कुर्म अवतार।
अग्निदेव कहते हैं - वशिष्ठ! अब मैं कुर्मावतार का वर्णन करूँगा। यह सुनने पर सब पापों का नाश हो जाता है। पूर्वकाल की बात है, देवासुर - संग्राम में दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया। वे दुर्वासा ऋषि के शाप से भी लक्ष्मी रहित हो गए थे। तब सम्पूर्ण देवता क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान विष्णु के पास जाकर बोले - 'भगवन! आप देवताओं की रक्षा कीजिये।' सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्मा आदि देवताओं से कहा - देवगण! तुम लोग क्षीरसमुद्र को मथने, अमृत प्राप्त करने और लक्ष्मी को पाने के लिए असुरों से संधि कर लो। कोई बड़ा काम या भारी प्रलोभन आ पड़ने पर शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिए। मैं तुम लोगों को अमृत का भागी बनाऊंगा और दैत्यों को उससे वंचित रखूँगा। मंदराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेति बनाकर आलस्यरहित हो मेरी सहायता से तुम लोग क्षीरसागर का मंथन करो। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर देवता दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसमुद्र पर आये। फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र-मंथन आरम्भ किया। जिस ओर वासुकि नाग की पूंछ थी, उसी ओर देवता खड़े थे। दानव वासुकि नाग के निःश्वास से क्षीण हो रहे थे ओर देवताओं को भगवान् अपनी कृपा से परिपुष्ट कर रहे थे। समुद्र-मंथन आरम्भ होने पर कोई आधार न मुलने से मंदराचल पर्वत समुद्र में डूब गया।
तब भगवान विष्णु ने कुर्म (कछुए) का रूप धारण कर के मंदराचल को अपनी पीठ पर रख लिया। फिर जब समुद्र माथा जाने लगा, तो उसके भीतर से हलाहल विष प्रकट हुआ। उसे भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण कर लिया इससे कंठ में काला दाना पड़ जाने से वे 'नीलकंठ' नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात समुद्र से वारुणीदेवी, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि, गौएँ तथा दिव्य अप्सराएँ प्रकट हुयी। फिर लक्ष्मी देवी का प्रादुर्भाव हुआ। वे भगवान विष्णु को प्राप्त हुई। सम्पूर्ण देवताओं ने उनका दर्शन ओर स्तवन किया। इससे वे लक्ष्मीवान हो गए। तदन्तर भगवान विष्णु के अंशभूत धन्वन्तरी, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक हैं, हाथ में अमृत से भरा हुआ कलश लिए प्रकट हुए। दैत्यों ने उनके हाथ से अमृत छीन लिया ओर उसमे से आधा देवताओं को देकर वे सब चलते बने। उनमें जम्भ आदि दैत्य प्रधान थे। उन्हें जाते देख भगवान विष्णु ने स्त्री रूप धारण किया। उस रूपवती स्त्री को देखकर दैत्य मोहित हो गए ओर बोले-'सुमुखी! तुम हमारी भार्या हो जाओ ओर यह अमृत लेकर हमें पिलाओ।' 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् ने उनके हाथ से अमृत ले लिया ओर उसे देवताओं को पिला दिया। उस समय राहू चंद्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब सूर्य और चंद्रमा ने उसके कपट-वेश को प्रकट कर दिया।
यह देख भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका मस्तक काट डाला। उसका सर अलग हो गया और भुजाओं सहित धड अलग रह गया। फिर भगवान को दया आ गयी और उन्होंने राहू को अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहू ने भगवान श्रीहरि से कहा - 'इन सूर्य और चंद्रमा को मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसार के लोग जो कुछ दान करें, वह सब अक्षय हो। भगवान विष्णु ने 'तथास्तु' कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ राहू की बात का अनुमोदन किया। इसके बाद भगवान् ने स्त्री रूप त्याग दिया; किन्तु महादेव जी को भगवान के उस रूप का पुनर्दर्शन करने की इच्छा हुई। अतः उन्होंने अनुरोध किया-भगवन! आप अपने स्त्री रूप का मुझे दर्शन करेवें। महादेवजी की प्रार्थना से भगवान् श्रीहरि ने उन्हें अपने स्त्रीरूप का दर्शन कराया। वे भगवान् की माया से मोहित हो गए की पार्वतीजी को त्याग कर उस स्त्री के पीछे लग गए। उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर मोहिनी के केश पकड़ लिये। मोहिनी अपने केशों को छुडवाकर वहां से चल दी। उसे जाती देख महादेव जी भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ भगवान् शंकर का वीर्य गिरा, वहां-वहां शिवलिंगों का क्षेत्र एवं सुवर्ण की खानें हो गयी। तत्पश्चात 'यह माया है' - ऐसा जान कर भगवान् शंकर अपने स्वरूप में स्थित हुए। तब भगवान श्रीहरि ने प्रकट होकर शिवजी से कहा- 'रूद्र! तुमने मेरी माया को जीत लिया है। पृथ्वी पर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो मेर्री इस माया को जीत सके।' भगवान् के प्रयत्न से दैत्यों को अमृत नहीं मिलने पाया; अतः देवताओं ने उन्हें युद्ध में मार गिराया। फिर देवता स्वर्ग में विराजमान हुए और दैत्यलोग पाताल में रहने लगे। जो मनुष्य देवताओं की इस विजयगाथा का पाठ करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है।
जय श्री हरि:
ReplyDelete