता खड़े थे। दानव वासुकि नाग के निःश्वास से क्षीण हो रहे थे ओर देवताओं को भगवान् अपनी कृपा से परिपुष्ट कर रहे थे। समुद्र-मंथन आरम्भ होने पर कोई आधार न मुलने से मंदराचल पर्वत समुद्र में डूब गया।

तब भगवान विष्णु ने कुर्म (कछुए) का रूप धारण कर के मंदराचल को अपनी पीठ पर रख लिया। फिर जब समुद्र माथा जाने लगा, तो उसके भीतर से हलाहल विष प्रकट हुआ। उसे भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण कर लिया इससे कंठ में काला दाना पड़ जाने से वे 'नीलकंठ' नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात समुद्र से वारुणीदेवी, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि, गौएँ तथा दिव्य अप्सराएँ प्रकट हुयी। फिर लक्ष्मी देवी का प्रादुर्भाव हुआ। वे भगवान विष्णु को प्राप्त हुई। सम्पूर्ण देवताओं ने उनका दर्शन ओर स्तवन किया। इससे वे लक्ष्मीवान हो गए। तदन्तर भगवान विष्णु के अंशभूत धन्वन्तरी, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक हैं, हाथ में अमृत से भरा हुआ कलश लिए प्रकट हुए। दैत्यों ने उनके हाथ से अमृत छीन लिया ओर उसमे से आधा देवताओं को देकर वे सब चलते बने। उनमें जम्भ आदि दैत्य प्रधान थे। उन्हें जाते देख भगवान विष्णु ने स्त्री रूप धारण किया। उस रूपवती स्त्री को देखकर दैत्य मोहित हो गए ओर बोले-'सुमुखी! तुम हमारी भार्या हो जाओ ओर यह अमृत लेकर हमें पिलाओ।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् ने उनके हाथ से अमृत ले लिया ओर उसे देवताओं को पिला दिया। उस समय राहू चंद्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चंद्रमा ने उसके कपट-वेश को प्रकट कर दिया।

यह देख भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका मस्तक काट डाला। उसका सर अलग हो गया और भुजाओं सहित धड अलग रह गया। फिर भगवान को दया आ गयी और उन्होंने राहू को अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहू ने भगवान श्रीहरि से कहा - 'इन सूर्य और चंद्रमा को मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसार के लोग जो कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो। भगवान विष्णु ने 'तथास्तु' कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ राहू की बात का अनुमोदन किया। इसके बाद भगवान् ने स्त्री रूप त्याग दिया; किन्तु महादेव जी को भगवान के उस रूप का पुनर्दर्शन करने की इच्छा हुई। अतः उन्होंने अनुरोध किया-भगवन! आप अपने स्त्री रूप का मुझे दर्शन करेवें। महादेवजी की प्रार्थना से भगवान् श्रीहरि ने उन्हें अपने स्त्रीरूप का दर्शन कराया। वे भगवान् की माया से मोहित हो गए की पार्वतीजी को त्याग कर उस स्त्री के पीछे लग गए। उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर मोहिनी के केश पकड़ लिये। मोहिनी अपने केशों को छुडवाकर वहां से चल दी। उसे जाती देख महादेव जी भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ भगवान् शंकर का वीर्य गिरा, वहां-वहां शिवलिंगों का क्षेत्र एवं सुवर्ण की खानें हो गयी। तत्पश्चात 'यह माया है' - ऐसा जान कर भगवान् शंकर अपने स्वरूप में स्थित हुए। तब भगवान श्रीहरि ने प्रकट होकर शिवजी से कहा- 'रूद्र! तुमने मेरी माया को जीत लिया है। पृथ्वी पर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो मेर्री इस माया को जीत सके।' भगवान् के प्रयत्न से दैत्यों को अमृत नहीं मिलने पाया; अतः देवताओं ने उन्हें युद्ध में मार गिराया। फिर देवता स्वर्ग में विराजमान हुए और दैत्यलोग पाताल में रहने लगे। जो मनुष्य देवताओं की इस विजयगाथा का पाठ करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है।

Saturday, May 02, 2015

भगवान नरसिंह।


भगवान नरसिंह।
("नर+सिंह") मानव-सिंह को पुराणों में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका सिर एवं धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे वे भारत में, खासकर दक्षिण भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक देवता के रूप में पूजे जाते हैं जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं।

प्रार्थना-
नरसिंह के बारे में कई तरह की प्रार्थनाएँ की जाती हैं जिनमे कुछ प्रमुख ये हैं:-
नरसिंह मंत्र ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्। नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
भावार्थ- हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है। हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ।

श्री नृसिंह स्तवन:-
प्रहलाद ह्रदयाहलादं भक्ता विधाविदारण। शरदिन्दु रुचि बन्दे पारिन्द् बदनं हरि ॥१॥
नमस्ते नृसिंहाय प्रहलादाहलाद-दायिने। हिरन्यकशिपोर्ब‍क्षः शिलाटंक नखालये ॥२॥
इतो नृसिंहो परतोनृसिंहो, यतो-यतो यामिततो नृसिंह। बर्हिनृसिंहो ह्र्दये नृसिंहो, नृसिंह मादि शरणं प्रपधे ॥३॥
तव करकमलवरे नखम् अद् भुत श्रृग्ङं। दलित हिरण्यकशिपुतनुभृग्ङंम्। केशव धृत नरहरिरुप, जय जगदीश हरे ॥४॥
वागीशायस्य बदने लर्क्ष्मीयस्य च बक्षसि। यस्यास्ते ह्र्देय संविततं नृसिंहमहं भजे ॥५॥
श्री नृसिंह जय नृसिंह जय जय नृसिंह। प्रहलादेश जय पदमामुख पदम भृग्ह्र्म ॥६॥